रामभरोसे जी आज मुझसे फिर टकराये.. जबकि अभी कल ही मेरी किसी बात पर पैर पटक कर चल दिए थे.. हाँ.. मेरे दोस्त हैं लेकिन गँठिहा टाइप का नहीं है उनका मन..मन का उफान शान्त होते ही पूर्ववत् हो जाते हैं...जैसाकि, मैंने शायद पहले भी बताया था...वे सरकारी मुलाजिम हैं...
उनसे टकराते ही मेरा ध्यान उनके मुख-मालिन्य पर चला गया...थोड़ा कुरेदते हुए मैंने पूँछा, "मित्र आज आपका चेहरा रौनकदार नहीं दिखायी दे रहा...कोई खास बात तो नहीं..?"
"सा....ला..फर्जी काम करो या झूँठ बोलो, तो कोई...(गाली) यह पूँछने नहीं आता कि क्यों कर रहे हो...लेकिन जरा सी सच बात क्या कह दी..जिसे देखो वही मुँह उठाये पूँछने चला आता है.. कि सच कहने के पीछे कारण क्या है..!! ...के (गाली)..अब चलो..सच कहने के पीछे का कारण भी बताते फिरो कि क्यों सच बोला..."
अरे! रामभरोसे जी इतने गुस्से में..!! मैं आश्चर्य चकित था..सोचा एक गिलास ठंडा पानी ही पिला दें इन्हें..लेकिन इस प्रचंड गर्मी में पानी भी गरम था..गुस्सा और न भड़क उठे, इसलिए पानी नहीं पिलाया..बेहद शान्त स्वर में पूँछा, "कुछ बात हुई है क्या..?"
"नहीं यार.. बात क्या होगी...अरे वही..वे पूँछते फिर रहे हैं..कि.. मैं सत्य के पक्ष में क्यों खड़ा हूँ...इसके लिए क्यों लड़ रहा..क्या कारण हैं इसके पीछे...मने यार...साला...सत्य के लिए लड़ना भी अपराध हो गया है...इसका भी कारण बताते फिरो..कि...काहे इसके लिए खड़े हो...!!!" रामभरोसे जी उसी आवेग में बोले।
उनके चेहरे पर अपनी नजरें टिकाए हुए मैंने पूँछा, "कौन..कहाँ..यह सब क्यों पूँछ रहा है आपसे..?"
"देखो...'क्यों' की तो मुझे नहीं पता..लेकिन...कौन...कहाँ पूँछ रहा..!! अरे ! यह पूँछते कि ऐसा कहाँ नहीं पूँछा जा रहा....सौ नहीं..दो सौ परसेंट जगहों पर पूँछा जाता है यह..! कोई जगह बाकी भी है जहाँ यह न पूँछा जा रहा हो...आप सच के साथ खड़े होकर तो देखिए..!!!"
रामभरोसे जी चुप हुए तो मुझे ध्यान आया कि ये महोदय अपने कार्यस्थल की ही बात कर रहे हैं, क्योंकि...जब वहाँ की कोई बात इन्हें पिंच करती है तो ऐसा ही ऊल-जुलूल बकते हैं..रामभरोसे जी की बात फिर सुनाई पड़ी..
"यार..सत्य के लिए लड़ने का कारण ..!! भला यह भी पूँछने या बताने की कोई चीज है.? लेकिन नहीं..सब काम-धाम छोड़ उन्हें कारण बताते फिरो...एक बात बताऊँ भाई साहब..! ये सब ठसके वाले न..सरकारों को गुमराह करते हैं..."
रामभरोसे जी का आवेग अब थोड़ा शान्त हो रहा था...असल में जब वो अपने मन की कह लेते हैं तो शान्त-स्वर में आ जाते हैं। हाँ उनके लिए "ठसके वाले" मने नौकरशाही है। खैर..
रामभरोसे मेरा मुँह ताक रहे थे...शायद अपनी बातों पर मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में थे... मैंने उन्हें निराश भी नहीं किया और उनके दयनीय होते चेहरे पर गौर करते हुए कहा..
"यार मित्रवर रामभरोसे जी..! काहे बखेड़े में पड़ते हो..सत्य का कोई एक रूप थोड़ी न होता है...यह तो बहुरूपिया है बहुरूपिया..!! इसे क्यों नहीं रामभरोसे ही छोड़ देते..?"
बस मेरी इसी बात पर नाराज हो गए, "देखो.. हमसे मजाक मत किया करो यार..इसमें बखेड़े और बहुरूपिया जैसी क्या बात..!मतलब...सही का पक्ष लेेना भी अब बखेड़ा हो गया..!!" और फिर मुँह फेरकर कर चल दिये।
काश! रुकते तो इन्हें समझाता..
"मेरे कहने का मतलब है कि 'सच' को देश की जनता के हवाले कर दो..आखिर सवा अरब की आबादी क्या झख मारने के लिए बैठी है..अरे 'सच' क्या है, इसे ही तय करने दो...बेचारी पाँच साल इसी का तो इन्तजार करती है..! ऐसा करके रामभरोसे जी आप जनता पर बड़ा उपकार करते...कम से कम बैठी-ठाली जनता अपने हिस्से का 'सच' तो हांसिल कर लेेती..!! और आप 'सच' कहने की मगज़मारी की ज़हमत से भी बच जाते...क्योंकि 'सच' जनता के बीच में चिंदियाया जा चुका होता...ध्यान रखिए..लोकतंत्र में जनता ही 'सच' तय करती है...आप जैसे सरकारी सेवक को 'सच' तय करने की अनुशासनहीनता से भी बचना चाहिए...बस यही मेरे कहने का मतलब था..!"
पर अफसोस, रामभरोसे जी यह सब सुने बिना ही जा चुके थे...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें