दुनिया को एक न एक दिन इस महामारी से अवश्य मुक्ति मिलेगी| लेकिन इस बीमारी के जाते-जाते विकास का खोखलापन उजागर हो चुका होगा, वही विकास जिसे इस महामारी से पार पाने में नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं| एक दिन यह होना ही था, आखिर धरती पर इंसानों की गतिविधियों की कोई न कोई सीमा तो होनी ही चाहिए, लेकिन इस सीमा पर हमने कभी सोचने की जरूरत ही नहीं समझी! कहते हैं जंगल के भी अपने कानून होते हैं, और यह कानून प्रत्येक जानवर के लिए एक क्षेत्र निर्धारित करता है और यदि यह क्षेत्र अतिक्रमित होता है, चाहे किसी भी जानवर द्वारा हो, तो इन वन्य जन्तुओं के अस्तित्व पर संकट मँडराने लगता है| लेकिन क्या मनुष्य ने अपने लिए ऐसी कोई सीमा निर्धारित की हुई है? दरअसल आधुनिक मानव ने अब तक अपने लिए किसी सुरक्षित जोन का निर्धारण ही नहीं किया और अगर कुछ किया भी तो राजनीति, धर्म-सम्प्रदाय, जाति आदि जैसी मानवता को दरकिनार करके चलने वाली विभाजक रेखाएं ही उसने खींची| उसकी खींची ये सारी विभाजक रेखाएं उसके बाजारवादी विकास के माडल में कोढ़ में खाज जैसी ही सिद्ध हुई हैं!
खैर, अगर उसने अपने लिए किसी जोन का निर्धारण किया भी है तो वह है विकास का जोन! आधुनिक युग में मनुष्य अपना मूल्यांकन इस जोन के लिए अपने द्वारा निर्धारित किए गए मानदंडों के अनुसार ही करता है| लेकिन ये मानदंड अब छिन्न-भिन्न होते दिखाई दे रहे हैं| ऐसा हो भी क्यों न! दरअसल उसने विकास को अपने लिए नहीं गढ़ा, बल्कि स्वयं को ही विकास के लिए गढ़ने लगा और उसके हवाले हो लिया| विकास के जोन मेें खड़े मनुष्य की अन्तश्चेतना से प्रकृति लुप्त होने लगी| दरअसल इस जोन में खड़ा प्रकृति से उपजा प्रकृति का यह श्रेष्ठतम जीव, स्वयं अप्राकृतिक हो उठा! और यही पैमाना हो गया उसके विकास का तथा इस पैमाने पर इतराने भी लगा|
यह बड़े आश्चर्य का विषय है कि अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी तक महामारियों, व्याधियों से लड़ता आया इंसान कैसे यह सब भूल गया! क्या विकास के उसके गढ़े हुए मानदंड से जीवन बहिष्कृत होता गया है? वास्तव में अट्ठारहवीं- उन्नीसवीं शताब्दी के बाद हुई वैज्ञानिक प्रगति और उसकी खोजों से यह दुनियां जितनी सुंदर और सुरक्षित होनी चाहिए थी क्या ऐसा ही हो पाया है? शायद नहीं, अन्यथा एक महामारी के समक्ष हम निरुपाय से असहाय खड़े हुए बिलबिला न रहे होते! सच तो यह है, हमने रचा बहुत कुछ है, लेकिन इस रचे हुए को बाजार के हवाले कर दिया तथा जीवन ही नहीं मृत्यु को भी हम बेचने लगे| कोई आश्चर्य नहीं कि कोरोना वायरस भी इस बाजार की ही देन हो और इसके द्वारा उत्पन्न किया|
बाजार और विकास के चक्कर में हमने अपनी प्यारी धरती को कितना झुठलाया है, यह समझने की बात है! लेकिन यह विडंबना ही है कि कोरोना महामारी के खूनी जबड़े में आज मनुष्य के साथ-साथ उसका यह बाजार और विकास फँसा पड़ा कराह रहा है| आज कोरोना के समक्ष मनुष्य के गढ़े हुए उसके सुरक्षित जोन, यथा उसकी गढ़ी हुई राजनीति, उसके धर्म, सम्प्रदाय, उसके भगवान, उसका ऊपरवाला सब असहाय हैं| मनुष्य द्वारा निर्मित सारी विभाजक रेखाएं इस कोरोना के सामने अब बेमानी हो रही हैं|
खैर अभी ग़नीमत है कि हम अपने शहरों, सड़कों और गलियों के सूनेपन को देख पा रहे हैं, लेकिन कहीं ऐसा भी दिन न आ जाए जब इस सूनेपन के बीच ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं के कंगूरे ढह रहे हों और इन्हें देखने वाला कोई न हो!!
खैर अभी ग़नीमत है कि हम अपने शहरों, सड़कों और गलियों के सूनेपन को देख पा रहे हैं, लेकिन कहीं ऐसा भी दिन न आ जाए जब इस सूनेपन के बीच ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं के कंगूरे ढह रहे हों और इन्हें देखने वाला कोई न हो!!
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