गुरुवार, 7 जनवरी 2016

ये आदतें !


                उस दिन बस से ही मैं कहीं जा रहा था। सुबह-सुबह का ही समय था। मतलब उठें या न उठें या थोड़ी देर और सो लें जैसी जद्दोजहद में फँसे रहने वाला वही सुबह का समय था! बस में, ठीक ड्राइवर के ठीक पीछे वाली सीट पर ही मैं बैठा था। बस चली जा रही थी। अचानक मुझे सिगरेट या बीड़ी सुलगाए जाने की गंध मिलने लगी थी। मैं पीछे उझक कर देखने का प्रयास किया कि यह गंध कहाँ से आ रही है? लेकिन इसके लिए उत्तरदायी कोई व्यक्ति दिखाई नहीं दिया था। बस के अन्दर लाईट जल रही थी और बस के बाहर अभी तक अँधेरा ही था। इस अँधेरे को बस की हेडलाईट चीरती जा रही थी। इधर साथ ही किसी के द्वारा किए जा रहे धूम्रपान के इस धुएँ का मैं अहसास भी करता जा रहा था। बस में कौन अपने इस लत को पूरा कर रहा था इसे जानने का प्रयास मैंने छोड़ दिया क्योंकि ऐसे ही एक बार किसी को मैंने जब टोंका था तो पहले वह माना नहीं और बाद में खिल्ली उड़ाने के अन्दाज में पी चुकने के बाद ही सिगरेट फेंका था। मैं करता क्या झगड़ा तो कर नहीं सकता था केवल चुप लगा कर रह गया था।

            इसी समय मैंने बस के कंडक्टर को ठंडी हवाओं के बस के अन्दर आने के कारण बस की खिड़की को बन्द कर लेने के लिए कहते हुए एक यात्री से बहस करते देखा। फिर उस यात्री ने ड्राइवर की ओर इशारा करते हुए खिड़की के शीशे को खींच दिया था। मैंने ध्यान दिया यह बस ड्राइवर ही बीड़ी पर बीड़ी सुलगाए जा रहा था। 

             मैं मन ही मन सोचने लगा कि बस चलाते हुए इतनी सुबह ही इसे बीड़ी पीने की कौन सी आफत आ पड़ी थी। फिर सोचा, नशे की ये आदतें ऐसी ही होती हैं, आदमी बेचारा अपनी इन आदतों के सामने विवश हो जाता है। उसे भी टोकने का मेरे मन में खयाल आया लेकिन सोचा ड्राइवर को बीड़ी पीने से टोकने पर एक तो उसे बुरा लगेगा दूसरे वह तर्क देगा कि तरोताजा होने और चैतन्य होने के लिए मुझे तो यह करना ही है। यह छूट नहीं सकती। इसके बिना मैं बेचैन हो जाऊँगा। 

           फिर मेरा ध्यान अपने ऊपर गया। इसी तरह फेसबुक पर और आनलाइन रहने का भी अपना एक नशा होता है। एक बार जब मैंने तय किया कि आज दिन भर मुझे फेसबुक या किसी भी तरह के आनलाइन क्रियाकलापों से दूर रहना है तो दिन में कई बार मुझे जबरन इसका प्रयास करना पड़ा और शाम को तो जैसे हलका सा सिरदर्द ही होने लगा था, शायद यह दर्द भी एक तरह के लत से दूर रहने की जद्दोजहद से ही उपजा हो।

          वास्तव में नशा या लत किसी पदार्थ के जैविक प्रभाव से उत्पन्न नहीं होता, मतलब हमें नशे में डालने के लिए कोई वाह्य कारक भी उत्तरदायी नहीं है। बल्कि किसी चीज के प्रति हमारी आदतें ही नशा या लत होती हैं। कभी-कभी एक विशेष अनुभव से गुजरने की आदत ही नशा बन जाती है और बुरी आदतों का नशा ही हानिकारक होता है। कोई भी आदत धीरे-धीरे एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में बदल शरीर को जैविक तरीके से भी प्रभावित करने लगता है और इन आदतों से प्रभावित हमारा शरीर इसके लाभ या हानि से भी प्रभावित हो जाता है। बुरी आदतों से हमारा स्वास्थ्य तथा व्यवहार दोनों खराब हो जाता है। नशे के मामले में भी यही होता है। 

           आदतों से छुटकारा पाना स्वयं को एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से मुक्त करना होता है, जो बेहद कठिन होता है। यहाँ बहुत सजगता की आवश्यकता होती है। खासकर नशे जैसी किसी आदत नामक चीज से मुक्ति पाने के लिए कभी-कभी प्रारम्भिक चरण में तमाम तरह के शारीरिक दुष्प्रभावों का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन यह केवल मानसिक अवस्था को प्रभावित करने वाला लक्षण मात्र ही है जो धीरे-धीरे नशे जैसी आदतों में सुधार होने के साथ ही गायब हो जाता है। 

     इतनी लम्बी बात बस ड्राइवर को हम उस समय नहीं समझा सकते थे। सोचा कहीं मेरे इस नशा-मुक्ति उपदेश पर यह ड्राइवर खिसिया गया तो चलती यह बस डिसबैलेंस हो जाएगी और सब धरा का धरा रह जाएगा। फिर मैंने भी अनचाहे धूम्रपान के इस धुएँ से मुक्ति पाने के लिए बस की खिड़की के शीशे को थोड़ा खिसका दिया और सीधे नाक पर बाहर की शुद्ध हवा लेने लगा था।

        कुछ ही क्षणों बाद मैंने अनुभव किया कि हाई-वे पर दौड़ी जा रही यह बस अप्रत्याशित रूप से अपने दाहिने अधिक कट रही थी। ध्यान दिया तो मैंने पाया कि बस ड्राइवर अपने जेब से गुटखा जैसे पाउच को निकाल उसे मुँह में डालने का प्रयास कर रहा था। इसी दौरान शायद उसके हाथों का नियन्त्रण बस के स्टेयरिंग पर न होकर गुटखे के पाउच पर हो गया था। ठीक उसी समय पीछे से किसी ट्रक ने हार्न बजाया और बस ड्राइवर बस के स्टेयरिंग पर पुनः नियन्त्रण स्थापित करते हुए बस को बाएं लाते हुए ट्रक को आगे जाने का रास्ता दिया था। मुझे लगा कभी-कभी ऐसी ही लापरवाहियों का खामियाजा यात्रियों को भुगतना पड़ जाता है। 

      एक बात है, आदतों का भी गजब का मनोविज्ञान होता है। आदतें अच्छी या बुरी ही नहीं बल्कि हानि या लाभ देने वाली भी होती हैं। मतलब अपनी अच्छी आदतों के बलबूते लोग आसमान चूम लेते हैं तो बुरी आदतें लोगों को पतन के गर्त में ढकेल देती हैं। आशय यही कि आदतों का नशा हमारे लिए कई तरह के परिणाम लाते हैं। 

           यह भी देखने में आता है कि जिन व्यक्तियों में अच्छी या बुरी जैसी किसी भी आदत को गढ़ लेने की क्षमता नहीं होती वे विश्रृंखलित व्यक्तित्व के ही मालिक होते हैं, मतलब उनमें विखराव ही अधिक होता है और वे किसी भी लक्ष्य पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते और फिर जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। वैसे अच्छी आदतों वाले बिना किसी विशेष प्रतिभा के भी शिखर पर पहुँच जाते हैं। 
      
       बिडम्बना यह भी है कि इन आदतों को क्या कहा जाए जिसका साइड इफेक्ट उन दूसरों पर पड़ता रहता है जो ऐसी किसी भी आदत से दूर रहते हैं। लेकिन उन बेचारों को दूसरों की आदतों को ढोना भर होता है! वैसे ही जैसे एक कार्यालय के साहब रजनीगंधा और राजश्री के तलबगार थे और जब वे तलब मिटा रहे होते थे तो उनका अटेंडेंट बेचारा अपने हाथों में पीकदान लिए उनके पीछे-पीछे चलता था। मुँह में पीक भरने पर जब साहब जी "हूँ " की ध्वनि निकालते हुए उसकी ओर देखते तो वह अटेंडेंट बेचारा तुरन्त समझ जाता था और झट से पीकदान साहब के मुँह के आगे कर देता और साहब का पिच्च पीकदान में! यह उस अटेंडेंट की मजबूरी बन और उसकी आदत में शुमार हो गया था। आम आदमी तो इन साहबों के कार्यालयों के कोनों को ही पीकदान के रूप में प्रयोग कर लेता है। इसी तरह बस में बैठे-बैठे हम भी तो ड्राइवर की आदत को कुछ क्षणों के लिए ढोने लगे थे। हालाँकि ठीक उसके सिर के ऊपर ही लिखा था "धूम्रपान निषेध" लेकिन लिखा रहे इसका क्या यह तो लिखा ही रहता है। मैंने भी इस लिखे का अर्थ निषेध के प्रतिषेध के रूप में ही ग्रहण किया। अब कानून की किताबों में भी तो सब कुछ लिखा है लेकिन क्या कोई कानून टूटने से रह जाता है? 

       उस चलती बस में मेरी बातचीत एक परिचित से होने लगी थी। उन्होंने मुझे बताया कि एक लड़के वाले ने दो लाख के चक्कर में उनकी बेटी की शादी नहीं मानी। लड़के वाले बीस लाख माँग रहे थे और वे किसी तरह से फंड पेंशन से अट्ठारह लाख इकट्ठा कर देने के लिए तैयार थे। अब पता नहीं लड़के वाले किस आदत के शिकार थे यह भी एक शोध का विषय बन सकता है। 

         बातों-बातों में एक अन्य व्यक्ति की भी चर्चा हुई थी जिसकी पत्नी का देहांत तब हो गया था जब उसके दो बच्चे पांच-छह साल के रहे होंगे। उस समय उस व्यक्ति की पुनः विवाह के लिए लोगों ने काफी प्रयास किया था लेकिन अपने बच्चों के खातिर विवाह करने से मना कर दिया। आज उनकी बेटी कुछ बड़ी हो गई है वह अपने छोटे भाई को तैयार कर स्कूल भेजती है तथा पिता के लिए भी टिफिन तैयार कर फिर स्वयं स्कूल जाती है। 

         कहने का आशय यही है इन सारी बातों के पीछे हमारी कोई न कोई आदत ही होती है जो हमारी ऐसी सोच बनाती है या फिर हमारी कोई सोच ही होती है जो हमारी आदत बन जाती है। यहाँ कुछ लोग कह सकते हैं कि सोच से ही आदतें बनती हैं। लेकिन सोच बहुत अच्छी होने पर भी हम कभी न कभी कुछ न कुछ बुरा कर बैठते है। इसका उदाहरण समाज में मिलता रहता है। आखिर ऐसा क्यों? 

           क्योंकि बातें बस यही है कि सोचते तो हम बहुत अच्छा हैं लेकिन इस सोच के ही अनुरूप हमारी आदतें नहीं होती इसीलिए हमसे गलतियाँ भी हो जाती हैं। हमारी अच्छी आदतें ही हमें गलतियों से बचाती हैं। 

         नशा तो अच्छी आदतों का ही होना चाहिए न कि किसी नशे की आदत!

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