आजकल इस देश में जीडीपी के गिरने पर खूब हो-हल्ला मचा है, देश पीछे जा रहा है। अब जब देश पीछे जाएगा, तो कहाँ जाएगा? अगर इस ग्लोब पर देखोगे तो, अमेरिका और भारत भी आपस में आगे-पीछे होते रहते हैं ! चूँकि मामला अर्थव्यवस्था से जुड़ता है, इसलिए पीछे जाने का मतलब आज की अपेक्षा गरीब होने से लगाना यथोचित जान पड़ता है। अब जब देश गरीब होगा तो निश्चित ही इसका समय पीछे की ओर जाएगा। जो पाषाण युग तक देश को पीछे ले जा सकता है, क्यों है न?
तो हम मानते हैं, जीडीपी का गिरना इस देश को बाईसवीं सदी की बजाय एक बार फिर पीछे की ओर बीसवीं शताब्दी में ढकेल देगा और निनिहाते भारत का एक बार फिर दर्शन सर्वसुलभ होगा। आखिर क्यों नहीं होगा ? जब अर्थव्यवस्था डाउन होगी तो यही होगा। कुल मिलाकर समय परिवर्तन होगा ही और जीडीपी के गिरने के अनुपात में होगा। जितना यह गिरता जाएगा उतना देश का समय पीछे की ओर खिसकता जाएगा।
अब अगर ऐसे ही जीडीपी का गिरना जारी रहा तो बीसवीं के बाद अट्ठरहवीं से उन्नीसवीं और फिर सत्रहवीं शताब्दी होते हुए देश की अर्थव्यवस्था मुगलकाल में पहुँच जाएगी। ऐसे में यहाँ एक बात ध्यातव्य है, आज इसके गिरने पर जो फूले नहीं समा रहे हैं, तब यही लोग गिरते-गिरते मुगलकाल की अवस्था तक आई जीडीपी को यहाँ से और नहीं गिरने देना चाहेंगे। तब धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर जीडीपी के स्थिर हो जाने की ये प्रार्थना करेंगे! मतलब धर्मनिरपेक्ष अर्थशास्त्रियों को आज की रेट की तुलना में मुग़ल काल तक ले जाने वाले जीडीपी का रेट स्वीकार होगा। लेकिन तब भक्त टाइप के अर्थशास्त्रियों को यहाँ भिनभिनाने का अवसर मिल जाएगा ! और ये बेचारे जो आज इसके गिरने से तमाम लानत-मलामत तथा ताने झेलकर चिंतित हुए जा रहे हैं, तब जीडीपी के गिरावट को भारत की सेहत के लिए रामबाण औषधि घोषित कर देंगे, क्योंकि वे नहीं चाहेंगे कि भारत की अर्थव्यवस्था मुग़लकाल में स्टे करे।
मुगलकाल तक पहुंचकर स्थिर हुई जीडीपी के स्तर से दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री खुश होने से रहे। यहाँ आकर जीडीपी की छीछालेदर एक बार फिर तय मानिए। इसकी ऐसी खींचतान शुरू होगी कि दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री इसके गिरने के स्तर को, मुगलकाल से और नीचे ले जाकर भारत के सोने की चिड़िया होने वाले युग में पहुँचाना चाहेंगे। लेकिन वहीं वामपंथी अर्थशास्त्रियों को यह स्थिति नागवार गुजरेगी, क्योंकि इनके अनुसार इससे भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के साथ यहां आजादी और लोकतंत्र को भी खतरा पहुँचेगा। वहीं लगे दाहिने हाथ, दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री जीडीपी को और न गिरने देने की वकालत करने वालों को राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर देंगे, इनके अनुसार आखिर क्यों न पहुँचे भारत अपने सोने की चिड़िया वाले युग में!
अब जरा कल्पना करिए कि युगों से इस देश के जीडीपी की कितनी उठक-बैठक हुई होगी ! लेकिन पहले यह मसला दक्षिणपंथी और वामपंथी अर्थशास्त्रियों के बीच का नहीं रहा होगा। गरीब बेचारा अपनी गरीबी से संतुष्ट रहा होगा, इसीलिए इतिहास में इसपर इतना हो-हल्ला मचने की जानकारी दर्ज नहीं है। लेकिन इधर जब से विकास को राजनीति का हथियार बनाया जाने लगा है तब से अर्थव्यवस्था के आँकड़ो को गरीबों को दिखाना जरूरी हो चला है कि देखो इस सरकार ने तुम्हारी स्थिति सुधारी कि बिगाड़ी है। लेकिन इन आँकड़ों को देख सुनकर गरीब यह नहीं समझ पाते कि इसे लेकर वे हँसें कि रोयें। यहीं पर आकर मुझे इस बात की चिंता होती है कि इस पर मचे हो-हल्ले से, यदि कहीं इस देश का गरीब जाग गया तो वह जीडीपी को मनरेगा जैसी कोई योजना न समझ बैठें !
खैर, मुझे जीडीपी और अर्थव्यवस्था पर पड़ते इसके प्रभाव का ज्ञान नहीं है। लेकिन मैं भी, जब से लोग जीडीपी-जीडीपी चिल्लाने लगे हैं, तब से इसे मनरेगा जैसी कोई योजना ही समझने लगा हूँ। साधारण भाषा में इसे हम इस तरह समझा सकते हैं कि भारत जैसे देश में जीडीपी के बढ़ने या घटने से केवल गरीबों के पतरी (पत्तल) चाटने पर असर पड़ता है। अगर बढ़ गई, तो चाटने को कुछ ज्यादा मिल सकता है और घट गई तो चाटने भर को भी कुछ नहीं बचेगा, क्योंकि यहां जो गरीब नहीं होता उसका पेट बहुत बड़ा होता है, और सारी जीडीपी उसी के पेट में जाती है, जैसे मनरेगा की मजदूरी! इसीलिए गरीब बेचारे जीडीपी से मतलब नहीं रखते। इस पर ज़्यादा चर्चा करना दक्षिणपंथी और वामपंथी अर्थशास्त्रियों के खेल को शह देना भर है, जो राजनीति करते हों वही शह-मात का खेल खेलें।
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