अभी एक नया-नया टी वी चैनल आया है, वही टी वी चैनल माने समाचार चैनल! आखिर चैनलों में भी तो समाचार चैनल का ही धंधा चोखा जो होता है !! रिमोट का बटन दबाते दबाते मैं इसी नये चैनल पर पहुंच गया था, देखा ऐंकर महाशय उछल-उछल कर कुछ वी आई पी टाइप के लोगों के ऊपर कराये गए अपने चैनलीय स्टिंग आपरेशन के खुलासे ऐसे कर रहे थे जैसे कोई बहुत बड़ा तीर मार लिया हो, जबकि बात कुछ भी नहीं थी, बस इतनी कि बेचारे ये स्टिंगित नेता येन-केन प्रकारेण चुनाव लड़ने के लिए फंड की तलाश में थे, जबकि अपने लिए फंड कौन नहीं तलाशता? लेकिन ये ऐंकर महाशय इस छोटी सी बात पर भी इन बेचारों की लत्तेरे की धत्तेरे की किए जा रहे थे।
हालांकि इस खुलासित समाचार चैनलीय स्टिंगित नेताओं की चुनावी फंड की डिमांड उन्हें फंडित करने वाले की हितचिंता की गारंटी के साथ और बाकायदे देश के लोकतंत्र के हित में कुछ टिप्स को फालो करने के लिए ही थी। आखिर इस देश में लोकतंत्र की समृद्धि के लिए नेता को भीड़ और नशेड़ी वोटर ही तो चाहिए। क्योंकि यहां का मतदाता बिना नशे का फुल डोज़ लिए लोकतंत्र में जान नहीं फूंकता। वोटर के मदमत्तावस्था में पहुंचते ही भारतीय लोकतन्त्र के पैरों में घुंघरू बंध जाता है और तब भीड़ के सामने इसकी चाल देखने लायक होती है। तो, इस स्टिंगीय खुलासे से यही लब्बोलुआब निकल कर आ रहा था कि भावी उम्मीदवारों की फंड मांगने की सारी क़वायद लोकतंत्र के पैरों में घुंघरू बांध कर उसे भीड़ के सामने नचाने की ही थी।
लेकिन ऐंकर महोदय भ्रष्टाचार के इस खुलासे को धमाकेदार बताए जा रहे थे। अब उन्हें कौन समझाए कि भ्रष्टाचार में जो 'आचार' शब्द जुड़ा है न, वही जीवन को खुशनुमा बनाता है, नहीं तो इस जीवन में नीरसपने के सिवा और कुछ भी नहीं है। यह बात इस देश के आम से लेकर खास सभी टाइप के मतदाता जानते हैं। शायद यह ऐंकर ही है, जो इसे न जानते हों, अन्यथा अपने खुलासे पर इतना कूद-फांद न मचा रहे होते। हद तो तब हो गई जब अचानक चिल्लाने जैसी ब्रेकिंग आवाज में बोल पड़े कि "स्टिंग में धराये फला नेता को फला पार्टी ने ससम्मान अपने दल में शामिल करा लिया।" मैंने ध्यान दिया इसे ब्रेकिंग टाइप का न्यूज़ बनाते समय उनकी भाव भंगिमा देखने लायक थी। जैसे वे, मने ऐंकर जी ही किसी स्टिंग में धरा लिए गए हों और उनकी टीआरपी घट गई हो। खैर चैनल पर विज्ञापन भी आने शुरू हो गए थे जैसे अपने इस प्रायोजित स्टिंग आपरेशन के खुलासे वाले प्रोग्राम की टीआरपी के घटने के पहले ही उसे भंजा लेना चाहते हों।
ये चैनल वाले भी बड़ी चालू चीज होते हैं, बेबात को बात बना देते हैं और बात को हवा में उड़ा देते हैं। देखिए तो इनके स्टिंग में खुलासे वाली जैसी कोई बात नहीं है, जो बात सबके सामने पहले से ही खुली है उसका क्या खुलासा? लेकिन नहीं, भाई को चैनल चलाना है टीआरपी बढ़ाना है..विज्ञापन पाना है और कमाई करनी है। क्या जनता बेवकूफ है, लेकिन यह जनता है सब कुछ जानती है, इसीलिए इस खुलासे की कहीं कोई चर्चा तक नहीं हुई। हां जनता को पता है कि भीड़ का हिस्सा बनने, मुफ़्त में पीने और यहां तक कि उसके वोट की कीमत भी उसे मिलती है और उसे यह सब देने वाले यही नेता लोग होते हैं। बेचारे स्टिंगित नेता इसी के लिए तो फंड इकट्ठा कर रहे थे! जनता समझ गई है कि यह खुलासा या इस तरह के खुलासे उसके लोकतांत्रिक अधिकारों पर कुल्हाड़ी चलाने के समान है।
आखिर जनता भी तो जानती है कि यही चुनावी मौसम है, जिसमें उसे कुछ पाना होता है, नहीं तो फिर पांच साल टकटकी लगाए इसका इंतजार करना होता है। अतः वह भी सोचती है कि इसी मौसम में पी पा लो, मदमत्त हो लो और जहां मिले मुफ़्त की रोटी तोड़ लो, नहीं तो यहां कुछ मिलने वाला नहीं है! वैसे भी यहां का लोकतंत्र गरीबों के नाम पर गरीबी दूर करने के लिए मनरेगा टाइप की योजना है!! अरे हां, मनरेगा पर पिछले दिनों मिले घिसइया की बात याद आ गई। वही घिसई जिसकी चर्चा अकसर मैं आप सबसे कर बैठता हूं।
घिसई को नशे में मदमत्त देख, मैंने उस दिन उसे गुस्से में डपटते हुए कहा था कि तूने आज फिर पी ली है, जबकि तू कहता है कि अपने पैसा का नहीं पीता? घिसइया वहीं नशे में लड़खड़ाते हुए मेरे सामने फर्श पर बैठ गया था और हाथ जोड़कर मुझसे बोला था, "नहीं हुजूर..आज भी मैंने अपने पैसे से नहीं, मनरेगा के पैसे से पिया है।" यह सुनकर मेरा सिर चकरा गया था। मैंने उसे फिर से डपटते हुए पूंछा, अरे, बेवकूफ मनरेगा का पैसा क्या तुम्हारा पैसा नहीं है?" मेरी इस बात पर घिसइया ने उसी तरह नशे में झूमते हुए मुझे समझाया था।
असल में क्या है कि घिसई को बिना काम किए हुए मनरेगा के साढ़े पंद्रह हजार रुपए मजदूरी के मिले थे, और प्रधान जी ने उसमें से पंद्रह हजार रुपए लेकर उसे पांच सौ रुपए दिए थे, उसी पांच सौ रुपए से उसने अपने दोस्तों संग शराब पी थी। घिसईया के इस खुलासे पर मैं विस्फरित नेत्रों से उसे देखने लगा था। मुझे अपनी ओर इस तरह घूरते देख नशे में चूर वह अपनी लाल-लाल मदमाती मिचमिचाती आंखों से मेरी ओर देखते हुए बोला था, "अब बताओ हुजूर..मैंने मुफ़्त में पिया कि नहीं?" मैं घिसई को वैसे ही देखे जा रहा था, मुझे लगा लोकतंत्र में अपना हिस्सा पाकर वह नशे में झूम रहा है।
ज़रा सोचिए, घिसई के इस खुलासे के सामने चैनल वालों का यह खुलासा कहां ठहरता है !! खैर जो भी हो लेकिन एक बात है, अगर अब घिसई मुझे मिल जाए तो मैं इन खुलासे करने वाले चैनलों के ऊपर उसे विधिक कार्यवाही करने के लिए उकसाउंगा, क्योंकि उसके बचे-खुचे लोकतांत्रिक अधिकारों पर ऐसे खुलासे बाधक के समान है।
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