शनिवार, 17 सितंबर 2016

कवि सम्मेलन और हिन्दी

              मेरा भी कवि सम्मेलन का ऐज ए श्रोता होने का अपना अनुभव है - 
   
          कवि सम्मेलन की शुरुआत पूरी तरह औपचारिकताओं के साथ हुई, श्रोता बेहद उत्साह में थे। गीत, वीररस, हास्य-प्रधान कविताओं का रसास्वादन लेते रहे। इस काव्य-मंच की अध्यक्षता एक नामी कवि महोदय द्वारा सम्पन्न हो रहा था। कवि-गण अपनी कविता पाठ के पहले इस कवि सम्मेलन के मंचाध्यक्ष का चरण-वंदन करना नहीं भूलते थे। कुछ कवि अध्यक्ष महोदय की प्रशंसा में उन्हें फॉरेन रिटर्न भी बता रहे थे, गोया जैसे हमारी हिन्दी भी कभी-कभार यूएनओ घूम आती है। 

        एक बात है, कवि लोग चुहलबाजी पर चुहलबाजी करते जा रहे थे, कवि सम्मेलन में पढ़ी जा रही कविताएँ हमें "सधुक्कड़ी-कविता" लग रही थी। भाषा के रूप में नहीं, भाव और शैली के रूप में मेरे भी एकदम समझ में आ रही थी ये सधुक्कड़ी-कविताएँ। 
          
         हाँ...सधुक्कड़ी पर मुझे याद आया....उन दिनों मैं हिन्दी में नया-नया था..! मतलब बोलने में नहीं, लिखने में..! मैं ठहरा ग्रामीण स्कूल में पढ़ने वाला...तब शहर में पढ़ने वाले एक शहरी लड़के के अनुरोध पर उसके लिए दहेज पर निबंध लिखा, जिसे उसे अपने स्कूल में दिखाना था। दूसरे दिन स्कूल से लौट कर आने पर मैंने निबंध के बारे में पूँछा, तो उसने बताया कि उस निबंध को मास्टर जी ने "सधुक्कड़ी भाषा" में बताते हुए रिजेक्ट कर दिया है। उस निबंध में दहेज लोभी को गाय-भैंस की संज्ञा दे दी थी।
          हालाँकि, तब मैं सधुक्कड़ी भाषा का बहुत मतलब नहीं समझता था। बड़ी कक्षाओं में जाने पर जब मतलब समझा तो एक दम संस्कृतनिष्ठ पर उतर आया था। एक बार संस्कृतनिष्ठ के चक्कर में मेरे परीक्षा में अंक ही कम आ गए थे। 
          ऐसे ही श्रोता-गण कविता सुनने में मस्त थे कि काव्य-मंच के अध्यक्ष महोदय के काव्यपाठ की भी बारी आ गई। अध्यक्षता कर रहे कवि महोदय, जैसे कि कवि सम्मेलनों की रवायत होगी कि मंच के अध्यक्ष सबसे अन्त में कविता पाठ करते होंगे, सबसे अंत में कविता -पाठ करने को उठे। अपनी गरू-गम्भीर वाणी में उन्होंने काव्यपाठ आरम्भ किया। मैं देखता रहा, इसी के साथ पांडाल में रह-रहकर हलचल सी हो जाती। मुड़कर देखता तो कोई न कोई उठ कर जा रहा होता। उनका काव्य-पाठ समाप्त होते-होते पांडाल लगभग खाली हो गया था।
            मैं भी उठ खड़ा हुआ। चलते-चलते कहीं से आवाज आई इन कवि महोदय ने तो एकदम बोर ही कर दिया...मैंने कहा, "नहीं भाई, इनकी कविताओं में गहरे अर्थ छिपे हुए हैं, इनकी कविता को समझने के लिए दिमाग की जरूरत होगी।" इस पर अगला बोला, "अब इतना दिमाग भी खाली नहीं है कि बैठकर इनकी कविता समझी जाए।" 
         हाँ..हम अपनी हिन्दी को ऐसी न बनाएं कि लोग हमारे हिन्दी के पांडाल को छोड़-छोड़ कर जाने लगें क्योंकि आज के जमाने में अब लोगों में इतना धैर्य और समय नहीं है कि आपकी भाषा के शब्दों का मतलब खोजते फिरें। हाँ, भाषा भाखा होती है, सधुक्कड़ी-वधुक्कड़ी कहना भाखा का अपमान है, और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी भी भाखा नहीं होती। उसपर भी नम्बर कम आएँगे। ज्यादा शास्त्रीयता के चक्कर में पांडाल खाली हो जाएगा। 
           -  विनय

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