इधर दो दिन से परेशान हूँ कि कुछ लिखूँ, लेकिन लिख नहीं पा रहा, कारण व्यस्तता! और यह व्यस्तता कार्य की है और कार्य की इसी व्यस्तता के चलते मन में उठते विचार अभिव्यक्ति पाने के पहले ही दम तोड़ रहे हैं। इस तरह विचारों को दम तोड़ते देखना और वह भी काम के चलते..! यह स्थिति देश की कार्य-संस्कृति के एकदम खिलाफ जान पड़ती है। पहले कभी सुना रहा होगा "बातें कम, काम ज्यादा" अब तो "बात जियादा और काम कम" जैसी कार्य-संस्कृति का ही बोलबाला है। हाथ कंगन को आरसी क्या, लगे हाथ इसका प्रमाण बोलने की आजादी के लिए झगड़ा करते लोगों को देख सुनकर मिल जायेगा। तो, अभिव्यक्ति पाने के पहले दम तोड़ते अपने विचारों को देख के यही मन होता है कि मैं भी अपनी ही विवेक-बुद्धि के खिलाफ आजादी की मांग करते हुए स्वयं के ही विरुद्ध धरने पर बैठ जाऊं, आखिर तभी न मन बदलेगा! और तभी मन का रुझान "बात जियादा, काम कम" की ओर हो पायेगा।
एक मुई अभिव्यक्ति है जो, आजकल अपना ठौर तलाशने में ही मशगूल है, कभी यह नेताओं के सिर पर चढ़कर बोलती है तो कभी आजादी के दीवानों के सिर पर बैठ इतराती है। वैसे नेता बिना बोले रह ही नहीं सकता और जो न बोल पाए समझिए वह नेता ही नहीं है। नेता की अभिव्यक्ति, कुत्ता, बिल्ली से लेकर गदहा, चूहा तक की सवारी कर आता है। फिर तो नेताओं की अभिव्यक्ति को कोई समस्या नहीं जान पड़ती। अब ऐसा भी विश्वास हो चला है कि अंग्रेजों ने जाते-जाते नेताओं को ही ठौर-ठिकाना बनाने के लिए अभिव्यक्ति का कान फूँक गये थे। सही भी है नेताओं का आश्रय पाकर अभिव्यक्ति के भी नखरे धरे नहीं किये जा रहे हैं और यह एकदम से घुमन्तु टाइप से कब्रिस्तान होते हुए श्मशान और फिल्मी पर्दे पर बाहुबली, कटप्पा तक घूम आती है। नेताओं के सिर चढ़कर अभिव्यक्ति बोलती है तो खूब बोलती है, मतलब इस तरह कि जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय अभिव्यक्ति..!!
देश के युवा टाइप के विद्यार्थीजनों की अभिव्यक्ति कभी-कभी लाइट..कैमरा...ऐक्शन के लिए मचल उठती है। सच में, आज यदि मेरे दादा जी होते तो अभिव्यक्ति की इतनी धमा-चौकड़ी देखकर यही कहते कि "अभिव्यक्ति न होकर लड़िका कइ लंगोटी होइ गइ है"। असल में ये बेचारे न तो बच्चा होते हैं और न ही सयाने और शायद इसी कारण इनपर कोई ध्यान ही नहीं देता जबकि ये इतने बड़े-बड़े युनिभरसिटी पढ़ रहे होते हैं। गाँव-घर में इनके माँ-बाप इनकी अभिव्यक्ति पर लगाम लगाये होते हैं लेकिन नेताओं के सिर चढ़कर बोलती कान फूँक अभिव्यक्ति के जलवे देख ये भी इस अभिव्यक्ति के मतवारे हो उठते हैं, और फिर शुरू हो जाते हैं। ये अभिव्यक्ति का मजा लेने के लिए उतारू होकर "हमरऊ खेल नाहीं बिगरऊ खेल" टाइप का खेल खेलने लगते हैं। खैर..
ये मीडिया वाले भी अभिव्यक्ति को लेकर इन्हीं बच्चों के साथ हुड़दंग मचाना शुरू कर देते हैं। फिर तो, समवेत स्वर में इनकी चिल्ल-पों देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि इस धरती पर अंग्रेज सबसे जियादा बेवकूफ थे, उन्हें देश छोड़कर जाना ही नहीं चाहिए था। देशवासियों को केवल और केवल अभिव्यक्ति की अहर्निश आजादी चाहिए थी। यहाँ, अंग्रेजों को चाहिए यह था कि बस इसी अभिव्यक्ति की आजादी को सभी देशवासियों में बराबर-बराबर बाँट देते और अनन्तकाल तक राज करते।
अभिव्यक्ति के ऐसे जलवे देखकर भी, रोटी के बदले अभिव्यक्ति चाहिए का मेरा भ्रम दूर हो गया है क्योंकि, मैं ठहरा नान-लेखक एलिमेंट! मतलब जो जिसका एलिमेंट हो उसे ही वह चीज दे दो भाई, कोई बात नहीं। इधर खाली-पीली लिखना ही मेरा काम-धंधा नहीं हो सकता और इसलिए लिखने की आजादी मैं नहीं मांग सकता। इसके लिए पेशा बदलना होगा और पेशा बदल नहीं सकता, क्योंकि तब यह मेरे लिए घाटे का सौदा होगा और घाटे का सौदा मुझे मंजूर नहीं। फिर क्यों मैं धरने पर बैठूँ..! तो भाई जान, यदि लोग इन नारेबाजों को कुछ काम-धंधा सिखाये होते तो हाथ उठा-उठाकर ये भी अभिव्यक्ति के पीछे न पगला रहे होते।
खैर, नेता बनना भी तो एक पेशा है, और नेताओं के पास जबर्दस्त अभिव्यक्ति होती है, हो सकता है वही वाली आजादी चाहते हों..!!
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