शुक्रवार, 25 मई 2018

"माननीयपन" धन "विकास" बराबर "लोकतंत्र"

         रामभरोसे जी वैसे तो हैं सरकारी मुलाजिम, लेकिन उनमें संजीदगी कूट-कूट कर भरी हुई है। अपनी इसी संजीदगी की वजह से वे छोटी-छोटी बातों के भी गहराई में उतर जाते हैं और फिर इस देश की किसी कचहरी में उलझे हाल-बेहाल-फटेहाल आदमी की रोनी जैसी सूरत बना लेते हैं। उस दिन जब हमसे बीच रास्ते टकराए, तो अपने इसी गेटअप में मेरे सामने थे..! उन्हें इस मनःस्थिति में देख मैं समझ गया था कि जरूर ये किसी बाल जैसी बात की खाल में उलझे होंगे। आखिर बात को दिल पर लेने की उनकी आदत जो है..! उन्हें देख मैंने सोचा..! संजीदे टाइप के इंसानों की यह एक बड़ी कमजोरी होती है कि उनमें खिलंदड़पन नहीं होता और बिना इसके ये बेचारे अपनी नौकरी कैसे निपटा रहे होंगे..क्योंकि नौकरीपेशा वालों में खिलंदड़पन तो होना ही चाहिए अन्यथा सर्वाइवनेश का संकट उत्पन्न हो जाता है..खैर, मुझे किसी की जाती जिंदगी से क्या मतलब, अपन के मित्र हैं इसलिए कह रहा था।

             तो, रामभरोसे जी को देख छूटते ही मैंने पूंछा, “भाई रामभरोसे जी, कोई बात चुभी है क्या..कुछ परेशान से हैं?” ‘अच्छा ये बताइये..! अगर कल का कोई लौंडा आपसे ये कहे कि..यह तुमसे नहीं होगा..तो चुभने वाली बात होगी कि नहीं..?’ रामभरोसे जी जैसे गुस्से में बोले हों। आगे उसी रौ में फिर बोले, ‘अरे भाई..लोकतंत्र में चुने हुए को ही तो सम्मान दिया जाता है, कि हर ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे को माननीय-फाननीय पुकारते फिरें..! फिर तो इस देश में सवा सौ करोड़ "माननीय" होंगे..और ऐसे में असली माननीय बेइज्जती महसूस करेंगे कि नहीं..आखिर प्रोटोकाल भी तो कोई चीज होती है..!!’ रामभरोसे जी की बात मेरे समझ में तो नहीं आई, लेकिन वे अपनी बातों की संजीदगी में बहकते प्रतीत हुए..! दरअसल वे ग्रामीणों के बीच अपने रात्रि-प्रवास के एक सरकारीनुमा कार्यक्रम का अनुभव सुनाना चाहते थे..जिसका लब्बोलुआब कुछ ऐसा था -

            ऐसे कार्यक्रम से यह अंतर्ज्ञान हो सकता है कि किसी भी राजनीतिक दल को सत्ताधारी ही होना चाहिए अन्यथा लोकतंत्र का कोई मजा नहीं। इससे सत्ताधारी दल का अदने से अदना गैर-इलेक्टेड कार्यकर्ता भी अपने अन्दर ‘माननीयपन’ का अहसास करता है और कहीं से आकर इसमें समाहित हुए विकास से लोकतंत्र को सार्थक बनाता है। इसीलिए ये नेता बेचारे लोकतंत्र को सार्थक बनाने के लिए रात-दिन एक किए रहते हैं। बकौल रामभरोसे, उस सरकारीनुमा कार्यक्रम में जनप्रतिनिधियों के अलावा उनके चमचों तक में ‘माननीय’ कहलवाने की होड़ मची थी, जबकि इस उपाधि के नवाजने में वो चूजी हो रहे थे। बस यही चूक उनसे हुई और अपने संबोधन के बीच में अटक गए थे ..! तभी किसी नेता के चमचे ने उन्हें चुभने वाली वह बात कही होगी कि ‘यह तुमसे नहीं होगा’।

          पूरी बात सुनते ही दीर्घ नि:श्वास छोड़ते हुए मैंने कहा, ‘अच्छा तो ये बात है..!!’ रामभरोसे जी ने फिर तल्खी भरे स्वर में कहा, ‘यार, यह बात भर नहीं है...मैं तो उस छुटभैय्ये से वहीं पर कहना चाहता था..कि वाकई, यह मुझसे नहीं होगा..इसके लिए पहले संविधान में संशोधन कराओ कि सत्तादल का प्रत्येक पदाधिकारी, मंडल या कमंडल जिस भी टाइप का अध्यक्ष हो, वह भी ‘माननीय’ ही माना जाएगा...आखिर.. इलेक्टेड होने पर लुच्चे-लफंगे तक को जब यह उपाधि मिल जाती है, तो इन्हें कहने में क्या गुरेज..!’

            मैंने रामभरोसे जी को समझाया, ‘देखिये..आप ठहरे सरकारी मुलाजिम, इस बात पर इतने तल्ख़ न हों, अन्यथा लोकतंत्र विरोधी होने के साथ आप पर विकास विरोधी होने का ठप्पा भी लग जाएगा..और..नौकरी खतरे में पड़ेगी सो अलग से..! पहले यह समझिए..किसी में ‘माननीयपन’ का आना उसके भावी विकास का लक्षण होता है...क्योंकि "माननीयपन" बिना विकास के चैन से बैठ ही नहीं सकता..! इन दोनों में दाँत कटे रोटी होती है..और हाँ, आजकल सरकार नहीं "पार्टी-सरकार" होती है, जिनके एजेंडे में ‘माननीयपन’ का लोकतंत्रीकरण कर इसे जमीनी स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं तक पहुँचाना होता है..फिर विकास भी इसी "माननीयपन" के पीछे-पीछे दौड़ते हुए जमीन पर आएगा और विकास जमीनी होगा..इसके लिए संविधान में किसी संशोधन-फंसोधन कि जरुरत नहीं है, केवल मन में विकास की ललक होनी चाहिए बस..! देखा नहीं..इसीलिए, आजकल दलितों के यहाँ भोजन कर उनमें भी ‘माननीयपन’ लाया जा रहा है..जिससे "विकास" उन तक पहुँचे..! तो, मैं तो कहुंगा...किसी को ‘माननीय’ कहना विकास में सहयोग देना ही है और यही देश-सेवा भी है...ज्यादा ओटोकाल-प्रोटोकाल, नियम-फियम में पड़ोगे तो, आप इस देश-सेवा से वंचित हो जायेंगे..’।

            लेकिन मेरे इस प्रवचन का रामभरोसे जी पर कोई असर नहीं हुआ, क्योंकि उनपर नियम-फियम का गहरा असर जो था..! पैर पटकते हुए वे जाने लगे तो उन्हें जाते देख मैंने जोर की आवाज में कहा, ‘यह देश रामभरोसे ही चल रहा है...’ मेरी इस आवाज पर पलट कर उन्होंने मुझे देखा तो जरूर, लेकिन फिर आगे बढ़ गए...इधर मैं भी अपने इस विचार के साथ अपनी राह हो लिया कि अगर ऐसे ही अदल-बदल "पार्टी-सरकारें" आती-जाती रहीं तो एक न एक दिन जन-जन तक यह "माननीयपन" और "विकास" दोनों पहुँच जाएगा और फिर "माननीयपन" धन "विकास" बराबर "लोकतंत्र" तो होता ही है..! फिर तो हमारे रामभरोसे जी की समस्या का इतिसिद्धम् टाइप का हल भी इसी में निकल आएगा..!! 

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