मंगलवार, 28 मार्च 2017

मठाधीशी

रात में दो बजे के बाद बेचैनी में अचानक मेरी नींद खुल गई...बेचैनी कोई खास नहीं थी...एक स्वप्न ने मुझे बेचैन कर दिया था...!

            "मैं एक व्यक्ति के साथ किसी बस्ती में भ्रमण कर रहा हूँ....देखता हूँ...बस्ती में एक स्थान पर चबूतरा बना है..मेरे साथ वाला व्यक्ति मुझे बता रहा है..इस ऊँचे स्थान को आस्थान कहते हैं...आस्थान को मैं मठासन समझ रहा हूँ...जो चबूतरानुमा है..इसके सामने नीचे दूर दूर तक गरीबों का घर या उनके अलग-अलग स्थान फैले दिखाई दे रहे हैं...साथ वाला व्यक्ति बताता है..इस बस्ती में निवास करने वाली जाति का मठाधीश इसी आस्थान पर बैठता है...फिर हमें वह दूसरी बस्ती दिखाता है..उस बस्ती में भी वैसा ही चबूतरानुमा आस्थान है, जिसे मैं बस्ती के मठाधीश का आसन समझ रहा हूँ… फिर वहाँ ऐसी ही अनेकों बस्तियाँ दिखाई देने लगती हैं…उन सभी बस्तियों के अपने-अपने मठासन हैं..उनके अपने-अपने मठाधीश हैं...यह चबूतरेनुमा आस्थान मठाधीशों के लिए है ….ये बस्तियाँ अचानक गरीबों की अलग-अलग बस्तियों में बदल जाती है..और..आस्थान इन बस्तियों के रहनुमाओं का हो जाता है… बस्तियाँ सूनी दिखाई देने लगती हैं...मैं सोच रहा हूँ..इन बस्तियों के अपने-अपने रहनुमा होने के बावजूद  ये बस्तियाँ गरीब और उजड़ी क्यों दिखाई दे रही हैं!....इन बस्तियों को देखता हुआ मैं व्याकुल होता हो रहा हूँ…. “
           बस यही मेरा स्वप्न था…! बेचैनी में मेरी आँख खुल जाती है रात के दो बज रहे थे…अजीब बेवकूफी भरा स्वप्न था…इस स्वप्न का मतलब मैं खोजने लगा...धीरे-धीरे फिर से नींद के आगोश में चला गया….फिर नींद चार बजे खुली...सोचा पाँच बजे उठकर टहलने निकल लेंगे..एक बार फिर सो गया...अब नींद तिबारा खुली तो सुबह के पाँच बज रहे थे….यूँ बिस्तर पर पड़े-पड़े स्वप्न के बारे में सोचता रहा…और आलस्य भगाने का प्रयास भी करता रहा...
         टहलने के लिए निकला तो सुबह के पाँच बजकर बीस मिनट हो चुके थे… रास्ते में एक महिला अपने घर के सामने खुरच-खुरच कर झाड़ू लगा रही थीं… बेचारी महिलाएँ ही घर के अंदर-बाहर सफाई का जिम्मा लिए होती हैं…. कुछ दूर और आगे बढ़ा तो देखा सामने से दो महिलाएँ अपने सिर पर एक के ऊपर एक दो पानी के मटके रखे हुए चली आ रही थी… मतलब घर में पानी की व्यवस्था भी बेचारी औरतों के ही जिम्में होती है.. स्टेडियम पहुँचने पर एक कुतिया अपने चार-पांच पिल्लों के साथ टहलती दिखीं, पिल्लों में उसके दूध पीने की होड़ लगी हुई थी…! वाकई!  मातृत्व धारण करने वाली प्रजाति अद्भुत होती हैं...खैर।
           आज “हिन्दुस्तान” के “नजरिया” में महेन्द्र राजा जैन का एक बेहतरीन लेख “भविष्य की लय-ताल और कविता का भविष्य” पढ़ा। इसकी कुछ पंक्तियाँ देखिए -
          “मुद्रण कला के आविष्कार के बाद कविता केवल चुपचाप या फिर एकांत में पढ़ी जाने के लिए लिखी जाती रही है। वह श्रव्य परंपरा से लगातार दूर होती गई।”
            “कविता वस्तुतः भाषा और शब्दों का श्रेष्ठतम चमत्कार है।”
           “कविता लिखित रूप में परिरक्षित की जाती है, लेकिन वह जीवित श्रव्य रूप में ही रहती है।”
             “विदेशी भाषाओं के अज्ञान की तरह ही कविता सुनने की कमी हमें मानवता के अनुभवों से दूर रखती है।”
           खैर, आज के दौर में मठाधीशी के सिवा किसी को कुछ सूझता ही नहीं..कविता में लय कहाँ से आयेगी! हर क्षेत्र में मठाधीशी..अन्य को नियंत्रित करते हुए...
          चलते-चलते एक बात और बता दें... झाड़ू के दिन बहुर आए हैं…यह झाड़ू अजब-गजब हाथों को सुशोभित कर रही है...पर झाड़ूबाजी से सावधान रहना होगा…कि...कहीं झाड़ूबाजी के चक्कर में लोग आपके काम की चीजों पर भी न झाड़ू लगा दें...

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