इधर सुबह नींद तो खुल जाती है लेकिन मन अलसाया हुआ होता है, उठते-उठते लगभग पौने छः बज गये थे। किसी तरह मन को तैयार किया कि चलो कुछ टहल सा लिया जाए। हाँ, पता नहीं क्यों इधर इसके लिए मन को तैयार करना पड़ता है, शायद इसके पीछे एक कारण यह भी कि, यहाँ वाकिंग के लिए कोई उचित स्थान का न होना भी है। बस अपने आवास के सामने से गुजरती सड़क है जिसपर टहला जा सकता है। एक दिन पता चला कि यहाँ एक स्टेडियम भी है; लेकिन टहलाई का कोटा उस स्टेडियम तक जाने में ही खर्च हो जाता है और आज के जमाने में सड़क पर टहलना कितना खतरनाक होता है यह सर्वविदित है। यहाँ सड़क पर चलने के नियम को लोग नियम-फियम मान हवा में उड़ा देते हैं! और अपनी जान खतरे में तो डालते ही हैं दूसरे की भी जान साँसत में डाल देते हैं। खैर सब कुछ जानते-फानते हुए भी हम इसी सड़क पर टहलने निकल लिए।
टहलते हुए मैं अपने कदम भी गिनता जा रहा था...सड़क से एक खड़जा स्टेडियम का ओर जाता दिखाई पड़ा। स्टेडियम को देखने की जिज्ञासा में उस खड़जे पर मुड़ गया। रास्ते में एक मैदान में कुछ खच्चर नुमा घोड़े घास चरते नजर आए। स्टेडियम के गेट तक पहुँचने में मैं लगभग सोलह सौ कदम चल चुका था। स्टेडियम में चार-छह लोग क्रिकेट खेल रहे थे... एक बच्चा हाथ में हाकी लिए खड़ा था और वहीं एक सयाने शख्स के हाथ में भी हाकी थी..नीचे जमीन पर एक छोटी सी गेंद पड़ी दिखाई दी..कुछ ही क्षणों में वह बच्चा डिबलिंग का प्रयास कर रहा था... फिर एक अन्य व्यक्ति पर निगाह पड़ी जो मेरी ही तरह स्टेडियम के मैदान को भर आँख निहार रहे थे..। मैं उस मैदान को देखते हुए इसका चक्कर कैसे लगाएंगे इसपर विचार करता जा रहा था..असल में टहलने वालों को दृष्टि में रखकर महोबा वाले स्टेडियम की तरह यहाँ चारों ओर कोई कंक्रीट-पथ नहीं बना है। "आज यहाँ पहला दिन है, बाद में टहलने की सोचेंगे" सोचते हुए मैं वापस होने को हुआ तो दूर एक लंबे-चौड़े सीमेंट के फर्श पर एक कुत्ता बड़े आराम से घोड़ा बेचकर सोता हुआ दिखाई दिया..उसके सोने के अंदाज पर मुझे उससे ईर्ष्या हो आई, कि मैं ही बेवकूफ जो टहलने आ गया। खैर लौट पड़ा। इसप्रकार आवास तक वापस आने तक मैं अनमने ही लगभग चौंतीस-पैंतिस सौ कदम चल चुका था।
आवास पर पहुँचा तो अखबार उठा लिया..आजकल हम स्वयं चाय नहीं बनाते, खाना बनाने वाला सुबह सात बजे आता है उसी का बनाया हुआ चाय पीते हैं। सोचा उसके आने तक अखबार पढ़ने का काम खतम कर चुके होंगे.. फिर मोबाइल-शोबाइल पर कुछ खुराफात करेंगे... अखबार में मलिक मुहम्मद जायसी के संबंध में एक खबर थी जिसमें उनकी मृत्यु के बारे में लिखा था कि सिंह के धोखे में वे अमेठी नरेश की बाण का शिकार हो गए थे और जायस कस्बे में उसी स्थल पर उनकी समाधि है...हाँ इस बात को पढ़ते हुए मैं सोच रहा था... तब उस जमाने में इस गंगा के विशाल मैदान में सिंह गर्जना करते रहे होंगे..! लेकिन आज हम कितना कुछ नष्ट या खो चुके हैं..यही नहीं खोते भी जा रहे हैं...
अभी कुछ ही दिनों पहले कुत्तों को पकड़ने या मारने की बात का विरोध करनेवालों पर कहीं के हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि कुत्तों के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण मानव जीवन होता है...
... लेकिन एक बात है, क्या यह धरती केवल मनुष्यों के लिए ही बनी है...? या मानव का जीवन इतना महत्वपूर्ण है कि अपने इस जीवन के लिए वह जल..जंगल...जानवर...जमीन..सबकी बलि लेकर जिंदा रहना चाहता है...??
#चलते-चलते
जैसे-जैसे लोग स्वार्थी होते जाते हैं.. वैसे-वैसे स्वयं को नष्ट करते जाते हैं..
#सुबहचर्या
(6.7.18)
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