आजकल अच्छी लगने वाली बात कहने में भी बहुत दिक्कत है और दिक्कत यह भी कि जरा सी अच्छी बात मुँह से क्या निकली, जमाना संत घोषित करने पर तुल जाता है! जैसे अच्छी बात भी कहने वालों का टोटा हो। शायद इसीलिए लोग अच्छी बात करने वालों को दंड-कमंडल धारण कराने लगते हैं, उसे संतई करने पर भी मजबूर कर देते हैं ! जबकि संतों की मरन जगजाहिर ही है! भला ऐसे में कौन संत बनना चाहेगा? लेकिन अब तो लगता है, बातबहादुर बनने के चक्कर में संतई भी भोगनी होगी !!
मेरे इतने कबोधन गढ़ने के बाद ! तो आप भी सोच रहे होंगे यह सबेरे-सबेरे मैं क्या लेकर बैठ गया! असल में भई, लेखक या भाषणबाज को अच्छी लगने वाली बात कहना ही होता है चाहे वह घुमा-फिराकर ही क्यों न कहें ! अगर "कोई" इसे कहने वाले की अच्छाई से जोड़ ले तो, यह उस "कोई" की समस्या है, कहने वाले की नहीं!
चलिए मैं आपकी भी समस्या हल किए देता हूँ, वह ऐसे कि, आज सुबह के संधिकाल वाले टाइम में मैं शुक्ला जी के साथ स्टेडियम का चक्कर लगा रहा था, अचानक साहू जी मिल गए! वह अकसर मेरे लेखन के साथ मेरी भी तारीफ कर दिया करते हैं, तो परस्पर अभिवादनोपरान्त विदित हो टाइप से वे मेरे फेसबुकिया लेखन की तारीफ कर बैठे। बस वहीं इस तारीफ पर शुक्ला जी कुछ इस टाइप की बात कहते भये "ऐसी क्या बात हुई कि बात तो खूब अच्छी करो और स्वयं वैसा न करो..! फिर अच्छी बात करने का क्या मतलब? इन जैसे अच्छी बात करने वालों के सामने तो जैसी पूरी दुनियाँ ही गलत है..!!"
शुक्ला जी की इस बात पर मैं अपना मुँह चिपरिया बैठा और मुझसे कोई सफाई देते नहीं बना। सोचा कह दूँ, "यह जरूरी नहीं कि संत, संतई ही करे! वैसे भी...आजकल संत लोगों की संतई की सुरंग जेल में ही जाकर खुलती है..कम से कम एक मित्र का अनभल तो न चितइये!!" लेकिन मारे संकोच के नहीं कह सका। हाँ इसी के साथ कल वाली सुबह की एक बात याद हो आई, जब एक घर के छत की ओर इशारा करते हुए शुक्ला जी ने मुझसे से कहा था, "देखिए, ये घर के ऊपर गऊ की मूर्ति लगाएंगे...लेकिन घर में गऊ नहीं पालेंगे..जरा इसपर भी कुछ लिखिए।" इसपर मेरा यही लिखना है कि जैसे इस मकान की छत पर गऊ-गोपाल की मूर्ति लगाने से ये घरवाले गोपालक नहीं हुए, वैसे ही अच्छी बात कहने वाले से भी संतई की अपेक्षा न की जाए।
#चलते_चलते
बातों के पीछे का छिपा हुआ एजेंडा ही बातों की अच्छई या बुराई तय करता है। बाकी न तो कोई बात अच्छी है और न बुरी।
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