घने जंगल के बीच से गुजरते हुए उस हाईवे के
किनारे के पहाड़ के एक बड़े से पत्थर पर लिखे वाक्य "जय जीसस" पर निगाह
क्षण मात्र के लिए ठहर सी गई। एक क्षण के लिए लगा इस घने जंगल के बीच इस वाक्य का
क्या काम...फिर सोचा यह किसी धर्म
प्रचार का हिस्सा तो नहीं? दूर दराज के ऐसे
जंगली हिस्सों में गरीब या आदिवासी समाज के लोग ही रहते हैं और यह उन्हीं के लिए
या उनके द्वारा ही लिखा गया हो?
खैर, क्षण-मात्र के
लिए इस "धर्म प्रचार" जैसे तरीके पर मन उलझा अवश्य! लेकिन यही मन यह
देखकर संयत हो गया कि चलो लिखा है तो हिन्दी भाषा में ही, फिर इस वाक्य से मैंने भी अपनापन जोड़ लिया और
फिर मुझे यह किसी धर्म प्रचार का हिस्सा नहीं लगा। आप लिखे हुए उस शब्द के प्रति
इसे मेरी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया समझ सकते हैं।
चूँकि अपनी इस मानसिक प्रतिक्रिया को मैंने मनोवैज्ञानिक माना अतः कोई कारण
नहीं कि इसे एक सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया न माना जाए। कहने का आशय यहाँ
मात्र इतना ही है कि विरूद्ध सी प्रतीत होने वाली बात में भी यदि कुछ अपनापन सा
झलक जाता है तो मन उसके प्रति सहज हो जाता है और यह मन उसके साथ एक तरह से सह-अस्तित्व
की धारणा बना लेता है। शिलापट्ट पर वह वाक्य हिन्दी में ही लिखा था। यदि यही वाक्य
अंग्रेजी में लिखा होता तो मन उसे एक विरोधी विचारधारा मान उसके प्रति असहज हो
जाता। अतः सहिष्णुता भी दो समुदायों की अन्तर्क्रिया से निर्मित होती है।
उस क्षण दो विपरीत विचारों को जोड़ने का काम भाषा ने किया। वास्तव में किसी
भी भाषा को किसी धर्म विशेष के लिए आरक्षित नहीं किया जा सकता। कोई भी भाषा जिस
क्षेत्र में बोली,पढ़ी और समझी जाती है वह वहाँ के लोगों के लिए उनके आपस के
विभिन्न मत-मतान्तरों के बावजूद भी उन्हें आपस में जोड़ने के लिए सेतु का कार्य
करती है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में इस्लाम धर्म को मानने वाले भाषा के भी धर्म से
जोड़ते हैं परिणामस्वरुप उनके धर्म की बातें सामान्य जनों के लिए बेगानी सी प्रतीत
होती रहती हैं।
हिन्दी क्षेत्र में लिखना पढ़ना सुनना सब हिन्दी में ही होता है चाहे वह इस
क्षेत्र के हिन्दू मुस्लिम या किसी भी धर्म के माननेवाले हों। लेकिन मुस्लिम
धार्मिक संस्थाओं अन्य शैक्षिक संस्थानों के नामों समेत इस्लाम से सम्बंधित
धार्मिक विचार सम्बन्धित सूचना बोर्ड हिन्दी में लिखे हुए दिखाई नहीं देते।
धार्मिक विचारों के लिए समुदायों के बीच भाषा सम्बन्धी सेतु के अभाव में धर्म को
लेकर समुदायों के बीच एक दूरी पनपती रहती है जो साम्प्रदायिक मनोवृत्तियों के लिए
आग में घी का काम करती है।
इस्लाम के मतावलंबियों ने भारत जैसे देश में उर्दू भाषा और इसकी लिपि को
इस्लाम धर्म से जोड़कर इसे धर्म समुदाय विशेष की भाषा घोषित कर दिए हैं। इसका
परिणाम यह है कि एक ही भाषा क्षेत्र के निवासी होने के बाद धार्मिक भाषा को लेकर
दो समुदायों के बीच कृत्रिम दूरी दिखाने का प्रयास किया जाता है जो सामाजिक
अन्तर्क्रिया को बाधित करता है।
एक बात और है कोई भी भाषा किसी धर्म विशेष की भाषा नहीं हो सकती। यदि ऐसा
होता तो दक्षिण भारत में भी हिंदी भाषा ही बोली जा रही होती। यह भी दृष्टव्य है कि
संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा होने के बाद भी जब देवभाषा बनी तो यह आमजन की भाषा नहीं
रह गई थी और आमजनों के लिए पालि, प्राकृत तथा
अपभ्रंश से होते हुए इसे हिन्दी बनना पड़ा।
अन्त में बात बस बात यही है कि हमारा सह-अस्तित्व है। हमें एक दूसरे की
बातों, विचारों और भावनाओं को
साझा करना पड़ेगा इसके लिए भाषा ही एक महत्वपूर्ण सेतु है। बेशक हम एक ही भाषा
बोलते हैं लेकिन दिवारों पर जय जीसस, वाहे गुरु , अल्ला हो अकबर, जय श्रीराम स्थानीय भाषा में लिखा दिखाई दे जाए
तो इन सभी से बड़ा अपनापन झलकेगा।
चूँकि भारतीय चाहे किसी भी धर्म के हों बहुत भावुक भी होते हैं, इन बातों
को ऊपर से नहीं थोपा जा सकता इस प्रवृत्ति को हमें स्वतः विकसित करना होगा। हो
सकता है बौद्धिक सेक्यूलर तर्कवादियों के सहअस्तित्व सम्बन्धी तर्क यहाँ दूसरे हों
लेकिन आमजन तर्कवादी नहीं होता वह भावनाओं से परिचालित होता है और तमाम जद्दोजहद
में अपनापन तलाश करता रहता है। ऐसे लोगों को बहुत आसानी से बरगलाया भी जा सकता है।
इन सब पर भी हमें सोचना होगा...क्योंकि हमें एक ही साथ रहना है।
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