सुबह जब शुक्ला जी का फोन आया, तो मैं भी उठने के लिए कशमशा रहा था। असल में क्या है कि बीती रात से ही सर न जाने क्यों भारी-भारी सा था..नींद आने में भी देरी हुई..करीब आधे घंटे तक गहरी सांसें लेने और दिमाग को भरसक चीजों से खींच लेने के बाद ही नींद आई थी। फोन पर शुक्ला जी से गुड मॉर्निंग और "हैप्पी न्यू ईयर" हुआ। इसके बाद थोड़ा प्राणायाम टाइप का करते हुए मन-मस्तिष्क को और रिलैक्स होने दिया। तब बाहर निकला। मिलने पर एक बार फिर आपस में हैप्पी न्यू ईयर करते हुए हम दोनों स्टेडियम के रास्ते हो लिए। चलते हुए मेरे इस बात "आज भी कोहरा घना है" पर शुक्ला जी ने दुष्यंत कुमार की "मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है" पंक्ति सुनाई।
रास्ते में एक जगह ठिठकते हुुए शुक्ला जी ने अपना मफलर ठीक से बाँधना चाहा तो उनका छोटा सा "रूल" मने "दंड" मैंने अपने हाथ में ले लिया। खैर, जैसे ही मैंने रूल अपने हाथ में लिया मुझे मेरी चाल बदलती हुई लगी और जैसे मुझे एक तरीके के "अकड़पन" का अहसास हुआ हो! इस पर ध्यान देते हुए मैंने शुक्ला जी से कहा, "मेरे हाथ में यह रूल आते ही मेरी चाल बदल गई, अब मुझे अपने पावरफुल होने का अहसास होने लगा है..!" इस बात पर हम दोनों हँस पड़े। हँसते हुए उन्होंने मुझसे कहा "इस रूल की सबसे ज्यादा आवश्यकता आपको ही है.." लेकिन मफलर बाँधने के बाद मैंने रूल पुनः उन्हें वापस कर दिया और ऐसा कर मैं रिलैक्स भी हो लिया था। वाकई, शक्ति धारण करना भी तो सबके बस की बात नहीं है !
अब मैंने रूल हाथ में लेने के बाद अपने अंदर आये अकड़पन के रूप में परिवर्तन पर गौर किया। वास्तव में हमें हमारी क्षमता का अहसास होना, हमारे व्यवहार में परिवर्तन का कारण बन सकता है। हनुमान जी भी "का चुप साधि रहा बलवाना" सुनने के बाद अपनी शक्ति "भूधराकार शरीरा" का अहसास कर वे समुद्र लांघ जाते हैं। मतलब यही कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का अहसास करते रहना जरूरी होता है चाहे इसके लिए "रूल" या "दंड" ही हाथ में क्यों न लेना पड़े !!
खैर.. इन्हीं बातों पर सोचते हुए हम स्टेडियम का दो चक्कर पूरा कर लिए। लौटते हुए ध्यान दिया, कुछ युवा लड़के आपस में बतियाते हुए स्टेडियम की ओर जा रहे थे। उनमें से कोई एक कह रहा था "सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते, लेकिन अगर वह शाम को भी वापस न आए तो क्या कहेंगे...?" लड़कों के बीच की इस आपसी बात को सुनते ही शुक्ला जी उन्हें सुनाते हुए तपाक से कहा, "भुलक्कड़..! हाँ, जो शाम को भी घर लौट के न आ आए उन्हें भुलक्कड़ कहते हैं..!!" मैं हँस पड़ा था शुक्ला जी की इस हाजिरजवाबी पर!!! बात जो भी हो, हमारी भूलने की आदत प्राकृतिक है! लेकिन भुलक्कड़पने से भी बचना चाहिए, अन्यथा घर ही भूल जाने का डर होता है। वैसे तो हम स्मृतियों का भी बोझ उठाए आगे नहीं बढ़ सकते।
इसी आपस की हमारी बातचीत के दौरान आज फोन पर होने वाले नये साल की शुभकामनाओं के आदान-प्रदान पर भी चर्चा हुई।मैंने कहा, "इस मामले में तो मैं बहुत आलसी हूँ..! आलस के चक्कर में किसी को फोन तक नहीं कर पाता.." हालाँकि उनने यही कहा, "आज कोई काल फ्री नहीं है..मतलब आज फुल दरें लागू हैं.." इस बात पर मुस्कुराते हुए मैंने यही सोचा, "यहाँ मेरा आलसपन लाभदायी है।" खैर...
कुछ लोग "नव वर्ष" या "जन्मदिन" जैसे अवसर पर शुभकामनाओं के आदान-प्रदान को, भारतीय-परंपरा जनित न मानकर इसे पाश्चात्य परंपरा का अंग मानते हैं। मैं, इसके पीछे के कारण के रूप में भारतीय और पश्चिम की नैतिक और खासकर धार्मिक विश्वासों के बीच के अन्तर को मानता हूँ। असल में भारतीय दर्शन में आत्मा की शाश्वतता को स्वीकार किया गया है जिसमें काल-खंड की अवधारणा फिट नहीं बैठती, जबकि वहीं पर पाश्चात्य धर्म-दर्शन में आत्मा या उसकी शाश्वतता की अवधारणा नहीं है, वहाँ केवल अनुभूतियों पर जोर दिया जाता है...वे अपनी प्रत्येक अनुभूतियों को महत्व देते हैं, और इसी वजह वे अपने प्रत्येक पल का स्वागत करते प्रतीत होते हैं। शायद वहाँ इसीलिए परस्पर अभिवादन में "गुड मॉर्निंग" या" गुड इवनिंग" बोला जाता है।
चलिए कोई बात नहीं..सद्भावना प्रदर्शित करने वाली परंपरा चाहे जिसकी हो, उसे अपनाने में अपने सोच का अहं आड़े नहीं आना चाहिए।
आज का अखबार पढ़ा तो वही कल जैसी खबरें! खबरों में "हैप्पी न्यू ईयर" मनाने जैसी कोई बात नहीं। बल्कि एक दो खबरें पढ़ क्षोभ ही हुआ। "आखिर स्त्रियों के प्रति हमारे पशुवत व्यवहार में कब परिवर्तन आएगा" सोचते हुए आशा की एक किरण के साथ कि "यह खबर इकतीस दिसंबर की है" अखबार पढ़ना बंद कर दिया। खैर..
#चलते_चलते
जीवन जीने के लिए हमें समय के प्रवाह में से उल्लासित करने वाले ऐसे प्रत्येक क्षण को अपने लिए काट कर रख लेना चाहिए, शेष के लिए हमारी भूलने की प्राकृतिक आदत तो है ही!
सभी मित्रों को 2018 की शुभकामनाएँ!!
#सुबहचर्या
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