उधर बेचारी भारतीय सेना सीमा पर पाकिस्तानी बंकर को तबाह करने में लगी है और इधर भारत के अंदरखाने में हम या तो जाम लगाए बैठे हैं या जाम में फँसे भये पड़े हैं।
अभी उस दिन पाँच बजे सुबह यह सोचते हुए घर से निकला था कि साढ़े तीन या फिर चार घंटे में अपने कार्य स्थल पर पहुँच ही जाएँगे। लेकिन हाईवे पर करीब आधे घंटे की ड्राइव के बाद जाम से सामना हो ही गया। मेरे आगे-पीछे वाहनों की लम्बी आड़ी-तिरछी कतारें लग चुकी थी। यूँ ही जाम में फंसे-फंसे वहीं एक स्थानीय व्यक्ति से मैं जाम का कारण पूँछ बैठा था-
“भईया सबेरे-सबेरे यहाँ जाम लगने की कोई संभावना तो होती नहीं फिर काहे यह जाम लगा है?”
उस बेचारे ने कहा -
“अरे..वही पुलिस वालों की वसूली-फसूली के चक्कर में ये ट्रक वाले आड़े-तिरछे निकलने के चक्कर में जाम लगा बैठते हैं...हाँ, वैसे यहाँ जाम लगने का कोई कारण नहीं होता…”
खैर, पुलिस वाली बात को कोई तवज्जो न देते हुए मैं जाम का कारण तलाशता रहा, क्योंकि लोग इन बेचारे पुलिसवालों के पीछे नाहक ही हाथ धोकर पड़े रहते हैं। फिलहाल आधे घंटे बाद सरकना चालू हुआ और सरकते-सरकते दस मिनट बाद जब जाम से फारिग हुआ, तो जाम लगने का कोई कारण नजर नहीं आया।
हाँ, जाम ने हमें एक नए दार्शनिक ज्ञान की अनुभूति कराई! वह यह कि, हमारे भारतीय दर्शन में आया कार्य-कारण सिद्धांत एकदम से झूँठा है। मेरे नवाअर्जित इस ज्ञान के अनुसार, बिना कारण के ही कार्य घटित होता रहता है तथा कार्य और कारण दोनों एक दूसरे से अलग, स्वतंत्र और चिरस्थायी तत्व होते हैं। इसीलिए यहाँ सदैव कार्य और कारण दोनों समानांतर विद्यमान रहते हैं तथा हमारे देश के लोग अपने-अपने तईं इस कारण और कार्य की भोगानुभूति में मशगूल रहते हैं।
तो, इसप्रकार समस्या चिरस्थायी टाइप का एक कार्य ही है। खैर, बिना कारण के घटित कार्य का सामना करते हुए चालीस मिनट विलंब से मैं अपने गंतव्य पर पहुँचा था।
इसी तरह कल भी जाम जैसे एक चिरस्थायी कार्य के बीच मैं फँस गया था। इस बेमतलब के जाम में मेरा घंटे भर का समय चला गया और इसमें फँसे-फँसे मैंने सुना, कोई कह रहा था -
“इस समय पुलिस वालों की ड्यूटी बदलती है.. चौराहे पर ट्रैफिक को नियंत्रण करने वाला कोई नहीं होगा…पुलिसवालों के आने पर ही जाम खुल पाएगा।”
मतलब यह देश बड़ा रहस्यमयी टाइप का है! जहाँ पुलिसवाले हों वहाँ जाम...और...जहाँ पुलिसवाले न हों वहाँ भी जाम...!! इस देश में, किसी का कहीं होना या न होना सब बराबर ही होता है।
एक बात और, अपने देश में ड्यूटी बदलने का समय सबसे क्रूसियल टाइम होता है। अभी एक वायरल वीडियो में दिखाई पड़ा कि किसी रेल टिकट खिड़की पर एक महिला कर्मचारी लाइन में लगे लोगों को टिकट देने के बजाय नोटों के बंडलिंग में मशगूल है…यात्रियों के हो-हल्ले पर वह बोलती है -
“यह ड्यूटी बदलने का समय है”
अब किसी की ट्रेन छूटे तो छूटे उसका क्या जाता है! उसकी ड्यूटी बदलने का समय हो चुका है। यही नहीं ड्यूटी बदलने के समय ही यहाँ आतंकी हमला भी हो जाता है। आशय यह कि अव्यवस्था वाले टाईम में व्यवस्थित होना हम नहीं सीख पाये हैं।
अब कल वाले जाम को ही लीजिए…इसकी तह में जाने पर मुझे दो बातों की स्पष्टानुभूति हुई…एक तो हम स्वयं व्यवस्थित नहीं होते, दूसरे किसी और के लिए कोई स्पेस भी नहीं छोड़ना चाहते। उस जाम में, एक ट्रक वाला मेरे कार के दायीं ओर से आकर सामने की छूटी थोड़ी सी खाली जगह में ही अपने ट्रक को आड़े-तिरछे घुसेड़ने का प्रयास करने लगा था, बल्कि इस चक्कर में उसने दूसरों का भी रास्ता अवरुद्ध कर दिया। जब मैंने उसे टोकते हुए कहा -
“ट्रक को स्कूटी बना लिए हो का” तो खींसें निपोर मुस्कुराते हुए वह बोला था -
“थोड़ा आगे बढ़ा लें..पीछे जाम लग रहा है।”
मतलब, यहाँ हर कोई समस्या का कारण अपने से आगेवाले पर ही थोपने का आदी है। खैर…
अपना देश एक जामग्रस्त और स्पेसविहीन देश बन चला है। कहते हैं, कोई चौराहा हो या चार लोग हों, ये मिलकर आगे की राह के विकल्प सुझाते हैं और रास्ता खोलते हैं। लेकिन यहाँ अपने देश में किसी चौराहे पर चार लोग इकट्ठा हुए नहीं कि जाम लगा बैठते हैं..! छोटे-बड़े सभी टाइप के बौद्धिक फितूर वाले ड्राइवर आड़े-तिरछे होकर आगे निकलने की होड़ में किसी भी खाली स्पेस पर कब्जा जमा कर लोगों का आगे बढ़ना ही मुश्किल कर देते हैं।
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