रविवार, 25 सितंबर 2016

चक्र

          बड़ी विचित्र स्थिति है मेरी #दिनचर्या को लेकर!  यह भी अजब का झमेला पाल लिए हैं..लिखने में आलस लगता है और न लिखें तो मन कचोटने लगता है..हाँ, यह मेरे लिए झमेलई तो है..! लेकिन फुराखरि में, इस दिनचर्या को लेकर मेरे लिए एक बात तो है, वह यह कि इसी बहाने मैं आप से बात भी कर लेता हूँ..एकतरफा ही सही..!

          आज स्टेडियम जाने में थोड़ी देर हो गई..स्टेडियम जाते समय ऐसा लगा जैसे, आज टहलने वालों में उतना उत्साह नहीं है.. रास्ते में ज्यादा लोग भी नहीं दिखे..बड़ी समस्या है! भीड़ होने पर भी परेशानी और न होने पर भी परेशानी..हाँ, ग्रुप वालों से भेंट नहीं हुई.. वे लोग मेरे काफी आगे थे और मेरी चाल भी कम थी...आज एक चक्कर मैं, कम टहला भी...उनसे भेंट होती तो एकाध जुमला सुनने को मिल ही जाता, क्योंकि टहलते हुए उनकी बतकही निर्वाध रूप से जारी रहती है!

          लौटते समय रास्ते पर, मेरे आगे तीन-चार लोग चले जा रहे थे आचानक उन सभी की चाल धीमी हुई उनमें से एक वहीं खाली पड़ी जमीन की ओर इशारा करते हुए कुछ दिखा सा रहा था..उनके बगल से आगे बढ़ते हुए उनकी बातें मैंने सुनी, "अभी यहाँ कबाड़ वाले अपनी पन्नी रख दें तो उन्हें कोई नहीं हटाएगा..लेकिन हम रख दें तो तुरन्त फेंक दिया जाएगा..।" दूसरा बोला, "कोई पट्टा-वट्टा हो सकता है, हुआ हो.." कुल मिलाकर खाली पड़ी सरकारी जमीन पर कब्जे के लिए इनका लार टपकता हुआ सा प्रतीत हुआ। मैं उनसे आगे निकल गया था। 

         आज सबेरे चाय पीने का मन नहीं हो रहा था...लेकिन यह सोचकर कि चलो चाय पी ही लिया जाए फिर चाय बनाई, अखबार आ चुका था, पढ़ने बैठ गए। 

 

          पहले पृष्ठ पर जबर्दस्त विज्ञापन से भेंट हुआ बाल लहराते हुए माडल किसी कम्पनी की स्कूटी पर बैठ अपने सपने सच कर रही थी। दूसरे पेंज पर किसी शुगर टेबलेट का पूरे पेंज पर प्रचार था। मतलब प्रचार में दो पेंज चले गए थे...ऐसा लगा जैसे अखबार के पैसे देकर हम प्रचार खरीदते हैं। बाकी पेंजों में भी आधे-तीहे प्रचार ही थे। यह प्रचार तंत्र का अपना अर्थशास्त्र है और हम इस तंत्र में चाभी भरनेवाले लोग।

           एक स्थानीय समाचार की छोटी सी हेडिंग "हिंदू युवा वाहिनी ने जलाया पाकिस्तान का झंडा" को देखा। जैसे, देशभक्ति का ठेका यह लोग ले रखे हैं, यह हेडिंग देशभक्ति का साम्प्रदायीकरण करती प्रतीत हुई, इस देश की यही समस्या है। पत्रकारिता, जैसे इन बातों को समझती ही नहीं। नकारात्मकता का दंश लिए हुए बेमतलब की महत्वहीन बातों को हेडिंग बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है। 

             फिर सरकारी काम निपटाने में लग गए...एक गाँव चले गए थे... गाँवों में लोगों की हालत यह है कि गरीबी का रोना रोकर लोग सरकारी योजनाओं को झटकने के फिराक में पड़े रहते हैं और दिनभर में पच्चीस रूपए का गुटखा खा जाते हैं। किसी भी गाँव में यह किसी एक व्यक्ति की बात नहीं, गाँव में हर तथाकथित गरीब मजदूर की यही कहानी है और पूँछने पर कहते हैं, "इसलिए खाते हैं कि इससे समय बीत जाता है"। गजब! समय काटने का भी यह भी एक तरीका है! हमें तो पहली बार पता चला कि यह भी समय बिताने का एक तरीका होता है। अब समझ में आया कि  यह देश तमाम विडम्बनाओं से भरा देश है। 

        बस इतना ही। 

        चलते-चलते -  कभी बहुत पहले लिखा था -

          चारों ओर पसरा विज्ञान है 

           विज्ञान से 

            टीवी है 

             टीवी में नेता है

              नेता का भाषण है 

               भाषण का प्रभाव है 

अखबार है 

अखबार में शब्द है 

शब्द में विज्ञापन है 

विज्ञापन में प्रचार है 

प्रचार में छिपा बैठा 

लोकतंत्र है 

रूपया है 

रूपया से 

टीवी है 

अखबार है 

विज्ञापन है 

प्रचार है 

लोकतंत्र है 

सबका चुनाव है 

चुनाव का चक्र है 

चक्र में चाभी देता 

लंगोटिया यार है। 

           हाँ, आज की #दिनचर्या खतम।

 

              --Vinay 

               #दिनचर्या 16/22.9.16

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