विकास एक बहुत बड़ा इश्यू बन चुका है, वैसे तो विकास एक प्रक्रियात्मक चीज है, इसे जानने की कोशिश में पूरा विकास-क्रम परत-दर-परत उघड़ आता है!! लेकिन भगवान की तो भगवान ही जाने, पता नहीं उनके यहाँ सृष्टि के विकास क्रम से संबंधित फाइलें बनती हैं भी या नहीं। लेकिन यहाँ आर्यावर्त का आदमी अपनी सरकारों से पत्रावलियों के माध्यम से विकास कार्यक्रम संपन्न कराता है और इस विकास को जानना, समझना या प्रमाणित करना हो तो सर्वप्रथम इन्हीं पत्रावलियों का अवलोकन करना होता है। हाँ, जितने भी टाइप के विकास दिखाई पड़ते हैं उन सब की फाइलें होती हैं! विकास अपनी इन्हीं फाइलों पर आरूढ़ होकर गतिमान होता है। लेकिन कई बार विकास के लिए लालायित लोग यह भी कहते सुने जाते हैं कि विकास फाइलों में ही कैद होकर रह गया है, या फाइलों में गुम है, तो मामला पेंचीदा हो उठता है! और जाँच का विषय बनता है। फिर जाँच से ही पता चलता है कि विकास हुआ या कि पैदा किया गया। दरअसल विकास के संदर्भ में 'हुआ' और 'पैदा किया गया' के अलग-अलग मायने हो सकते हैं!
लेकिन यह जाँच कार्य, पहले मुर्गी या अंडा वाले प्रश्न की तरह विचित्र धर्मसंकट में ढकेलने वाला होता है। आजकल जमाने पर विकासवाद हॉवी है, ऐसे में विकास और उसकी पत्रावली दोनों ही गड्डमगड्ड हो चुके हैं, इनमें से कौन पहले पैदा हुआ इसे सिद्ध करने का प्रयास करना आफत को गले लगाने से कम नहीं! लेकिन इस पेंचीदे और रहस्यमयी प्रश्न का उत्तर आध्यात्मिक ज्ञानी दूसरे रूप में ढूँढ़ते हैं। ये विकास और उसकी पत्रावली के बीच के संबंध की व्याख्या उसे व्यवहारिक जगत और पारमार्थिक जगत मानकर करते हैं। बस उसी टाइप से कि चाहे भगवान को संसार या संसार को ही भगवान मान लो! सब माया का खेल!! फाइल में, से, के द्वारा, ही विकास है या फिर विकास से, के कारण ही फाइल है, आशय यह कि विकास हो या उसकी फाइल दोनों ही मायावी हैं! माया के खेल को समझ चुके लोग अवसरानुकूल विकास और उसकी फाइल के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कर लेते हैं!
जैसाकि सब जानते हैं, विकास के लिए धमाचौकड़ी तो मची ही रहती है, ऐसे में ये वाला, वो वाला, इस पत्रावली वाला, उस पत्रावली वाला, मने सभी वाला विकास, इसके स्टेकहोल्डरों को गड्डमगड्ड दिखाई पड़ता है और ये विकास में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कराने के लिए आपस में पिल पड़ते है। मामला गंभीर होने पर विवाद के निपटान हेतु जाँच समितियां गठित की जाती है, और इन्हें निर्देशित किया जाता है कि जाओ पत्रावली और विकास के बीच के 'नेक्सस' को परिभाषित करो, जिससे इसके स्टेकहोल्डर संतुष्ट हो सकें। लेकिन जाँच समितियों का किसी निष्कर्ष पर पहुँचना दुश्वार हो जाता है, क्योंकि ये समितियाँ भी अकसर पत्रावली की मायावी चाल में उलझ जाती हैं।
ऐसी ही एक जाँच समिति के सदस्यगण विकास कार्य की किसी फाइल में उलझे हुए थे! और इसकी नोटशीट से लेकर इसका एक-एक प्रपत्र बारीकी से खंगाल रहे थे! इस कमेटी के एक मेंबर ने किसी कागज को देखकर कहा कि विकास हुआ है, तो जाँच समिति के अध्यक्ष जी ने तपाक से कह दिया कि चलो मान लेते हैं कि काम हुआ! लेकिन वहीं जब दूसरे मेंबर ने यह कहा कि इस कागज से काम होना सिद्ध नहीं होता, तो वही अध्यक्ष जी पलटी मारते हुए बोले कि कोई बात नहीं, यही मान लेते हैं कि काम नहीं हुआ! लेकिन तीसरे मेंबर के यह कहने पर कि ऐसे कैसे यह माना जाए? साइट पर तो काम मिला! तब अध्यक्ष महोदय झल्लाकर बोले, तो उसे और पत्रावली पर हुए काम को को-रिलेट करो।" अन्ततः जाँच समिति बिना कोई निष्कर्ष स्थापित किए ही उठ गई। वैसे अगर कमेटी किसी निष्कर्ष पर पहुँचती भी है तो इसके बाद की गठित एक दूसरी रिव्यू कमेटी इस निष्कर्ष को पलट भी सकती है! खैर।
ऐसेे ही फाइलों से पैदा किया गया विकास अपने स्टेकहोल्डरों के मध्य ही, उनकी चमक-दमक बढ़ाए बिंदास भाव से घूमता रहता है और उसे जहाँ होना चाहिए वहाँ वह नहीं होता। इन स्टेकहोल्डरों को विकास की परत-दर-परत हिस्ट्रीशीट पता होती है! विकास को सही जगह पहुँचाने के लिए किसी पत्रावली की बजाय ऐसे स्टेकहोल्डरों की हिस्ट्रीशीट खंगालनी चाहिए।
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