शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

मुखपत्र लेखन

         कई दिन से कुछ भी नहीं लिख पाया हूँ और आज भी लिखने का मन नहीं था। लेकिन मेरा खाली-खाली फेसबुक वाल जैसे मुँह चिढ़ाता हुआ जान पड़ा ! तो सोचा इसे जवाब देना जरूरी है। लेकिन लिखना किस बात पर हो ? वैसे सभी की अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं, कुछ लिखने वाले अपनी इन्हीं समस्याओं को नमक-मिर्च लगाकार साहित्य रच डालते हैं, ऐसा लेखन, जिनमें साधारणीकरण का गुण सर्वाधिक होता है, उच्चकोटि की साहित्यिक श्रेणी में आ जाता है, अन्यथा यह लेखन भी 'व्यक्तिगत रोना'  जैसा बनकर रह जाता है। इसीलिए प्राय: देखा जाता है, किसी महान लेखक की एक या दो कृति ही उन्हें इस महानता की श्रेणी में खड़ा करने के लिए उत्तरदायी है, जिसमें उनका भोगा हुआ यथार्थ ही होता है । अपने भोगे हुए यथार्थ के अलावा जो लिखा जाता है उसमें 'सायासपन' की मात्रा कुछ अधिक ही आती है, जिसमें 'जबर्दस्तीपन' या फिर 'व्यवसायपन' की झलक मिलती है।

       

         सच तो यह है, साहित्य समाज को दिशा भी तभी दे सकता है, जब वह भोगे हुए यथार्थ को लेकर चलता है! मेरा तो इस क्रम में, यह भी मानना है कि रचना में अलंकारिकता रचना को जनविरोधी बनाता है, साहित्येतिहास में ऐसी रचनाएँ बहुत दिनों तक याद नहीं की जाती और न ही इनसे समाज प्रभावित होता है, ये पुरस्कृत चाहे भले हो जाएँ! हलांकि कुछ लोग बिना नमक-मिर्च काव्य-सौन्दर्य विहीन लेखन को सपाटबयानी कहकर खारिज करने की कोशिश भी करते हैं। लेकिन व्यंग्येतिहास में श्रेष्ठ घोषित व्यंग्यकारों की श्रेष्ठ व्यंग्यरचनाएँ सपाटबयानी जैसी ही होती हैं, जो बारीकी के साथ 'अन्योक्ति' में कहे गए होते हैं, बस इनमें कहानीपन होता है। लेकिन आज अधिकांशतया रचनाकार 'सपाटबयानी' से बचने के लिए जबर्दस्ती की वक्रोक्तियों का प्रयोग करते देखे जाते हैं, जिसमें कहानीपन न होकर मात्र कुछ कथनों के संग्रह होते हैं! दरअसल इसे अखबारी लेखन कहा जा सकता है। ऐसे अखबारी लेखन, लेखक की भावनाओं को चिरंजीवी नहीं बना सकते। 

         

           इतना तय है कि जैसे फेसबुक की पोस्टों पर 'लाइकवाद' हॉवी है वैसे कागजी लेखन पर 'बाजारवाद' है। इन दोनों प्रवृत्तियों के बीच पाठक बेचारे की पाठकीय खुराक पूरी नहीं होती और जैसे भूखे को थाली दिखाकर फिर उसके सामने से थाली खींच ली जाए, कुछ ऐसी ही हालत पाठक की बना दी जाती है। इस सब के बीच पाठक भी लेखको से खुन्नस पालता जाता है, लेकिन मजे की बात यह है कि इस 'खुन्नस' को ही लेखक अपनी उपलब्धि के रूप में गिनता है।

           

          कुलमिलाकर मेरी इस फेसबुक पोस्ट का मतलब लेखकों को हतोत्साहित करने का नहीं है, क्योंकि लिखी हुई हर चीज साहित्य ही होती है। खासकर आजकल व्यंग्यविधा पर बड़ा जोर है और इस विधा में यथार्थ लेखन की गुंजाइश भी कम है! तो, बस अगर कोई लेखक की उपाधि पाना चाहता है तो "मुखपत्र" बनकर न लिखे! 

       

         वैसे मेरी इस पोस्ट से कोई पाठक मुझसे खुन्नस न पाले! यह मैंने मजे के लिए और अपने फेसबुक वाल का मुँह बंद करने के लिए लिखा है।

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