बड़ी विचित्र स्थिति है देश में..! देश की सारी बौद्धिक उर्जा मात्र धर्म-निरपेक्षता, सहिष्णुता-असहिष्णुता जैसे मुद्दे पर ही खर्च हो जा रही है: पता नहीं बाकी चीजों के लिए यह उर्जा बचेगी भी या नहीं? या बाकी चीजें हों ही न और देश की सारी समस्या की जड़ इसी में हो? क्या किया जा सकता है जब कुछ लोगों के लिए इस चर्चा में ही लाभ दिखाई दे रहा हो।
खैर नेताओं की छोड़िए उनकी तो रोजी-रोटी ही ऐसी चर्चाओं पर निर्भर करती है, चिन्ता तो तब होती है जब अपने-अपने कौम के तथाकथित बुद्धिजीवी ठेकेदार हर समय इन्हीं चर्चाओं में मशगूल दिखाई देते हैं और सभी अपने को ही सही ठहराने की कोशिश में लगे रहते हैं, जैसे उन्हें अपनी कौम की अन्य चिन्ताओं पर सोचने की फुर्सत ही नहीं..!
क्या इन बातों से समाज में जहर नहीं फैलता..? वास्तव में हम स्वयं असहिष्णु हैं। तभी तो आजादी के बाद हम घूम फिर के वहीं आ जाते हैं जहाँ से चले थे।
इससे तो अच्छा है सुबह-सुबह टहलने निकल जाइए और उगते सूरज को भी निहार लीजिए..दिमाग फ्रेश हो जाएगा और कम से कम कुछ ही देर के लिए ही सही इस खुराफाती बुद्धि से मुक्ति मिल जाएगी।
एक बात और बता दें ज्यादा किताबें पढ़ने से बुद्धि के भ्रमित हो जाने की भी सम्भावना रहती है क्योंकि तब इस बुद्धि पर अपना कन्ट्रोल नहीं रह जाता और आप जानते ही हैं कि बिना हैंडिल-ब्रेक के गाड़ी दुर्घटना ग्रस्त हो जाती है या फिर यह गाड़ी किसी निर्दोष पर चढ़ जाती है। मतलब यही कि किताबें पढ़कर हम ग्यान तो झाड़ लेंगे लेकिन शायद ही आत्मद्रष्टा बन पाएँ..?
दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि इसका मतलब यह नहीं कि मैं पुस्तक विरोधी हूँ..और न ही किसी प्रकाशक लेखक के पेट पर लात मारने का इरादा है, बस कुल जमा यह कहना चाहते हैं कि तनिक अपने ओर भी निहार लिया करें..
हाँ...भगवान् बुद्ध ने भी कोई किताब पढ़कर आत्मदीपो भव का उपदेश नहीं दिया था.. आत्मचिंतन और ध्यान से ही यह सब उन्होंने पाया था..!
तो भाई लोग हम सब थोड़ा सा ही सही आत्म-चिंन्तन किया करें तब निश्चित रूप से आप भी मुस्कराएंगे और दूसरे तो खैर आपको देखकर ही मुस्कुरा लेंगे।
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