इधर सोशल मीडिया पर किसी पुस्तक मेले की खूब चर्चा चली ! मैं भी यहीं से पुस्तक-मेले में हो रही गतिविधियों को वाच करता रहा। जहाँ लेखकों की गहमागहमी के साथ उनकी पुस्तकों के विमोचन की चर्चा खूब होती रही। लेकिन इस दौरान मन में यही प्रश्न बार-बार उठता रहा, कि पुस्तक-मेले में पाठक मँडराएं तो मँडराएं लेकिन ये लेखक क्यों मँडराते हैं..? खैर, इसके बहुत सारे उत्तर हो सकते हैं! और मिला भी। एक उत्तर यही कि बेचारा लेखक भी साहित्यकार बनना चाहता होगा इसीलिए वह पुस्तक-मेले का रुख करता होगा! इस संबंध में अन्य उत्तर पुस्तक-मेले में विचरते बेचारे लेखक ही दे सकते हैं। "बेचारे" इसलिए कि पुस्तक-मेलों में इन बेचारे लेखकों की बड़ी मरन होती है, जैसा कि लेखकों के मुँह से ही मैंने जाना है।
अब पुस्तक-मेले में कोई लेखक गया होगा तो निश्चय ही उस बेचारे ने पहले प्रकाशक को पटाया होगा, फिर किसी सिद्ध टाइप के साहित्यकार से पुस्तक की भूमिका लिखाई होगी, और इसके बाद पुस्तक-मेले में अपनी पुस्तक के विमोचन के लिए किसी महापुरुष टाइप के विमोचक को ढूँढ़ा होगा! तब कहीं जाकर वह बेचारा लेखक साहित्यकार होने का दर्जा पाया होगा !! पुस्तक-मेले में लेखक शायद इसी वजह से जाते होंगे। बाप रे..! पुस्तक-मेले में लेखक की यह मरन नहीं तो और क्या है..! मतलब उसे कितना जुगाड़ करना होता होगा।
वैसे अपन, अपन को बतकचरा टाइप का लेखक समझता है, सो इस मरन से बचा हुआ है। लेकिन वाहवाही का चक्कर बड़ा खराब होता है, यह क्या से क्या न कराए! मने वाहवाही में पड़ एक अच्छा-भला लेखक ही साहित्यकार बन जाता है..! लेकिन हम जैसे बतकचरा करने वाले अगर वाहवाही में फुदकें भी, तो पुस्तक-मेले में नहीं पहुँच पाएंगे, इसके लिए राजधानी जाना पड़ेगा। क्योंकि, यह पुस्तक-मेला गाँव-जवार में नहीं, राजधानी टाइप के शहरों में ही आयोजित होता है। वैसे भी राजधानियाँ, तिकड़मियों का गढ़ और शक्ति का केंद्र होती हैं, जो लोगों को बनाती और बिगाड़ती हैं ! ऐसे में, यहाँ दूर-दराज के गँवारों को कौन पूँछेगा? इसके लिए अलग तौर-तरीके होने चाहिए होते हैं। वाकई, यहाँ के तौर-तरीकों को अपनाए बिना एक बतकचरा टाइप के लेखक के साहित्यकार बनने की तमन्ना धरी की धरी रह जाती होगी। इसीलिए तो, हम पुस्तक-मेले का रुख नहीं करते।
वैसे भी, इधर सरकारी फील्ड में रहते हुए अपन को राजधानी में चलने वाले तिकड़मों और तिकड़मी लोगों का हाल, खूब पता है! यह भी पुस्तक-मेले के लेखकों के फील्ड जैसा ही है। लेकिन यहाँ और भी तिकड़मबाज लोग हैं और ये सिद्धहस्त तिकड़मी लोग, तिकड़मार्जित सिद्धि-रस की चुस्कियाँ ले, मुस्कुराते हुए यहाँ खूब देखे जाते हैं! ये फुल्ली विमोचक और लब्ध-प्रतिष्ठित टाइप के होते हैं। जैसे पुस्तक-मेले में किसी लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकार का प्रत्येक लेखन, बिना विमोचित हुए भी साहित्य होता है, वैसे ही राजधानी के इन सरकारी-फील्ड के लब्ध-प्रतिष्ठित वालों का प्रत्येक कृतित्व स्वत: विमोचित हुआ माना जाता है। सरकारें भी इन पर आँख-मूँद कर विश्वास करती हैं, क्योंकि ये नेताओं से विमोचित हुए लोग होते हैं। यही लोग राजधानी में बैठे-बैठे दूर-दराज के लोगों को उनके कृतित्व के साथ उन्हें अपने तरीके से विमोचित करते रहते हैं।
लेकिन मैं ऐसे विमोचनों से बहुत डरता हूँ ! इससे मेरा जी घबराता है और राजधानी जाने से डरता हूँ। और नहीं तो, अन्तरात्मा कचोटती है। मैं इस फील्ड में रहते हुए जानता हूँ कि श्रेष्ठ, उत्तम या उत्कृष्ट की मानद उपाधि हासिल करने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं..! लेखक-वेखक की तरह ही यहाँ भी अपने लिखे या किए को श्रेष्ठ घोषित कराने के लिए भूमिका-लेखक, प्रकाशक और महापुरुष टाइप के विमोचक को पटाना पड़ता है, जो अपन के लिए टेढ़ी खीर है।
इसलिए अपन इस निश्चय पर पहुँच चुके हैं कि, किसी पुस्तक-मेले के लेखकीय-मंच से साहित्यकार बनने की कामना करना व्यर्थ है। ज्यादा से ज्यादा एक बतकचरा टाइप का लेखक बन, बिना किसी तमगे की अभिलाषा के, एक कोने में पड़े हुए टेंशन-फ्री रहना ही श्रेयस्कर होगा। हाँ, मरे-जिए के बाद की बात देखी जाएगी! यदि तब किसी पाठक ने साहित्यकार घोषित किया भी तो, पुरस्काराधीन लेखकीय ईर्ष्या-द्वेष और तिकड़म से भी तो मुक्त रहेंगे ही! आमीन..!!
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