वैसे यह हमारी अपनी बात है (अपवाद
भी मैं स्वीकार करता हूँ), कि ‘धर्म का आडम्बर’ व्यक्ति को क्रूर भी बनाता है, या
फिर क्रूर व्यक्ति ही धर्म का आडम्बर करता है; क्योंकि ऐसे व्यक्ति की संवेदनाएँ
कुंठित हो गई होती है| ऐसे व्यक्ति को अपनी क्रूरता का एहसास भी रहता है लेकिन अपने
इस मनोभाव को परिमार्जित करने के स्थान पर ये लोग धार्मिक आडम्बर के साए में ही
आत्मसंतोष की अनुभूति प्राप्त करते रहते हैं तथा स्वयं की नज़रों में हीनग्रंथि के
शिकार ऐसे लोग दूसरों की नज़रों में अपना सम्मान तलाश करते हैं; ऐसी मेरी व्यक्तिगत
मान्यता रही है..! खैर...
अभी उस दिन पत्नी से जब मैं कुछ ऐसी ही
चर्चा कर रहा था तो उन्हें अपने बचपन की एक घटना याद आ गई..उनकी बताई इस घटना को
आपसे भी साझा करने का मेरा मन हो गया है...तो लीजिए....
हाँ तो, श्रीमती जी ने बताया कि वो उस समय
आठ-दस साल की रही होंगी..उनकी ‘मावा’ यानी कि उनकी आजी ने उनसे और उनके जैसे
बच्चों के सामने एक घटना का वर्णन किया था...असल में उनके घर में एक ‘पंडित जी’
आते थे..उस घर में पंडित जी की ‘पंडिताई’ का जबर्दस्त आभामंडल था...एक तरह से
महात्मा का दर्जा प्राप्त थे...और ‘आजी’ उन्हीं पंडित जी का गुणगान बच्चों के
सामने कर रही थी..
पंडित जी एक दिन घर आए हुए थे...लगभग
सुबह का समय रहा होगा पंडित जी दुवारे अर्धनिद्रित अवस्था में लेटे हुए थे, उन्हें
अपने चारपाई के सिरहाने किसी जानवर की आहट मिली..बस आव देखा न ताव सिरहाने पर ही
चारपाई से टिका कर रखी हुई लाठी को उठाया और उस जानवर पर एक जोरदार प्रहार
किया..बस वह बेचारा जानवर लाठी की चोट खाकर जमीन पर गिर पड़ा..इसके बाद पंडित जी की
आँख खुली और आँख मलते हुए उन्होंने देखा तो उनके होश उड़ गए तथा जोर से बोले, “राम..राम..मैंने
तो कुत्ता समझकर इसे मारा था, यह तो बछिया है..हे भगवान् यह मैंने क्या किया..?”
फिर पंडित जी घर में से गंगाजल मंगवाकर वहीँ जमीन पर गिरी बछिया के पास ही बैठ गए
और गंगाजल के छींटे पर छींटे उस बछिया के शरीर पर मारने लगे तथा साथ में संस्कृत
में मंत्रोच्चार भी करते जा रहे थे...कुछ क्षणों के बाद बछिया को होश आ गया था और
वह उठकर खड़ी हो गई...
पत्नी की इतनी बात सुन मैंने पूंछा, “इतने बचपन में सुनी हुई यह साधारण सी
घटना तुम्हें अब तक क्यों याद रही..?” पत्नी ने कहा, “बात यह थी कि मावा इसे पंडित
जी के महात्म्य से जोड़कर उनका बखान भी किए जा रही थी कि पंडित जी बड़े दयालु और
परोपकारी तथा बहुत पहुँचे हुए थे कि बछिया उनसे जीवनदान पाकर जी उठी थी लेकिन उस
समय पंडित जी के इस महात्म्य-वर्णन पर मैं मन ही मन सोच रही थी कि पंडित जी जब
इतने ही दयालु और महात्मा थे तो उसे कुत्ता ही समझ कर क्यों मारा? किसी भी जीव के
प्रति उनके मन में दया क्यों नहीं आई..क्या वह कुत्ता जीव नहीं था और उसके ऊपर भी
दया नहीं करनी चाहिए थी? और तत्क्षण मन में उठे इन्हीं विचारों के कारण मावा की यह
चर्चा मुझे आजतक नहीं भूली..”
पत्नी से हुई इस वार्ता के बाद धार्मिक
आडम्बरों के प्रति मेरी उक्त धारणा और पुष्ट हुई, यह भी कि चाहे ‘पंडित’ हों या फिर
‘मुल्ला’ हों, ऐसे व्यक्ति संवेदनाओं का सामान्यीकरण नहीं कर पाते...इनकी दृष्टि
इनकी ‘पोथी’ तक ही सीमित रहती है तथा इनके स्वरचित ‘आभामंडल’ से धर्मभीरु साधारण
जन भ्रमित होता रहता है, एक हद तक इसे हम ‘क्रूरता’ मानते हैं|
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