वाकई, बेचारा यह दिल, दिल ही तो है, जो पता नहीं कब किस बात के लिए हुड़कने लगे! जैसे, आजकल यह किसी सम्मान-मंच से सम्मानित होने के लिए हुड़क रहा है। हुआ यूँ कि, एक मेरे स्नेही सज्जन कुर्सी पर बैठने के समय के मेरे कामों की मुझसे जबर्दस्त प्रशंसा कर गए थे..! तब फूलकर मैं ऐसे कुप्पा हुआ था, जैसे उन महाशय ने प्रशंसा के पम्प से मुझमें गौरवबोध का हवा भर दिया हो।
एक बात है, प्रशंसित मनुष्य का दिमाग गौरवबोध की हवा से फूलकर उड़ते गुब्बारे की भाँति उर्ध्वगामी हो जाता है, फलस्वरूप गर्दन तन कर अकड़ जाती है। इसीतरह एक बार गर्दन के अकड़पने से मैं लगभग डर गया था, क्योंकि उठती मेरी मुंडी से गर्दन के शुतुरमुर्गी हो जाने का खतरा मुझे जान पड़ा था। लेकिन इस खतरे के आभास के साथ ही मेरा ध्यान सम्मान-मंचों पर सम्मानित होती शख्शियतों की गर्दनों पर भी चला गया।
अकसर ऐसे मंचों पर सम्मान-लब्धता के दौरान इन शख्शियतों की गर्दनें पुष्प-मालाओं के लिए छोटी पड़ जाती हैं, और तब ये महानुभाव अपनी माल्यार्पित गर्दनों से पुष्प-मालाओं के जखीरे स्वयं उतारते हुए देखे जा सकते हैं, ताकि कोई बचा-खुचा सम्मानकर्ता भी माल्यार्पण कर अपनी भड़ास पूरी कर सके। इस तरह ये बेचारी महान शख्शियतें सम्मान-कर्ताओं के सम्मान का सम्मानपूर्वक खयाल भी रखती हैं। यदि मैं सम्मानाकांक्षी के रेस में न होता, तो माल्यार्पित गर्दन वाले सम्मान-लब्ध शख्स द्वारा मेरी पुष्प-माला के साथ ऐसे किसी भी दुर्व्यवहार पर, मैं अवश्य अपमानित महसूस करता। क्योंकि, मेरी यही कामना रहेगी कि सम्मानित महानुभाव के गर्दनार्पित मेरी पुष्प-माला मेरे ही समक्ष न उतारी जाए।
इन बातों से मैं समझ गया था कि सम्मानार्जन करने वाले की गर्दन लंबी होनी चाहिए और मैं स्वयं “हमको लिख्यौ है कहा, हमको लिख्यौ है कहा” की भाँति अपनी प्रशंसा खोजते-फिरने लगा था। मेरे लिए तो वही भगवान है जो मेरी प्रशंसा करे, सो मैंने मन ही मन ठान लिया कि प्रशंसित होता हुआ मैं अपनी गर्दन को अधिकतम संख्या में पुष्प-मालाओं के जखीरे को धारण करने में समर्थ बनाऊँगा जिससे बेचारे माल्यार्पण करने वालों का भी सम्मान बरकरार रहे, आखिर दूसरों को मान देने से ही तो अपना भी मान बढ़ता है..! यही मानार्जन का सीधा सा फंडा भी होता है। सम्मानदाताओं के प्रति इस सहृदयता पर मेरा गौरवबोध और भी मचल उठा था और उस समय सारा ध्यान गर्दन की लंबाई पर चले जाने से मेरे पैरों का संतुलन थोड़ा गड़बड़ाया भी और मैं गिरते-गिरते बचा था। खैर...
एक दिन तनी हुई गर्दन के साथ मुझे मेरा प्रखर व्यक्तित्व आभासित हुआ और मैंने स्वयं को किसी सम्मान-समारोह-मंच के लायक सर्वथा योग्य पाया था। आखिर, तनी हुई गर्दन माल्यार्पण के लिए ही होती है, वह तो फांसी है जिससे बचने के लिए गर्दन न रहे तो ठीक है। अब मैं एक अदद सम्मान-मंच के जुगाड़ में पड़ गया था।
आखिर में, मैंने अपनी बलवती होती सम्मानाकंक्षा अपने एक परिचित मुँहलगे के समक्ष जाहिर कर ही दिया,
"आजकल अच्छे कामों की कोई पूँछ नहीं..ऐसे कामों की तो कहीं चर्चा ही नहीं होती!”
खैर, मेरे हित-चिंतकनुमा उन मुँहलगे ने मेरी सम्मानाकंक्षा का उत्साहवर्धन करते हुए समर्थन किया -
“बात है, तो बात दूर तलक जानी चाहिए..आखिर ऊपरवाले भी तो कुछ समझें!"
यहाँ पर उनने “ऊपरवाले” शब्द का ऐसे उल्लेख किया जैसे यह “ऊपरवाला” लेखक का कोई हितचिन्तकनुमा प्रकाशक हो! खैर, बात आगे बढ़ी और मेरे लिए सम्मान-मंच के प्रबंधन की जिम्मेदारी मेरे उन मुँहलगे परिचित ने संभाल ली।
वैसे तो, किसी सम्मान-मंच से घोषित रूप से सम्मानित होने के अपने खतरे भी होते हैं, क्योंकि सम्मानित हुए व्यक्ति की बाद में टाँग खिंचाई शुरू हो जाती है! इसीलिए मेरा मानना है कि खूब जी कड़ा करके सम्मानित होने के लिए सम्मान-मंच पर जाना चाहिए और सम्मानोपरांत की सभी अच्छी या खराब परिस्थितियों के लिए योग्य हो लेना चाहिए, तभी सम्मान धारण करने में गनीमत है। अन्यथा, मैंने ऐसे तमाम सम्मानधारकों को फ्रस्ट्रेशन में यह सोचते हुए देखा है-
"बेकार में सम्मानित हुए इससे अच्छा तो अ-सम्मान की ही अवस्था थी।"
फिर भी, अपनी कुर्सी के बल पर उसके परिक्षेत्र में आल-इन-आल टाइप के लोगों को सम्मानित हो लेने में कोई समस्या नहीं होती क्योंकि इनके लिए यह रोजमर्रा का काम होता है। ये ऊँची कुर्सियों पर बैठने वाले लोग होते हैं, जो हर जगह खपने और हर चीज को खपाने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। सम्मान इनके लिए बाईप्राडक्ट की तरह होता है, जिसका ये बखूबी इस्तेमाल करना भी जानते हैं।
आखिर एक दिन मेरे वे मुँहलगे अपने साथ एक व्यक्ति को लेकर टपक ही पड़े! वैसे उस व्यक्ति से मैं पहले भी मिल चुका था। मित्र टपके नहीं थे बल्कि उनका आगमन हुआ था। आगमन उनका होता है जिनके आने की हमें प्रतीक्षा रहती है और यहाँ मैं भी प्रतीक्षारत था क्योंकि, एक अदद सम्मान-मंच के जुगाड़ की बात जो थी! मेरे उन मुँहलगे परिचित ने साथ वाले का परिचय देते हुए कहा -
“ये महाशय, सम्मान-समारोह आयोजित कर सम्मानजनक काम करने वाले को सम्मानित करने का काम करते हैं, इस तरह के काम के लिए इनकी स्वयंसेवी संस्था ‘जन-जागृति’ सरकार द्वारा पुरस्कृत होकर सम्मानित भी हो चुकी है…आपका सम्मान-समारोह आयोजित करा लेने के बाद इनकी संस्था के जनजागरण संबंधी कार्यक्रम का वार्षिक लक्ष्य भी पूरा हो जाएगा .!”
इसके बाद मेरे उन मित्र ने आगे और कहा,
“ऐसा है, इस सम्मान-समारोह के आयोजन से लगे हाथ दो काम होगा, एक तो आप सम्मानित होंगे और दूसरे इनकी संस्था का टारगेट भी पूरा हो जाएगा..और हाँ..सम्मान-समारोह का सारा खर्च यही उठाएंगे...बस आपको उस समारोहित-जनजागरण कार्य का एक प्रमाण-पत्र भर इस्यू करना होगा।”
परिचित की इस मुँहलगई पर मैं नेत्र बंद कर विचार-निमग्न हो “प्रमाण-पत्र भर इस्यू करने” तथा अपने “सम्मानित होने” के बीच के तुलनात्मक भारीपने को हिये-तराजू पर रखकर तौलने लगा था। अाकस्मात् बेचैनी में मेरी आँखें खुली और सीधे मित्र जी के चेहरे पर फोकस्ड हुई, सकपकाते हुए से उन्होंने साथ आए व्यक्ति की ओर देखकर कहा -
“देखिए! मुझे तो मंच पर ही आपके सम्मान में ज्यादा लाभ नजर आ रहा है, इससे आपकी पॉपुलैरिटी मैं इज़ाफा भी होगा और भविष्य में किसी राजनीतिक दल का टिकट भी आपको मिल सकता है...चुनाव भी जीत सकते हैं..! बाकी मंच की साज-सज्जा और अन्य बातों पर इस बेचारे का खर्च भी तो होगा, ऐसे में प्रमाण-पत्र इस्यू करना कोई घाटे का सौदा नहीं है...हाँ, यदि कोई बात होगी तो कहीं से “मीट आउट” कर लिया जाएगा।”
मित्र टाइप मुँहलगे की इस बात पर उनके साथ आया व्यक्ति भी सहमति के अन्दाज में अपना सिर जोरदार तरीके से हिलाने लगा था! उसे इस तरह मुंडी हिलाते देख मैंने मन ही मन सोचा -
“पता नहीं...यह बेवकूफ ‘मीट आउट’ का मतलब समझ भी रहा है या नहीं..।”
खैर, अगले दिन “जनजागृति” संस्था द्वारा किए जाने वाले जनजागरण कार्यक्रम की प्रस्ताव संबंधी पत्रावली मेरे समक्ष अनुमोदनार्थ प्रस्तुत की गई। मैंने पत्रावली का त्वरित निस्तारण करते हुए, इस पर अपनी सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दिया और जनजागरण कार्यक्रम के तत्काल सफल आयोजन हेतु त्वरित ढंग से कार्यवाही करते हुए इसका अविलंब आयोजन सुनिश्चित कराने के निर्देश सबंधी पत्रालेख पर भी हस्ताक्षर कर दिए।
पत्रालेख पर हस्ताक्षर कर लेने के बाद अपनी तनी हुई गर्दन पर ध्यान देते हुए सोचा -
“अब सब कुछ त्वरित-त्वरित ही होगा..! लेकिन..देखे-सुने से तो अब तक ‘जगत गति टारे नहिं टरी’ टाइप के चिरकालिक सत्य की ही प्रतीति हुई है...फिर आखिर, किस बेवकूफ ने किस उद्देश्य से तत्काल, अविलंब, सुनिश्चित करें, जैसे शब्दों को गढा़ होगा.?”
खैर, ऐसे शब्दों को शासकीय धत्कर्मों में सहयोगात्मक शब्द मानकर इन शब्दों के गढ़ने वाले को मैंने मन ही मन धन्यवाद भी ज्ञापित किया और इन शब्दों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की।
जो भी हो, कुछ दिनों बाद मेरे लिए सम्मान-समारोह के आयोजन की घड़ी आ ही गई! उस दिन सधे हुए कदमों से गरिमामयी अंदाज में उस सम्मान-समारोह-मंच पर पहुँचा था। मंच की साज-सज्जा देखकर सोचा…
“लगे हाथ इस मंच को सजाने वाले को भी सम्मानित कर देना चाहिए।”
“वाकई, यह खूबसूरत मंच मेरे लिए ही सजा था!” मेरे लिए यह गौरवबोध का विषय था, इस अहसास ने मेरी गार्दनिक तन्यता की रही-सही कसर भी पूरी कर दी।
मंच की सीढ़ियों पर बूट पड़ते ही मेरी निगाह मंच की कुर्सियों के पीछे लगे बड़े से फ्लैक्सी पर अटक गई, जिस पर “जनजागृति” संस्था के “जनजागरण अभियान” में मेरे “सहयोग” के लिए इस संस्था के “तत्वाधान में” मेरे “सम्मान-समारोह” की बात लिखी गई थी...इसे पढ़ते ही मन खट्टा हो गया और सोचा -
“अभी इस फ्लैक्सी को नुचवा कर फेंकवा दें! मतलब, मेरे “अभियान” को इस संस्था वाले ने हाईजैक कर अपना अभियान बना लिया और बदले में मुझे “सहयोग” का झुनझुना थमा दिया..! वाह भाई, मेरे लिए सम्मान-मंच मुहैया कराने की इतनी बड़ी कीमत वसूलेंगे ये संस्था वाले!!”
यही सोचते-साचते मुस्कुराहटों के पीछे अपना गुस्सा छिपाने लग गया था। इधर मंच के कोने में दुबके खड़े मेरे तथाकथित मित्र महोदय मेरे अन्दर के भाव को न जाने कैसे मेरी किस भंगिमा से ताड़ गए और कुरसी पर विराजते ही मेरे पास आकर मेरे कान में बुदबुदाने लगे थे -
“देखिए आप परेशान न हों, चीजों को मैंने मीट आउट करा लिया है, अब थोड़ी-बहुत छूट तो देनी ही होगी, चीजें बैलेंस्ड हो जायेंगी!”
खैर, मुँहलगई जैसी इस बुदबुदाहट को मैंने सीरियसली नहीं लिया, लेकिन मन ही मन तय किया कि -
“बेटा! इस कार्यक्रम के बाद देखता हूँ...तुम्हारा बैलेंस्ड..! अन्यथा, तुमको हांडी में संजोए रख धूप दिखाते रहने से क्या फायदा!!”
मन में इस तरह का विनिश्चय करते ही मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई। मुझे इस तरह मुस्कुराते देख, मेरे विनिश्चय से अनजान कई लोग मुस्कुरा उठे थे, लेकिन इन मुस्कुराहटों के पीछे उन सब के अपने-अपने विनिश्चय भी रहे होंगे, जिससे मैं भी अनजान था।
इधर, नजर फिराया तो कुर्सियों पर लकदक करते झकास सफेदी में बैठे सज्जन टाइप के दो-चार लोग भी दिखे, इन्हें देख मुझे इस बात की प्रतीति हुई कि सज्जनता सफेदी में निहित होती है। शहर में किसी भी सरकारी टाइप के सोशल ऐक्टिविटी मे सफेद परिधान में ये भाग लेते हुए देखे जा सकते हैं। इनके बिना ऐसा कोई भी कार्यक्रम या समारोह अधूरा माना जा सकता है। हाँ, इनसे मेरी नजरें मिली, नजरें मिलते ही परस्पर मुस्कुराहटों में हम खो गए। मने मुस्कुराहटों द्वारा हम परस्पर अभिवादित भी हो लिए थे। खैर, अब तक विनिश्चय से उपजी अपनी मुस्कुराहट को मैंने अभिवादन-जनित मुस्कुराहट में रूपान्तरित कर लिया था। आखिर, मेरा सम्मान-समारोह था…इस बात का खयाल रखते हुए हमें अपनी भावभंगिमा निर्धारित करनी थी..!
अब मंच पर मेरे अगल-बगल की समानान्तर कुर्सियों पर स्वयंसेवी संस्था के संयोजक के अलावा मेरे कुछ इने-गिने-चुने सहकर्मी भी विराजमान थे..एक-एक कर मैं इन पर कनखियों से निगाह फिराता जा रहा था..संस्था के संचालक को देखकर “प्रमाण-पत्र इस्यू” करने के साथ ही “मीट आउट” की बात फिर याद हो आई..! इन्हें बाद में देखेंगे...सोचकर दूसरी ओर निगाह फिराई…अलबत्ता, साथ में बैठे सहकर्मी मेरे सम्मान में बढ़ोतरी करते प्रतीत हो रहे थे..इनपर निगाह फेर कर सोचा-
“चलो..मेरे सम्मान के बहाने ये भी थोड़ा-बहुत सम्मानित हो लेंगे.. इसमें कोई हर्ज नहीं..।”
खैर..कुछ ही क्षणों में मेरे स्वागत का दौर शुरू होने वाला था।
अब मेरा माल्यार्पण शुरू हो गया था...एक-एक कर लोग अपनी-अपनी पुष्प-मालाएँ मेरे गर्दनार्पित करते जाते और बीच-बीच में गर्दन से उतारी गई वही पुष्प-माला पुनः मेरी गर्दन पर आ सवार हो जाती। यह चक्र कई बार चला। इस बीच मुझे यह अनुभव हुआ कि जैसे, लोग मिलकर मेरी गार्दनिक तन्यता का इलाज कर रहे हैं। लगभग सभी से माला पहनवा लेने के बाद मैं वापस अपनी कुर्सी पर विराजा।
मंच के सामने सैकड़ों कुर्सियाँ लगी हुई थी। लगभग आधी कुर्सियों पर स्कूली बच्चे और शेष पर मेरे कुर्सी के परिक्षेत्र में आनेवाले मेरे मातहत टाइप के लोग बैठे थे। आगे की गद्दीदार कुर्सियों पर पत्रकार और कुछ वीआईपी जैसे लोग बैठे थे, इनमें से कुछ हमें देखकर मुस्कुराए और कुछ को हम देखकर मुस्कुराए या फिर मुस्कुराहटों के प्रतिउत्तर में हम मुस्कुराते गए। हमारी ये मुस्कुराहटें उपकार और उपकृत जैसी भावना से परिपूरित पवित्र मूक-हास्य टाइप की थी।
अचानक मुझे, मेरे लिए आयोजित सम्मान-समारोह की यह व्यवस्था अलोकतांत्रिकनुमा लगी, क्योंकि इस समारोह में मुझे लोक-भागीदारी के दर्शन नहीं हो रहे थे। खैर, मंचीय-सम्मान-समारोह में लोकतांत्रिकता जैसे तत्व की गुंजाइश नामिनल ही होती है क्योंकि, अलोकतांत्रिकता मंचीय-सम्मानार्जन की पूर्वपीठिका होती है। सम्मान-समारोह में लोक-भागीदारी का अभाव देख मुझे अपने मुँहलगे परिचित और स्वयंसेवी संस्था के संचालक पर कोफ्त हुई और इनपर मेरा मन भड़ासित टाइप का होने लगा था और मैंने सोचा -
“ये संस्था वाले ही क्यों, मेरी कुर्सीय परिधि में आनेवाले लोग भी तो मेरे सामने पलक-पाँवड़े बिछाये रहते हैं, बस मेरे कहने भर की देर होती और सजा-सजाया सम्मान-मंच जनभागीदारी के साथ मुझे उपलब्ध हो जाता…लेकिन...ये हमारे ही आदमी से हमें सम्मानित कराने निकल पड़े हैं! खैर..अब इस पर क्या किया जा सकता है...जब मंच पर चढ़ सम्मानित होने का शौक चर्राया हो, फिर तो सम्मान भी ऐसई होता है..!!”
मित्रनुमा मुँहलगे के प्रति अब मेरी भृकुटी थोड़ी टेढ़ी हो चुकी थी..मैं उनकी मुँहलगई पर पश्चाताप करने लगा था। उनपर मैं भृकुटी थोड़ी और टेढ़ी करता कि उनकी “मीटआउट” बात के खयाल के साथ ही लड़कियों द्वारा कोमल स्वर में गाया जा रहा मेरा स्वागत-गान कानों में पड़ा..मित्र थोड़ा बच गए..! लड़कियों के इस सामूहिक स्वागत-गान में वह इंस्ट्रक्टर मुझे अजीब से मेकअप में लगी...पता नहीं यह मेकअप किस बात पर और क्योंकर था...खैर, यहाँ से ध्यान हटाकर मैंने अपनी तन्द्रा को अपने सम्मान पर फोकस कर लिया। इन बच्चियों ने अपने स्वागत-गान में मेरे स्वागत की पराकाष्ठा कर दी थी...इस स्वागत-गान में पता नहीं किन-किन महानताओं से मैं विभूषित होता रहा...अब मैं अपने पर विश्वास नहीं कर पा रहा था कि, मैं वही हूँ जो मैं हूँ..!!
माल्यार्पण और स्वागत-गान वगैरह की औपचारिकताएँ पूरी हो चुकी थी...अब वक्ताओं की बारी थी...सामने कुर्सियों पर बैठे लोगों पर धूप का भी प्रकोप साफ दिखाई दे रहा था। कड़ी धूप में चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछते हुए भी, ये मेरे सम्मान-समारोह में भागीदारी निभाकर धन्य से हो रहे थे। यही नहीं, जैसे चुनाव जीते किसी नेता के पीछे उनके ठेकेदार टाइप के फालोवर घूमते हैं, वैसे ही ये मुझे सम्मानदान देते हुए अपने ऊपर मेरी नजरों के इनायत होने की कामना करते जान पड़े। लेकिन, एक बात और है, मुझे, एक महान लेखक के शब्दों में, मेरा यह सम्मान “जिनके पैरों तले गर्दन दबी हो, उन पैरों को सहलाना ही श्रेयस्कर है” टाइप का प्रतीत हो रहा था ! शायद लोगों के वक्तव्यों द्वारा मैं इसीलिए सहलाया जा रहा था।
पहले संस्था के ही पदाधिकारी को बोलने के लिए पुकारा गया..पदाधिकारी महोदय माइक के पास पहुँच कर भरपूर निगाहों से मुझे देखे..तत्पश्चात वक्तव्य देना प्रारम्भ किए..
“मैंने आज तक इनकी कभी चापलूसी नहीं की..लेकिन आज इनके इस सम्मान-समारोह पर अपने को रोक नहीं पा रहा…” यह वाक्य पूरा करते-करते वक्ता नें मेरे ऊपर फिर निगाह डाली लेकिन उनसे निगाह मिलाने से अब मैं हिचक रहा था। अब इन्हें जियादा एडवांटेज देने के मूड में नहीं था, क्योंकि आगे इनसे सम्मान-समारोह का प्रमाण-पत्र इस्यू करने से लेकर “मीटआउट” होने तक का हिसाब होना बाकी था। जाते-जाते इनने मेरी शान में यह कसीदा पढ़ा -
जब तक बिके न थे, कोई पूँछा था न हमें,
जब से खरीदा आपने अनमोल हो गए।
खूब तालियाँ बजी..लेकिन मैं ताली बजाना भूल दिमाग को, कौन किसको खरीदा..कौन बिका...कौन किसके लिए अनमोल हुआ, जैसी बातों पर चकरघिन्नी की तरह नचाने लगा था। इसके बाद अन्य वक्ताओं ने भी मेरीे शान में खूब कसीदे पढ़े...मैं कसीदों के आधार पर अपने लिए सम्मान की मात्रा का भी आकलन करता जा रहा था।
इस प्रकार मेरे सम्मान समारोह का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ अपनी प्रशंसा के कसीदे दर कसीदे सुन एक अज्ञानी की भाँति आत्मविभोर हो चुका था। अब मैं भी एक सम्मानित शख्स था।
अंत में मेरा भी भाषण हुआ। अपने भाषण में मैंने कसीदों की कीमत अदा की और एक ज्ञानी की भाँति यहाँ उपस्थित अपने मातहतों को अपने तरकश के तीरनुमा तत्काल, अविलंब, त्वरित ढंग से कार्य सुनिश्चित करने-कराने वाले शब्दों को, सम्मान के पीछे का छुपा हुआ एजेंडा बताते हुए जनहित में इन शब्दों को उचित ठहराया। एक तरह से यह इस बात की चेतावनी थी कि मेरे सम्मान का एजेंडा ऐसे ही चलता रहेगा। अगले दिन मेरे सम्मान-समारोह की खबरें अखबारों में छायी हुई थी, इन खबरों को पढ़कर अपने सम्मान की यह पूरी कहानी आपको बताने के लिए मैं प्रेरित हुआ।
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