मंगलवार, 28 मार्च 2017

चोरी करि होरी रची, भई तनक में छार

          यह होली भी बीत गई। बीत क्या गई यह तो बचपन से ही बीतती आ रही है। बचपन में होली के दिन भांग के नशे में मुझे अपने अवचेतन में चले जाने का अनुभव प्राप्त है। जैसे नाचना न जानते हुए भी नाचने लगना या फिर ऊल-जुलूल न जाने क्या-क्या लिखते जाना...या फिर बेमतलब की हँसी आई तो हँसते ही चले जाना! हलाँकि फिर चैतन्यावस्था में लौट आने पर यही सब नशे में की गई बेवकूफियाँ लगने लगती हैं! कुल मिलाकर नशेड़ी नशे में मस्तमौला अंदाज में अपने अवचेतन में जाकर खुद-ब-खुद उठा-उठाकर बोधात्मक टाइप की चीजों को ऊल-जुलूल ढंग से फेंकने लगता है। वाकई! होरिहारों द्वारा होली में बोधात्मक-हास्य पैदा किया जाता है, जो अवचेतन की रचनात्मक अभिव्यक्ति है। इसीलिए नशेड़ी रचनात्मक भी होता है।
            लेकिन हम जैसे फेसबुक पर कुछ टुँटपुजिया टाइप का लिखने वाले लोग लिखते समय खामखा गाहे-बगाहे अपने अवचेतन में चले जाते हैं और वह भी बिना किसी नशे में डूबे हुए! नशे में हुए बिना अवचेतन में जाना ठीक नहीं होता क्योंकि तब दिमाग यहाँ से किसी भी नाचती-फिरती चीज को गलती से हाथ लगा बैठता है, और वह चीज अपनी नहीं होती। वहीं एक नशेड़ी का नशे वाला अवतेतन, उसके मूल स्वभाव को ही पकड़ता है, तब व्यक्ति मौलिक होता है।
          मेरे समझ से साहित्यकार नशेवाली अवस्था में ही जबर्दस्त मौलिक होता है। अन्यथा की दशा में वह खराब हुए दिमाग से लिख रहा होता है। हाँ, बिना नशे में हुए अवचेतन में जाने की आदत पागलपन मानी जा सकती है, मतलब ऐसी स्थिति का लेखन खराब दिमाग का लेखन कहा जाएगा। 

             आज रात की बस-यात्रा में बस ड्राइवर तेज आवाज में टेपरिकार्डर बजाये जा रहा था जिसके एक गाने का मुखड़ा कुछ ऐसा ही था `हम पागल नहीं हैं, हमारा दिमाग खराब है´।
           वैसे एक बात तो माननी ही पड़ेगी, वह यह कि भँगेड़ी या गँजेड़ी वाकई, ये होते हैं बेचारे बड़े मौलिक ही..! अब जनता भी मौलिकता को पकड़ने लगी है। खैर..
          इस बार कई वर्षों बाद गाँव में जलती होली को देखने का अवसर मिला। बचपन में इसी स्थान पर हम भी होली लगाया और जलाया करते थे। गाँव वालों की, चोरी से लकड़ियाँ और उपले लाते और इस होली को ऊँचा और ऊँचा करते जाते। खैर, दादा जी इस बात से चिढ़ते और फिर सुनाते हुए कहते -

             "चोरी करि होरी रची, भई तनक में छार"
           
          मन ही मन अपने दादा जी की यह कहावत याद करते हुए जलती हुई होली को छार होते हुए देखते जा रहे थे।
          कहीं बिना नशे में आए अवचेतन की अवस्था में ही तो नहीं लिख रहा..? खैर....

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