चुनाव के साथ ही लोकतंत्र का कार्यक्रम भी सम्पन्न हो चुका था और इधर मैं भी जीते हुए नेता की तरह थोड़ा रिलैक्स फील करते हुए रविवारीय मूड में शहर के एक माल की ओर अपनी गड्डी लेकर निकल पड़ा था। वैसे तो इस माल में दो मंजिला अंडरग्राउंड कार-पार्किंग की व्यवस्था है, लेकिन जैसा कि हम देशभक्तों की आदत में शुमार है जो चीज जिसके लिये बना होता है, उसका इस्तेमाल हम वैसा नहीं करते। मतलब इस माल के किनारे सड़क की पटरियों को ही हम भी कार-पार्किंग के लिए यूज करते आ रहे हैं। नेता हो या वोटर, क्या चुनाव के पहले और क्या चुनाव के बाद, जिसकी जो आदत होती है वह नहीं छूटती है।
इस माल के शुरुआती दो-तीन वर्षों तक जब कभी यहाँ जाना हुआ तो, माल के अगल-बगल की सड़क की पटरियों पर ही फ्री-फंड में मैं भी कार-पार्क कर देता। ऐसे ही एक चुनाव के बाद का कोई दिन रहा होगा जब मैं अपनी गड्डी खड़ी कर चलने को हुआ था, तभी दो मुसडंडे हाथ में रसीद लिये प्रगट हो गये थे और कागज का एक टुकड़ा पकड़ाते हुए मुझसे बीस रूपये पार्किंग-शुल्क के मांगे थे। मेरे यह कहने पर कि `अभी तक तो ऐसा नहीं था´ तो उनने कहा, `अब से ऐसा ही होगा।´ खैर, मैंने भी बिना जद्दोजहद के झट से बीस रूपया पार्किंग-शुल्क-कम गुंडा टैक्स समझते हुये अदा कर दिया था। बाद में मुझे किसी ने बताया था कि `चुनाव बाद अब इनकी सरकार बन चुकी है, इसके लिए इन्हें ऊपर से कहा गया है।´ यह सिलसिला तब से चला आ रहा था।
तो, एक वो चुनाव के बाद का दिन था और एक आज के चुनाव के बाद का दिन है। आज पार्किंग के ठेकेदार ने मुझसे पचास रूपए पार्किंग-शुल्क के मांगे। पूँछने पर पार्किंग वाले ने रविवार वाले दिन शुल्क बढ़ जाने की जानकारी दी। अब चुनाव के बाद का मेरा फील गुड जाता रहा और पार्किंग शुल्क की बैधता पर प्रश्नचिह्न लगाने पर पार्किंग वाले ने बताया,
`साढ़े सात लाख की बोली के बाद साल भर के लिए पार्किंग का ठेका हासिल किया था।´
पार्किंग से होने वाली इनकम के बारे में मेरी जिज्ञासा पर उसने बताया,
`रविवार जैसे दिनों में एक दिन में ही लगभग साठ हजार की आय हो जाती है।´
मतलब, तब मैं यही सोच बैठा,
`केवल साल भर के रविवार का ही इनकम अट्ठाइस लाख ठहरती है और ठेके की निलामी मात्र साढ़े सात लाख में..! यहाँ तो पूरा गोरखधंधा मचा हुआ है।´
पार्किंग वाला थोड़ा चिन्तित था क्योंकि उसी के अनुसार,
`चुनाव बाद तो सरकार बदल गई है, अब फिर से ठेका होगा और ठेकेदार भी बदल जाएंगे..अब उनके वाले लोग ठेका उठाएँगे´।
जो भी हो, यदि बहुत हुआ तो चुनाव बाद केवल ठेकेदार बदल जाते हैं या फिर ये झंडा बदल लेते होंगे बस। कुल मिलाकर चुनाव बाद भी चुनाव पूर्व वाला गोरखधंधा चलता रहता है, ठेकेदार नेता की मजबूरी होते हैं। यह गोरखधंधा ही चरम-सत्य है, चुनाव तो आते-जाते रहते हैं। खैर..
चुनाव बाद सब्जी-मंडी भी वैसे ही सजी मिली जैसे चुनाव के पहले सजती थी। सड़क पर डिवाइडर के एक तरफ सब्जी मंडी तो दूसरी ओर से आना जाना हो रहा था। यहाँ आसपास खड़ी गाड़ियों से बचते-बचाते धीरे-धीरे मैं अपनी कार निकाल रहा था। सामने एक स्कार्पियो खड़ी दिखी तो उसके बगल में पर्याप्त खाली जगह से निकल जाने की सोचते हुए मैं आगे बढ़ा ही था कि अचानक दिन के उजाले में ही उस स्कार्पियो की हेडलाइट मेरी आँखों को चौधियाने लगी! जैसे मैंने उसकी कोई तौहीन कर दी हो और हेडलाइट चमकाकर वह मुझे इसके लिए मुझे हड़का रहा हो। खैर, मैं रुका नहीं पास जाने पर मेरी निगाह उस स्कार्पियो के नम्बर-प्लेट पर पड़ी। राजनीतिक पार्टी के झंडे के रंग वाले इस नम्बर-प्लेट पर `विधायक´ लिखा देख मैं हेडलाइट जलाने का चक्कर समझ गया, सोचा-
`जे बात है..! मतलब चुनाव बाद वाले ये नेता जी जैसे हेडलाइट जलाकर मतदाता की औकात बता रहे हों।´
मुझे याद आया अभी चुनावपूर्व चुनाव आयोग ने इन लोगों से मोटर-ऐक्ट का खूब पालन करवाया था और अब चुनाव के बाद ये अपने ऐक्ट से हमारी आँखें चौधियानें में लग गए हैं। इस हेडलाइट के साथ ही मुझे यह भी एहसास हुआ कि आम टाइप के आदमी का खेल चुनाव बाद खतम हो जाता है और यह आम आदमी इनके रास्ते का अवरोध टाइप का बन जाता है। तो, अब चुनाव बाद ये नेता लोग ऐसे ही हमारी आँखों पर फोकस मारते रहेंगे। मैंने सोचा,
´काश! हमारे देश में चुनाव के बाद की परिस्थिति न हुआ करती..! और मैं तो कहुँगा, हमारे देश को हमेशा लोकतंत्र के मोड में ही डाल देना चाहिए क्योंकि तब आचार संहिता प्रभावित रहेगी।"
इस तरह चुनाव बाद ये नेता-वेता लोग अलग तरीके का फोकस मारते हुए सदन के बाहर भी नियम-विधायक बने फिरते मिल जाएँगे ! अगर खुदा न खास्ता कोई भूले-भटके बाबूनुमा कार्यपालक इन्हें नियम कानून बताएगा भी तो, ये उससे यही कहते मिलेंगे -
`जब तुम्हीं को सही-गलत बताना है तो, फिर हमारा क्या काम..? कहो तो मैं इस्तीफा ही दे दूँ..?'
यह सुनकर किसी बेचारे कार्यपालक की घिघ्घी बँध ही जाएगी, क्योंकि वह नौकर जो ठहरा!
खैर, ऐसा भी नहीं है, बेचारे जनता के इन प्रतिनिधियों का चुनाव बाद भी अपने वोटरों से सदाशयता बना रहता है। एक बार एक गरीब बूढ़ी औरत को अपने एक चुने जनप्रतिनिधि जी को खरी-खोटी सुनाते और लताड़ते हुए मैंने देखा था,
`अब अइहो वोट मांगने तो बतउबे..तब तो काकी-माई कहत जीभि नाहीं थकत रहै औउर अब काम करै की बेरी नहीं होई सकथ !´
नेता जी मुसकाते हुए यह सब सुनते जा रहे थे और उस औरत के जाने के बाद ही बोले थे,
´भाई ये मेरे वोटर हैं, अब इतना तो सुनना ही पड़ेगा।´
चुनाव बाद अपने वोटर के प्रति किसी नेता का यह सदाशयता पूर्ण व्यवहार मुझे गहरे तक प्रभावित कर गया और मुझे लगा नेता जी बहुत गुलगुल गद्दी पर बैठे हैं।
वास्तव में नेता सच और झूँठ से परे की चीज होता है। ये नेता लोग सच और झूँठ की जबर्दस्त धुनाई करते हुए दोनों को मिलाकर अपने लिए अरामदेह पदार्थ का निर्माण करते हैं। इसी पदार्थ से ये अपने लिए गुलगुल गद्दी बनाते हैं और अपनी कुर्सी पर धर इसी पर आराम से बैठते हैं। यदि कोई नेता ऐसी किसी प्रक्रिया से अनभिज्ञ होता भी है तो चुनाव बाद इसमें पारंगत हो जाता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें