एक बात है किसी बुराई के विरूद्ध खड़े आवाज के
विरोध में कोई भी तर्क खड़ा नहीं किया जा सकता। इस तथ्य का लाभ किसी बुराई के
विरुद्ध आवाज उठाने वाले व्यक्ति की आलोचना करने वाले आलोचक के लिए सुरक्षा-कवच के रूप में मिल सकता है।
साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त लेखकों की पुरस्कार वापसी के कारण हो रही उनकी आलोचना में
यही तथ्य काम कर रहा है और इस क्रम में साहित्यकारों की हो रही आलोचना निष्प्रभावी
है।
लेकिन साहित्यकारों द्वारा उठाया गया यह एक बहुत बड़ा कदम है। प्रथम तो यही
कि क्या देश के ऐसे हालात हो गए हैं कि इस तरह के कदम उठाए जाएं? वास्तव में हालात कुछ भी हों फिर भी साहित्यकारों को ऐसे
कदम उठाने के पहले एक बार अवश्य सोचना चाहिए। पुरस्कार लौटाकर ये साहित्यकार एक
महत्वपूर्ण लड़ाई को कमजोर कर रहे हैं। जिस बढ़ती साम्प्रदायिकता के विरुद्ध आवाज
उठाई गई है उस लड़ाई के भविष्य में कमजोर पड़ जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है।
क्योंकि एक स्वांग से बेहतर होता है समाज के गहरे में उतर कर इन बुराईयों के
विरुद्ध ठोस वैचारिक धरातल बनाना और इस रूप में एक वास्तविक लड़ाई लड़ना जो समाज
को प्रभावित कर सके। इन साहित्यकारों के पुरस्कार वापसी के कदम ने उन्हें किसी
विचारधारा के विरोध में न दिखाते हुए मात्र एक संवैधानिक सरकार के विरोध में दिखा
दिया है।
भारतीय समाज एक जटिल ताने-बाने से निर्मित समाज है यहाँ सरकारें भी सामाजिक
सोच से बनती बिगड़ती हैं। स्वयं लेखकों की प्रतिबद्धताएं भी विभाजित रही हैं। यदि
ऐसा न होता तो दलितों की पीड़ा के लिए दलित साहित्य का जुमला न चला होता। इसका
अर्थ स्पष्ट है कि ये लेखक अपने सामाजिक अनुभव और उससे उपजे सरोकार को सीमाओं में
बाँधते हैं। लेखकों की इस विभाजित प्रतिबद्धताओं का इस्तेमाल उनके पुरस्कार वापसी
के ब्रह्मास्त्र के विरूद्ध किया जा सकता है। भारत की राजनीतिक और सामाजिक
परिस्थितियों में इस कार्य में लेखकों की अपेक्षा नेतृत्व वर्ग ही सफलता अर्जित
करेगा। स्वयं लेखकों के इस कदम ने एक अलग तरीके के सम्प्रदायवाद की राजनीति करने
का श्रीगणेश कर दिया है। और एक तथ्य यह भी है कि एक वैचारिक ध्रुवीकरण एक दूसरे
तरह के वैचारिक ध्रुवीकरण को जन्म दे दिया करता है चाहे यह साहित्यिक या लेखकीय ही
क्यों न हो, और मुख्य मुद्दा नेपथ्य में जा सकता है। एक तरह
की राजनीतिक लड़ाई को पुरस्कार वापसी वाले इन साहित्यकारों ने हथियाने की चेष्टा
की है और इस रूप में ये राजनीतिक मोहरे बनते जा रहे हैं।यहाँ इनके कलमों के नोक अब
भोथरे दिखाई देने लगे हैं। इस कृत्य को कलम की लड़ाई मानना भी भूल होगा क्योंकि
कलम की स्याही ही स्थाई और असरकारी होती है। अन्त में इन पुरस्कृत साहित्यकारों के
पुरस्कार वापसी के कृत्य में एक दोष दिखाई देता है वह यह कि ये लोग किसी पीड़ा का
सामान्यीकरण करते नहीं दिखाई दे रहे बल्कि कुछ घटनाओं का ही सामान्यीकरण करते
दिखाई देते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें