जब १५ अगस्त २०१९ को तिरंगा झंडा फहराया जा रहा था, तो गर्व और देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत होते हुए मैंने सोचा था कि १९४७ में क्या खूब आज़ादी हमें मिली रही होगी, जैसे किसी गरीब भूमिहीन को बोरे भर भर अनाज मिल गया रहा हो।
उस दिन दूर दराज के एक क्षेत्र में आजादी की जांच-परख करने जाना हुआ था तो वहां घिसइया दिखाई दिया था! वही घिसइया जो सड़क-चौराहे और गाँव-गिराव में चलते चलाते अकसर टकरा जाता है और जिसकी यदा-कदा चर्चा भी कर देता हूँ। उसे देखते ही मैं औचकते हुए पूँछ बैठा था, "अरे घिसई, तू यहां कैसे, उस दिन तो तू शहर में मिला था!" घिसइया ने मुस्कुराते हुए, जैसे अपनी गरीबी पर फ़क्र करते हुए कहा था, "का गुरु, आप गरीबन को अस-तस समझते हो का, अरे ये आपको हर जगह मिल जाइहैं, बस आपका हृदै पवित्तर हो।" मैंने भी मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया था, "हाँ सही कहा, अपने देश में गरीब भी भगवान की तरह सर्वव्यापी होते हैं न, और हाँ पवित्तर हृदै वाले ही गरीब खोज पाते हैं।" खैर, उस दिन तो जाँच पड़ताल करके मैं चला आया था, लेकिन इस पंद्रह अगस्त के दिन मेरे दिमाग में चकरघिन्नी की तरह यह प्रश्न नाच रहा था कि सन् सैंतालिस में बोरे भर भर मिली आजादी के वितरण में घिसईया अपना हिस्सा पाने से छूटा क्यों? और मैं उसकी यादों के सहारे अपना भाषण बुनने लगा।
असल में घिसइया के बाप-दादाओं से कहीं चूक हुई होगी। आजादी के मतलब से वे नावाकिफ रहे होंगे इसलिए उनकी दिलचस्पी आज़ादी के लिए मतवाले हो रहे लोगों को कौतूहल से देखने के सिवा और कुछ न रही होगी, और इसे लपकने में वे चूक गए। एक बात और, जिन्हें आजादी के मायने पता होता है वे ही नेता बनते हैं और बनाते हैं, फिर तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह बनने-बनाने का खेल चल निकलता है। इसीलिए नेताओं की पीढ़ियाँ सबसे ज्यादा आजाद होकर घूमती है। इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे भारत देश इन्हीं के लिए आजाद हुआ है।
वैसे ये करते भी तो क्या करते, इस भूखे नंगे देश में सभी को एक साथ आजादी बांटी नहीं जा सकती थी! ऐसा करने से अंग्रेजों से मिली आजादी का बखार खाली हो जाता और आजादी बांटने वालों के बच्चे भी घिसईया की तरह आज मारे मारे फिर रहे होते। इसीलिए पंचवर्षीय प्लान के तहत शनै: शनै: आजादी बांटने की नीति अपनाई गई।
फिर क्या था आजादी के मालिकों में अंग्रेजों के लटके-झटके आ गए और अपनी मदद के लिए ये अंग्रेजियत की फौज खड़ी करते गए! इस फौज के साथ मिलकर ये आजादी का लुत्फ उठाना शुरू कर दिए। इनके लुत्फ पर कोई और मालिकाना हक़ न जताए इसलिए लबादे बुने गए, जैसे धर्म, भाषा, क्षेत्र, और तो और एक मायने में जाति के भी, क्योंकि नेताओं की आजादी के लिए ऐसे लबादे बेहद जरूरी हुए। इन लबादों को जनता की ओर उछाला गया, जिन्हें ओढ़-ओढ़ कर पगलाई-धगलाई जनता स्वतंन्त्रता की फुल अनुभूति प्राप्त करती रही है। कुलमिलाकर हुआ यह कि जैसे इन लबादों को बुनने के लिए ही हम स्वतंन्त्र हुए हों।
उस दिन गांव में आजादी की जाँच-परख करते करते मेरी निगाह बिना तार के बिजली के खम्भों पर चली गई, गांव वालों ने बताया आजादी के बाद से अभी तक बिजली नहीं आई, तो मैंने कहा "जैसे खम्भे गड़े वैसे बिजली भी आ जाएगी, थोड़ा गम खाओ, आजादी धीरे-धीरे आती है न।" इसी समय 'इंजिनियर कम ठेकेदार' ने कहा, "साहब, यह इंटरलाकिंग ईंटों की रोड मंदिर तक बना दिया है। आइए मंदिर तक चलें।" मैंने मंदिर की ओर जाती उस सड़क को निहारा जिसके एक ओर बस्ती तो दूसरी ओर खेत थे, लेकिन मुझे लगा इससे ज्यादा ज़रूरी उस गांव को जोड़ने वाले कच्चे रास्ते पर पुल की थी, क्योंकि बारिश के पानी ने रास्ते को काटकर तालाब में बदल दिया था। मैंने इंजीनियर की ओर देखते हुए कहा, "पहले पुल बनना चाहिए था।" तब तक साथ चल रहे मंदिर के पुजारी जी ने कहा, "आइए, मंदिर तक तक चलें.." पुजारी की ओर ध्यान से देखते हुए मैंने उसे जर्जर और निष्प्रयोज्य शौचालयों को दिखाते हुए कहा, "अच्छा ये बताइए, ये जो शौचालय बने हैं ध्वस्त होने के कागार पर हैं, कभी गांववासियों को इनका प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया है? नहीं किया है न, तो मंदिर तक मैं क्या जाऊँ! एक बात और पुजारी जी, इस गांव में कितनी गंदगी है! देख रहे हैं न, यहां के लोग बीमार जैसे दिखाई दे रहे हैं, कभी आपने इन्हें समझाया है कि अपने आसपास और स्वयं को साफ-सुथरा रखो? नहीं समझाया है न! तो आपके माथे के इस तिलक का कोई मतलब नहीं!" और वहां से चल दिया था।
दरअसल यह सब मैंने झटके में बोल दिया था जिसके दो कारण थे। पहला, मंदिर में चढ़ावे के लिए मेरे जेब में प्रर्याप्त 'आजादी' नहीं थी, इसलिए मंदिर तक नहीं गया। दूसरे मुझे इस गांव में फुल आजादी का दर्शन नहीं हुआ। लेकिन पुजारी जी इसके बावजूद मुझे सुनकर मुस्कुरा रहे थे! उनकी इस मुस्कुराहट को मैंने उनके 'धर्म' का बड़प्पन माना जो मेरे प्रति 'क्रूर' नहीं हुआ।
अरे हां! लबादे की बात पर मैं एक बात भूला ही जा रहा था, वह है स्वतंन्त्रता का लबादा! इस लबादे को बौद्धिकों के संम्प्रदाय के लोग ज़्यादा पसंद करते हैं! ये लोग क्रूरता में भी लोकतंत्र तलाशते हैं, तो गरीबी को आजादी का प्रतीक मानते हैं। यह बौद्धिक संम्प्रदाय जबरदस्त मानवीय होता है। इसमें लेखक, पत्रकार, मानवाधिकारवादी और स्वतंन्त्रता की चाह रखने वाले न जाने कौन-कौन से लोग शामिल हो जाते हैं और ये सुबह-शाम हुँहुँवाते रहते हैं। मुझे लगता है जब इनके जेब में 'आजादी' की कमी होती है, तभी हुँवा-हुँवा करते हैं अन्यथा घिसइया जैसों से, जो सत्तर साल से यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देता रहता है, ये कोई मतलब नहीं रखते। हां, बात की खाल निकालना ये खूब जानते हैं, लेकिन किसी समस्या का हल इनके पास नहीं होता! आजादी का ठेका न मिल पाने पर ये अकसर आजादी के 'कस्टोडियनों' के उठने-बैठने और उनकी हरकतों पर ही फोकस्ड होकर उसमें अपनी 'आजादी' ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन ये बौद्धिक संम्प्रदाय के लोग शेर के सामने मिमियाते हैं। अपनी आजादी का ये ऐसे ही प्रयोग करते हैं।
खैर, उस गाँव से लौटते ही मुझे अपनी 'आजादी' की फ़िक्र हुई तथा मैं घिसइया और उसके गाँव को भूल गया, क्योंकि घिसई या उसके गांव की आजादी में वृद्धि से मेरी आजादी कम होती। वैसे भी इस देश में दो लोगों की आजादी में परस्पर समानांतर रेखाओं जैसा नहीं, तिर्यक रेखाओं जैसा संबंध होता है। इसलिए इनको भूलकर केवल लिखने और भाषण देने के लिए मैंने उसे और उसके गांव को अपनी यादों में सुरक्षित कर लिया।
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