'बतकचरा' में कुछ बातों का संग्रह है, ये बातें किसी को सार्थक, तो किसी को निरर्थक प्रतीत हो सकती है। निरर्थक लगें तो यही मान लीजिएगा कि ये बातें हैं इन बातों का क्या..!
शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016
हम भारतीय अपने धुन के पक्के लोग नहीं होते
रविवार, 20 नवंबर 2016
अपने-अपने अर्धसत्य
मंगलवार, 15 नवंबर 2016
बाजार के हिमायती मत बनिए
बुधवार, 9 नवंबर 2016
इस देश में सुधारों के लिए इमरजेंसी जैसे हालात की जरूरत है..
शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016
राजनीति में "अहिंसा"
रविवार, 2 अक्टूबर 2016
सर्जिकल स्ट्राइक
रविवार, 25 सितंबर 2016
प्रकृति की आवाजें
"विधा" और "बात"
चक्र
बड़ी विचित्र स्थिति है मेरी #दिनचर्या को लेकर! यह भी अजब का झमेला पाल लिए हैं..लिखने में आलस लगता है और न लिखें तो मन कचोटने लगता है..हाँ, यह मेरे लिए झमेलई तो है..! लेकिन फुराखरि में, इस दिनचर्या को लेकर मेरे लिए एक बात तो है, वह यह कि इसी बहाने मैं आप से बात भी कर लेता हूँ..एकतरफा ही सही..!
आज स्टेडियम जाने में थोड़ी देर हो गई..स्टेडियम जाते समय ऐसा लगा जैसे, आज टहलने वालों में उतना उत्साह नहीं है.. रास्ते में ज्यादा लोग भी नहीं दिखे..बड़ी समस्या है! भीड़ होने पर भी परेशानी और न होने पर भी परेशानी..हाँ, ग्रुप वालों से भेंट नहीं हुई.. वे लोग मेरे काफी आगे थे और मेरी चाल भी कम थी...आज एक चक्कर मैं, कम टहला भी...उनसे भेंट होती तो एकाध जुमला सुनने को मिल ही जाता, क्योंकि टहलते हुए उनकी बतकही निर्वाध रूप से जारी रहती है!
लौटते समय रास्ते पर, मेरे आगे तीन-चार लोग चले जा रहे थे आचानक उन सभी की चाल धीमी हुई उनमें से एक वहीं खाली पड़ी जमीन की ओर इशारा करते हुए कुछ दिखा सा रहा था..उनके बगल से आगे बढ़ते हुए उनकी बातें मैंने सुनी, "अभी यहाँ कबाड़ वाले अपनी पन्नी रख दें तो उन्हें कोई नहीं हटाएगा..लेकिन हम रख दें तो तुरन्त फेंक दिया जाएगा..।" दूसरा बोला, "कोई पट्टा-वट्टा हो सकता है, हुआ हो.." कुल मिलाकर खाली पड़ी सरकारी जमीन पर कब्जे के लिए इनका लार टपकता हुआ सा प्रतीत हुआ। मैं उनसे आगे निकल गया था।
आज सबेरे चाय पीने का मन नहीं हो रहा था...लेकिन यह सोचकर कि चलो चाय पी ही लिया जाए फिर चाय बनाई, अखबार आ चुका था, पढ़ने बैठ गए।
पहले पृष्ठ पर जबर्दस्त विज्ञापन से भेंट हुआ बाल लहराते हुए माडल किसी कम्पनी की स्कूटी पर बैठ अपने सपने सच कर रही थी। दूसरे पेंज पर किसी शुगर टेबलेट का पूरे पेंज पर प्रचार था। मतलब प्रचार में दो पेंज चले गए थे...ऐसा लगा जैसे अखबार के पैसे देकर हम प्रचार खरीदते हैं। बाकी पेंजों में भी आधे-तीहे प्रचार ही थे। यह प्रचार तंत्र का अपना अर्थशास्त्र है और हम इस तंत्र में चाभी भरनेवाले लोग।
एक स्थानीय समाचार की छोटी सी हेडिंग "हिंदू युवा वाहिनी ने जलाया पाकिस्तान का झंडा" को देखा। जैसे, देशभक्ति का ठेका यह लोग ले रखे हैं, यह हेडिंग देशभक्ति का साम्प्रदायीकरण करती प्रतीत हुई, इस देश की यही समस्या है। पत्रकारिता, जैसे इन बातों को समझती ही नहीं। नकारात्मकता का दंश लिए हुए बेमतलब की महत्वहीन बातों को हेडिंग बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है।
फिर सरकारी काम निपटाने में लग गए...एक गाँव चले गए थे... गाँवों में लोगों की हालत यह है कि गरीबी का रोना रोकर लोग सरकारी योजनाओं को झटकने के फिराक में पड़े रहते हैं और दिनभर में पच्चीस रूपए का गुटखा खा जाते हैं। किसी भी गाँव में यह किसी एक व्यक्ति की बात नहीं, गाँव में हर तथाकथित गरीब मजदूर की यही कहानी है और पूँछने पर कहते हैं, "इसलिए खाते हैं कि इससे समय बीत जाता है"। गजब! समय काटने का भी यह भी एक तरीका है! हमें तो पहली बार पता चला कि यह भी समय बिताने का एक तरीका होता है। अब समझ में आया कि यह देश तमाम विडम्बनाओं से भरा देश है।
बस इतना ही।
चलते-चलते - कभी बहुत पहले लिखा था -
चारों ओर पसरा विज्ञान है
विज्ञान से
टीवी है
टीवी में नेता है
नेता का भाषण है
भाषण का प्रभाव है
अखबार है
अखबार में शब्द है
शब्द में विज्ञापन है
विज्ञापन में प्रचार है
प्रचार में छिपा बैठा
लोकतंत्र है
रूपया है
रूपया से
टीवी है
अखबार है
विज्ञापन है
प्रचार है
लोकतंत्र है
सबका चुनाव है
चुनाव का चक्र है
चक्र में चाभी देता
लंगोटिया यार है।
हाँ, आज की #दिनचर्या खतम।
--Vinay
#दिनचर्या 16/22.9.16
सुपरस्टारी का चक्कर
चीजें सब वैसी ही हैं जैसे कल थी। सुबह टहलते हुए ग्रुप से वही कल वाली बात फिर सुनी "कार्यवाही का अधिकार सेना को दे दिया गया है"। आज अन्तर यह था कि ग्रुप द्वारा इस कथन को सबसे बढ़िया बात बताया जा रहा था। हाँ.. ग्रुप से नमस्कारी-नमस्कारा हुआ और मैं आगे बढ़ गया था। सबेरे अखबार तो पढ़ी लेकिन अन्यमनस्क ही रहा, कोई उल्लेखनीय बात मैं, समझ नहीं पाया।
अखबार पढ़ने के बाद फैन चालू किया और टी वी भी चला दिया.. सोचा अब तक हो सकता है युद्ध शुरू हो जाने की कोई फड़कती हुई खबर मिल जाए! क्योंकि, इधर देख रहा हूँ, क्या बुद्धिजीवी...क्या भगत..सभी युद्धोन्माद में दिखाई दे रहे हैं। हाँ.. यह युद्धोन्माद उनमें अलग-अलग टाइप का है! भगत बेचारे युद्धवत्सल तो हो ही रहे हैं, बुद्धिजीवी भी अपने तरीके की वत्सलता निभा रहे हैं,। वैसे भगत तो, बुद्धिजीवी होते ही नहीं, कारण यही कि बुद्धिजीवी उन्हें अपनी जमात में शमिलई नहीं होने देते! इनमें उन्माद का स्तर ऐसा कि ये दोनों "न भूतो न भविष्यति" के अन्दाज में ही दिखाई दे रहे हैं..हाँ, आज नहीं तो फिर कभी नहीं..जैसा! मतलब युद्ध तो हो ही जाए के अन्दाज में, पता नहीं फिर अवसर मिलेगा भी या नहीं।
इस उन्माद में बुद्धिजीवी वर्ग नए तरीके से शामिल हैं, जैसे इस समय उनके दोनों हाथों में किसी ने लड्डू धर दिया हो..उनके द्वारा तड़ातड़ भक्तों की खिल्ली उड़ाई जा रही है..कि...देखो! तुम्हारे ओ, कितने झूठे निकले..अभी तक युद्ध नहीं शुरू हुआ..हम कहते थे न.." मतलब यदि युद्ध होता है तो भी इन बुद्धिजीवियों के मजे और न हो तो भी। युद्ध छिड़ जाने की दशा में इनके मजे होने या न होने का अनुपात फिफ्टी-फिफ्टी होगा..! आप कहेंगे कैसे..? सो ऐसे कि, यदि देश जीतता है तो इनके बुद्धि के किसी कोने में बैठी इनकी भी देशभक्ति-भावना हिलोरें ले लेंगी..हो सकता है ये भी खुश हो जाएँ! लेकिन हाँ, इससे फिफ्टी परसेंट का इन्हें नुकसान यह होगा कि तब भक्तों की बल्ले-बल्ले हो जाएगी, जो इनपर नागवार गुजरेगा। ऐसे में, ये बौद्धिक सम्प्रदाय यही चाहेंगे कि युद्ध का परिणाम बेनतीजा ही रहे...वह भी इसलिए कि भगतई की औकात बताई जा सके।
हाँ.., अब अगर युद्ध शुरू नहीं होता है तब तो, इन बुद्धिजीवियों के मजे ही मजे हैं..एकदम हंड्रेड परसेंट! मतलब तब ये चहकते हुए कह रहे होंगे, "देखा! हम न कहते थे..!" ऐसी दशा में, भगत बेचारों को बिल में मुँह छुपाना पडे़गा। मतलब, भगत बेचारों की दुर्गति ही दुर्गति है...एक तो अभी तक युद्ध नहीं शुरू हुआ, दूसरे यदि शुरू भी होता है तो पता नहीं परिणाम, क्या होगा! और इधर बुद्धिवादी मजे पर मजे लिए जा रहे हैं और मजे ले रहे होंगे...। मैं तो कहता हूँ, इन भगत बेचारों से कि, पाकिस्तान से भले ही पंगा ले लो मगर इन बुद्धिमानों से पंगा मत लेना, नहीं तो, ये कहीं फँसा ही देंगे..।
निष्कर्षतः हम तो भाई मान लिए हैं कि, कुल मिलाकर यह युद्ध तो छिड़ ही चुका है ; भगत वर्सेज अदर में! और अपने-अपने तरीके से! इनके बीच में यह युद्ध ही "बोन आफ कंन्टेंशन" बन चुका है, अब पाकिस्तान गया तेल लेने..!
हाँ तो, मैंने फैन तो चला ही दिया था, इसकी ठंडी-ठंडी हवाओं में ऐसे ही "बोन आफ कंन्टेंशन" का तलाश भी करता जा रहा था...तब तक टी वी की एक समाचार पट्टी पर निगाह पड़ी जिसमें कोई सुपरस्टार "अपने फैन से नाराज हुए" धीरे-धीरे सरक रहा था! दिखा।
इसे पढ़ते ही मैंने अपने सिर के ऊपर चल रहे फैन को देखा, बेचारे अपने गति में चले जा रहे थे और मेरे ऊपर ठंडी-ठंडी हवाएँ फेंकते जा रहे थे...सिर के ऊपर की इनकी चाल से मेरे शरीर की गर्मी नियंत्रित हो रही थी..और ठंडी हवाओं के प्रभाव में सोचा, "अब भला मैं अपने इस फैन पर क्यों नाराज होऊँ...!! लेकिन, ये सुपरस्टार महोदय अपने फैन से न जाने क्यों नाराज हुए! हो सकता है, हो सकता है...फैन लोगों ने सुपरस्टार से धक्कामुक्की कर दिया हो...लेकिन भाई, फैन तो फैन ठहरे, आखिर आपको सुपरस्टार बनाया है, धक्कामुक्की करने का इतना हक् तो उनका बनता ही है..! और फिर, फैन सिर पर ही तो चढ़कर बोलते हैं.." हाँ, मैंने ध्यान दिया मेरा भी फैन हाई और लो वोल्टेज के चक्कर में सिर के ऊपर ही रह-रहकर घर्र-घर्र कर जाता था...बस अन्तर इतना ही है कि हम अपने-अपने फैन से अपने-अपने तरीके से आनंद उठाते हैं ; जैसे मेरा अपना फैन मुझे ठंडई का अहसास करा रहा था जबकि उनके फैन उन्हें गरम कर रहे होंगे, और वो इस गर्मी के चक्कर में अपने फैन से अपने सुपरस्टारी का आनंद उठाते-उठाते कुछ ज्यादा ही गरम हो गए होंगे, तो नाराज हो बैठे होंगे। मतलब यह भी कि सुपरस्टारों के फैन गरमी देते हैं। खैर, हम जैसे लोग, फैन के ठंडी हवाओं भर से संतोष कर लेते हैं, वो गरमी देते भी नहीं।
बेचारे, इन सुपरस्टारों की बड़ी शामत है! इनके फैन हैं कि अपने फैनई से बाज नहीं आते, गरमी ही देते जाते हैं, और खामियाजा बेचारे सुपरस्टार को भुगतना पड़ता है! चलो हो सकता है, वह समाचार वाला सुपरस्टार, फैन की धक्कामुक्की से परेशान होकर नाराज हुआ हो। लेकिन, यदि कोई सुपरस्टार, बोन आफ कंटेन्शन के चक्कर मे पड़ जाय तो फिर पूँछो मत...कभी-कभी तो उसे मैदान भी छोड़ना पड़ जाता है। बात यह होती है कि जब सुपरस्टार अपने फैनों के फैनई से गरम हो जाते हैं तो फैलने लगते हैं, फिर यहीं से वे स्वयं, बोन आफ कंन्टेंशन बन जाते हैं।
मैं तो कहुँगा...कि...सुपरस्टारों को कभी भी अपने लाईकर्स-ग्रुप के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए नहीं तो "बोन आफ कंन्टेंशन" के चक्कर में फँसकर किसी व्यंग्यकार की भाषा में कहें तो इनकी "मरन" है..!! पाकिस्तान की तो बाद में जो होगा सो होगा ही...
वैसे इस लिखने को आज की #मनचर्या मान सकते हैं, किस दिन मन कैसा सोचा, इसे भी तो #दिनचर्या का ही हिस्सा माना जा सकता है। आज बस इतना ही..अब खाना खाकर सोएंगे...कल की कल देखी जाएगी।
चलते-चलते...
अपने-अपने फैन से बच कर रहो, नहीं तो ये,..बोन आफ कंन्टेंशन..आप ही को बना देंगे...
--Vinay
#दिनचर्या 15/21.9.16
हड़बड़ाहट
शनिवार, 17 सितंबर 2016
कवि सम्मेलन और हिन्दी
समाज की परवाह
इस वर्ष अच्छी बारिश होने से मंदिर के सामने का बड़ा सा तालाब भी भर गया है। अभी हम यहाँ के चौकीदार से यही सब बातें कर रहे थे कि पास के गाँव का एक साठ-पैंसठ की उम्र का व्यक्ति जानवर चराते-चराते आ गया था। हमारे साथ श्रीमती जी भी थी। अचानक उन्होंने हमसे पूँछ लिया कि यह मंदिर कब बना होगा तो मैंने उन्हें बताते हुए कहा कि खजुराहो के मंदिर जब बने होंगे उसी के आसपास या उससे थोड़ा पहले बने होंगे। असल में यह मंदिर आठवी-नौंवी सदी में बना था। अभी हम यह बातें कर ही रहे थे कि वह चरवाहा बोल उठा, "अरे! खजुराहो तो हम पहले गये हते..देखै लायक नहीं.." फिर इस व्यक्ति ने खजुराहो के मंदिरों को बनाने वालों को तमाम गालियों से नवाजने लगा था, हाँ..गालियाँ भी ऐसी कि खजुराहो की मूर्तियां ही शर्मा जाएं! उसकी गालियों को सुनते हुए मैंने सोचा, "हम आम भारतीयों का चरित्र ऐसा ही होता है...खजुराहो की मूर्तियों से शर्म तो आती है लेकिन, ऐसी गालियाँ बकने में कोई शर्म नहीं...!" खैर.. मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया।
हाँ..फिर इस व्यक्ति ने ओरछा का जिक्र करते हुए बताया कि वहाँ बहुत अच्छा स्थान है, वहाँ का मंदिर देखने लायक है। हरदौल के मंदिर के बारे में बताते हुए उसने हरदौल की कहानी सुना...असल में जुझार सिंह और हरदौल दो भाई थे। जुझार सिंह बड़ा था। हरदौल जब पैदा हुआ तभी इनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। उस समय जुझार सिंह की पत्नी यानी हरदौल की भाभी ने हरदौल को अपना दूध पिलाते हुए पाला-पोसा। बाद में, युवा होता हरदौल ताकतवर और सुन्दर था। जुझार सिंह के कुछ खास मंत्री उसके बढ़ते प्रभाव से चिन्तित से हो गए थे। तब इन लोगों ने जुझार सिंह के कान भरने शुरू कर दिए कि हरदौल का अपनी भाभी यानी जुझार की पत्नी के साथ अवैध रिश्ता है..और जुझार सिंह ने अपनी पत्नी के हाथों हरदौल को जहर खिलवा दिया..। मतलब हरदौल अपनी भाभी के हाथों जहर खा लिया। हाँ... चरवाहे ने आगे यही बताते हुए कहा....
"मंत्री-अन्त्री रहईं ओनके...उनने चुगली कर देई...कहई, मैंने अपनी आँखों से देखा है..और फिर भी...जुझार सिंह न मानो! तब भी चुगली करत-करत उनने कर दिया...और हरदौल ने कहा..मैं जिन्दा न पूरा करता रहा तो, मरने पर इनका क्यों पूरा करता रह ना?" (शायद हरदौल का आशय यही था जो बात जिंदा रहते सच नहीं थी तो मरने पर कैसे सच हो जाएगी..!)
इसके बाद चौकीदार ने आगे इसी में जैसे जोड़ते हुए हमें समझाने के अंदाज में कहा, "जब खा नहीं रहा था जहर तो उसमें यो हो जाता कि ये बात सच्च है.. इससे उनके मन में कि मैं जहर खाऊँ...मर गये..." मेरे फिर पूँछने पर कि जहर किसने दिया तो उसने कहा, "भाभी से दिलवाया"!
मैंने कहानी सुनी...सोचता रहा...