'बतकचरा' में कुछ बातों का संग्रह है, ये बातें किसी को सार्थक, तो किसी को निरर्थक प्रतीत हो सकती है। निरर्थक लगें तो यही मान लीजिएगा कि ये बातें हैं इन बातों का क्या..!
रविवार, 8 नवंबर 2020
तंत्रवाद में कारण-दर्शन
शुक्रवार, 6 नवंबर 2020
मुखपत्र लेखन
कई दिन से कुछ भी नहीं लिख पाया हूँ और आज भी लिखने का मन नहीं था। लेकिन मेरा खाली-खाली फेसबुक वाल जैसे मुँह चिढ़ाता हुआ जान पड़ा ! तो सोचा इसे जवाब देना जरूरी है। लेकिन लिखना किस बात पर हो ? वैसे सभी की अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं, कुछ लिखने वाले अपनी इन्हीं समस्याओं को नमक-मिर्च लगाकार साहित्य रच डालते हैं, ऐसा लेखन, जिनमें साधारणीकरण का गुण सर्वाधिक होता है, उच्चकोटि की साहित्यिक श्रेणी में आ जाता है, अन्यथा यह लेखन भी 'व्यक्तिगत रोना' जैसा बनकर रह जाता है। इसीलिए प्राय: देखा जाता है, किसी महान लेखक की एक या दो कृति ही उन्हें इस महानता की श्रेणी में खड़ा करने के लिए उत्तरदायी है, जिसमें उनका भोगा हुआ यथार्थ ही होता है । अपने भोगे हुए यथार्थ के अलावा जो लिखा जाता है उसमें 'सायासपन' की मात्रा कुछ अधिक ही आती है, जिसमें 'जबर्दस्तीपन' या फिर 'व्यवसायपन' की झलक मिलती है।
सच तो यह है, साहित्य समाज को दिशा भी तभी दे सकता है, जब वह भोगे हुए यथार्थ को लेकर चलता है! मेरा तो इस क्रम में, यह भी मानना है कि रचना में अलंकारिकता रचना को जनविरोधी बनाता है, साहित्येतिहास में ऐसी रचनाएँ बहुत दिनों तक याद नहीं की जाती और न ही इनसे समाज प्रभावित होता है, ये पुरस्कृत चाहे भले हो जाएँ! हलांकि कुछ लोग बिना नमक-मिर्च काव्य-सौन्दर्य विहीन लेखन को सपाटबयानी कहकर खारिज करने की कोशिश भी करते हैं। लेकिन व्यंग्येतिहास में श्रेष्ठ घोषित व्यंग्यकारों की श्रेष्ठ व्यंग्यरचनाएँ सपाटबयानी जैसी ही होती हैं, जो बारीकी के साथ 'अन्योक्ति' में कहे गए होते हैं, बस इनमें कहानीपन होता है। लेकिन आज अधिकांशतया रचनाकार 'सपाटबयानी' से बचने के लिए जबर्दस्ती की वक्रोक्तियों का प्रयोग करते देखे जाते हैं, जिसमें कहानीपन न होकर मात्र कुछ कथनों के संग्रह होते हैं! दरअसल इसे अखबारी लेखन कहा जा सकता है। ऐसे अखबारी लेखन, लेखक की भावनाओं को चिरंजीवी नहीं बना सकते।
इतना तय है कि जैसे फेसबुक की पोस्टों पर 'लाइकवाद' हॉवी है वैसे कागजी लेखन पर 'बाजारवाद' है। इन दोनों प्रवृत्तियों के बीच पाठक बेचारे की पाठकीय खुराक पूरी नहीं होती और जैसे भूखे को थाली दिखाकर फिर उसके सामने से थाली खींच ली जाए, कुछ ऐसी ही हालत पाठक की बना दी जाती है। इस सब के बीच पाठक भी लेखको से खुन्नस पालता जाता है, लेकिन मजे की बात यह है कि इस 'खुन्नस' को ही लेखक अपनी उपलब्धि के रूप में गिनता है।
कुलमिलाकर मेरी इस फेसबुक पोस्ट का मतलब लेखकों को हतोत्साहित करने का नहीं है, क्योंकि लिखी हुई हर चीज साहित्य ही होती है। खासकर आजकल व्यंग्यविधा पर बड़ा जोर है और इस विधा में यथार्थ लेखन की गुंजाइश भी कम है! तो, बस अगर कोई लेखक की उपाधि पाना चाहता है तो "मुखपत्र" बनकर न लिखे!
वैसे मेरी इस पोस्ट से कोई पाठक मुझसे खुन्नस न पाले! यह मैंने मजे के लिए और अपने फेसबुक वाल का मुँह बंद करने के लिए लिखा है।
विकास के स्टेकहोल्डर
विकास एक बहुत बड़ा इश्यू बन चुका है, वैसे तो विकास एक प्रक्रियात्मक चीज है, इसे जानने की कोशिश में पूरा विकास-क्रम परत-दर-परत उघड़ आता है!! लेकिन भगवान की तो भगवान ही जाने, पता नहीं उनके यहाँ सृष्टि के विकास क्रम से संबंधित फाइलें बनती हैं भी या नहीं। लेकिन यहाँ आर्यावर्त का आदमी अपनी सरकारों से पत्रावलियों के माध्यम से विकास कार्यक्रम संपन्न कराता है और इस विकास को जानना, समझना या प्रमाणित करना हो तो सर्वप्रथम इन्हीं पत्रावलियों का अवलोकन करना होता है। हाँ, जितने भी टाइप के विकास दिखाई पड़ते हैं उन सब की फाइलें होती हैं! विकास अपनी इन्हीं फाइलों पर आरूढ़ होकर गतिमान होता है। लेकिन कई बार विकास के लिए लालायित लोग यह भी कहते सुने जाते हैं कि विकास फाइलों में ही कैद होकर रह गया है, या फाइलों में गुम है, तो मामला पेंचीदा हो उठता है! और जाँच का विषय बनता है। फिर जाँच से ही पता चलता है कि विकास हुआ या कि पैदा किया गया। दरअसल विकास के संदर्भ में 'हुआ' और 'पैदा किया गया' के अलग-अलग मायने हो सकते हैं!
लेकिन यह जाँच कार्य, पहले मुर्गी या अंडा वाले प्रश्न की तरह विचित्र धर्मसंकट में ढकेलने वाला होता है। आजकल जमाने पर विकासवाद हॉवी है, ऐसे में विकास और उसकी पत्रावली दोनों ही गड्डमगड्ड हो चुके हैं, इनमें से कौन पहले पैदा हुआ इसे सिद्ध करने का प्रयास करना आफत को गले लगाने से कम नहीं! लेकिन इस पेंचीदे और रहस्यमयी प्रश्न का उत्तर आध्यात्मिक ज्ञानी दूसरे रूप में ढूँढ़ते हैं। ये विकास और उसकी पत्रावली के बीच के संबंध की व्याख्या उसे व्यवहारिक जगत और पारमार्थिक जगत मानकर करते हैं। बस उसी टाइप से कि चाहे भगवान को संसार या संसार को ही भगवान मान लो! सब माया का खेल!! फाइल में, से, के द्वारा, ही विकास है या फिर विकास से, के कारण ही फाइल है, आशय यह कि विकास हो या उसकी फाइल दोनों ही मायावी हैं! माया के खेल को समझ चुके लोग अवसरानुकूल विकास और उसकी फाइल के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कर लेते हैं!
जैसाकि सब जानते हैं, विकास के लिए धमाचौकड़ी तो मची ही रहती है, ऐसे में ये वाला, वो वाला, इस पत्रावली वाला, उस पत्रावली वाला, मने सभी वाला विकास, इसके स्टेकहोल्डरों को गड्डमगड्ड दिखाई पड़ता है और ये विकास में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कराने के लिए आपस में पिल पड़ते है। मामला गंभीर होने पर विवाद के निपटान हेतु जाँच समितियां गठित की जाती है, और इन्हें निर्देशित किया जाता है कि जाओ पत्रावली और विकास के बीच के 'नेक्सस' को परिभाषित करो, जिससे इसके स्टेकहोल्डर संतुष्ट हो सकें। लेकिन जाँच समितियों का किसी निष्कर्ष पर पहुँचना दुश्वार हो जाता है, क्योंकि ये समितियाँ भी अकसर पत्रावली की मायावी चाल में उलझ जाती हैं।
ऐसी ही एक जाँच समिति के सदस्यगण विकास कार्य की किसी फाइल में उलझे हुए थे! और इसकी नोटशीट से लेकर इसका एक-एक प्रपत्र बारीकी से खंगाल रहे थे! इस कमेटी के एक मेंबर ने किसी कागज को देखकर कहा कि विकास हुआ है, तो जाँच समिति के अध्यक्ष जी ने तपाक से कह दिया कि चलो मान लेते हैं कि काम हुआ! लेकिन वहीं जब दूसरे मेंबर ने यह कहा कि इस कागज से काम होना सिद्ध नहीं होता, तो वही अध्यक्ष जी पलटी मारते हुए बोले कि कोई बात नहीं, यही मान लेते हैं कि काम नहीं हुआ! लेकिन तीसरे मेंबर के यह कहने पर कि ऐसे कैसे यह माना जाए? साइट पर तो काम मिला! तब अध्यक्ष महोदय झल्लाकर बोले, तो उसे और पत्रावली पर हुए काम को को-रिलेट करो।" अन्ततः जाँच समिति बिना कोई निष्कर्ष स्थापित किए ही उठ गई। वैसे अगर कमेटी किसी निष्कर्ष पर पहुँचती भी है तो इसके बाद की गठित एक दूसरी रिव्यू कमेटी इस निष्कर्ष को पलट भी सकती है! खैर।
ऐसेे ही फाइलों से पैदा किया गया विकास अपने स्टेकहोल्डरों के मध्य ही, उनकी चमक-दमक बढ़ाए बिंदास भाव से घूमता रहता है और उसे जहाँ होना चाहिए वहाँ वह नहीं होता। इन स्टेकहोल्डरों को विकास की परत-दर-परत हिस्ट्रीशीट पता होती है! विकास को सही जगह पहुँचाने के लिए किसी पत्रावली की बजाय ऐसे स्टेकहोल्डरों की हिस्ट्रीशीट खंगालनी चाहिए।