रविवार, 2 सितंबर 2018

आदरणीय इंसान

          मित्रों! सच बताएँ...लिखने का कुछ भी मन नहीं करता..फिर भी लिख रहा हूँ...! शायद ऐसा ही लिखना होता है..आखिर कोई संवेदना कितनी बार जगे..? इसकी भी तो कोई सीमा है..वैसे जब लिखना होता है तो हम शान्त बैठते हैं..मन के कोने-कोने टहलते हैं, इसी आशा में कि कोई भाव या संवेदना अपूँछ वाली स्थिति में उदासीन भाव से वहाँ बैठा मिल जाए और तनिक लिखने के बहाने ही सही उससे परिचय भी हो जाए...लेकिन सच बताएँ... उस भाव या संवेदना से मेरा कोई रिलेशन नहीं होता, उसे तो हम यूँ ही लेखकीय विषय बना लेते हैं.... हाँ..वैसे ही जैसे "गाइड" में देवानंद सिद्ध साधू बन जाता है.. बेचारा वह नायक अपने इस साधूपने से मुक्ति चाहता था.... लेकिन...लोगों की भावनाओं का सम्मान करते-करते वर्षा के लिए आमरण अनशन करते हुए प्राण त्याग देता है...और जनता उसको पहुँचा हुआ संत घोषित कर देती है... 
         ...वैसे उस फिल्म का, वह नायक संत न भी रहा हो, लेकिन धूर्त नहीं था..अन्यथा संतई के नाटक में प्राण न गंवाता...तो...संतई करने के लिए धूर्तता एक अत्यन्त आवश्यक गुण है, नहीं तो संतई का नाटक भी बहुत भारी पड़ता है...
           सच में, लेखक बहुत शातिर दिमाग का होता है...जैसे कोई वकील...हाँ, जैसे वकील कानून का ज्ञाता होता है और न्यायाधीश के समक्ष बखूबी बहस कर लेता है...वैसे ही ये लेखकीय कर्म में प्रवृत्त लोग भी होते हैं और भावनाओं-संवेदनाओं को खोज-खोजकर उससे बहस करते हैं...और आप होते हैं कि लेखक को ही महान..महात्मा...हरिश्चंद्र...आदरणीय-फादरणीय जैसे नाना उपाधियों से विभूषित कर देते हैं...!! और इधर आपके उस आदरणीय-फादरणीय लेखक जी, इस बात से हलकान हुए रहते हैं..कि... इस अखबार या उस अखबार में या फिर इस पत्रिका या उस पत्रिका में हम छपे कि नहीं..? खैर 
         कहने का मतलब यही है कि अच्छा लिख देने से हम आदरणीय-फादरणीय या महात्मा नहीं हो जाते..आदरणीय स्थिति में पहुँचने वाला व्यक्ति लेखक नहीं हो सकता...वह ज्यादा से ज्यादा उपदेशक भर हो सकता है..और आजकल उपदेशकों के हालात क्या है..!! यह बात आप सब से छिपी नहीं है...
        इस लेख का मैं लेखक हूँ..मैंने शुरू में ही बता दिया था कि लिखने का मन नहीं है...देखा..! यह लिखते हुए मैंने, आपसे कितना झूँठ बोला था..!! जबकि लिखते-लिखते इतना लिख दिया...आखिर बिना मन के यह कैसे संभव..!!!!! 
        तो...मेरे लिखे को पढ़कर मुझे आदरणीय-फादरणीय की श्रेणी में न पहुँचाएं...अन्यथा लिखना मुश्किल हो जाएगा...
       आज सुबह साढ़े तीन बजे खिड़की से आती वर्षा की बड़ी-बड़ी बूँदों की हर-हर आवाज से जाग उठा था...धीरे-धीरे करके पाँच बज गए..वर्षा जारी थी...कुछ क्षण के लिए फेसबुक वाल चेक किया, बहुत लोगों की कवितामयी भावनाएँ पढ़ने को मिली...पर अफसोस सब फेसबुक वाल तक ही सिमटी हुई..!! फेसबुक पर तो सब अच्छे लोग ही होते हैं...मने इन "फेसबुकिया संतो को सीकरी से क्या काम" टाइप से इस फेसबुकीय-लेखन का क्या..!!  इधर टहलने से बचने के लिए मेरे मन को भी वह "रेनी-डे" वाला बहाना मिल गया था..इस बहाने के साथ एक बार फिर नींद आ गई...लगभग सात बजे दरवाजे पर किसी की जोरदार थाप के साथ उसकी आवाज सुनकर फिर जाग उठा..बाहर निकला..होती वर्षा की एक तस्वीर ली...यही होती वर्षा ही एकदम असली बात है..इस तस्वीर को आप से शेयर कर रहा हूं.... 
#चलते_चलते 
         भाई..जो साधू या महात्मा के वेश में होता है...उसके अंदर भगवान नही...इंसान खोजिए..! निश्चित ही हर वह आदरणीय एकदम आप जैसा ही इंसान निकलेगा...
       #सुबहचर्या 
        (11.8.18)
          श्रावस्ती 

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