गुरुवार, 8 सितंबर 2016

ऐंठन

              एक चीज बताएँ! आज सुबह कुछ जल्दी मने पाँच बजे निकल गए थे, पर्याप्त अँधेरा था, स्टेडियम में भी उतने लोग नहीं दिखे जितने कि अन्य दिनों में होते थे। सोचा नौकरी-पेशा वाले इतवार की छुट्टी मना रहे होंगे। लेकिन एक चक्कर के बाद कार वाले ग्रुपबाज लोग आ गए और तीसरा चक्कर पूरा होते-होते रोज की भाँति वाला दृश्य उपस्थित हो गया। अकसर मैं भी इतवार नहीं मना पाता..हमारे साथ समस्या यह है कि काम करने की अपेक्षा काम करते हुए दिखना अधिक जरूरी होता है। खैर...
               आवास पर लौट कर आया तो आज #दिनचर्या लिखने से मन विदकने लगा...असल में सुबह वाली बात मैं सुबह ही लिख डालना चाहता हूँ....इतवार पर परिवार के साथ न होने की टीसती पीड़ा के साथ मन विदक कर कहने लगा कि "क्या तमाशा है, वही बात रोज-रोज, ये निकले, वो मिले, ये चक्कर, वो चक्कर, ये देखा, वो देखा..! जैसी एकरस बातें? कोई नई चीज, नई बात देखी-सुनी हो तो चलो ठीक है, लिख डालो, लेकिन ऐसे एक ही बात लिखना तो ठीक नहीं.." अब मन की बातों से मैं डर गया और आज दिनचर्या लिखने की बात लगभग टाल ही दिया था। वैसे भी दिनचर्या लिखने का कौन सा बवाल पाल लिया..?
                इसके साथ ही मैंने सोचा, वे कितने खुशकिस्मत होते होंगे कि रोज-रोज की उन्हीं चीजों में से नई-नई बात निकाल लाते हैं! वे वास्तविक लेखक होंगे! इधर एक दिन श्रीमती जी भी गुस्से में कह बैठी थी कि "आप बड़े बेवकूफ हो..यदि इतने बड़े लेखक होते तो छप-छपा गए होते...! इस तरह से कोई भी व्यक्ति लिखना चाहे तो लिख सकता है" फिर उन्होंने छोटे पुत्र को उद्धृत करते हुए कहा था "वह सही कहता है कि, प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर लेखक छिपा होता है..हर कोई लिख सकता है" मतलब इसके बाद मेरे "लेखकीय गुण" को गैरजिम्मेदारी का तमगा दे दिया गया था। कुछ-कुछ तो इस बात का भी असर था कि मैं आज रोजमर्रा टाइप की बात लिखने से कतरा रहा था।
                  लेकिन एक बात है, अपन को किसी नशा-पाती का लत नहीं है, नौकरी से खाली होने पर समय नहीं गुजरता, तो यह ऊट-पटांग ही सही, लिखने के लिए जी कुलबुलाने लगता है..! इसी कुलबुलाहट में सोचा, अपने रोजमर्रे की बातों में यदि कुछ न मिले तो साथ में अपने मन की बात भी शामिल कर सकते हैं.. अब अपने प्रधानमंत्री जी भी तो मन की बात करते हैं.. सो दिनचर्या लिखने का तो एक बहाना भर है..! वैसे हम बंधन वालों के लिए मन की बात कहना खतरे से खाली नहीं.. रोटी के लाले पड़ने के संकट खड़े हो सकते हैं..!
                    अब चाय तो पीते ही हैं, सो चाय बनाई.. पिया..और अखबार पढ़ा.. (वही रोजमर्रा टाइप जैसी बात)।
                    हाँ, दैनिक जागरण पर नजर पड़ी तो जैसी मेरी कहानी वैसी ही अखबार की कहानी..! मतलब इसमें भी तो वही-वही रोज जैसी बातें.. लेकिन अखबार पढ़ना छोड़ नहीं सकते..! मान लीजिये ऐसे ही लिखना भी होता है। 
         
                   आज अखबार की जिस पहली खबर ने मुझे प्रभावित किया उसपर मैं लिख नहीं सकता...कोई किसी को सामाजिक रूप से यदि डिफेम करना चाहे तो डिफेम होने वाला क्या करेगा? निश्चित रूप से डिफेम करनेवाले के प्रति उसकी भी प्रतिक्रिया खराब होगी.. ऐसे ही एक बार जब किसी ने उसे डिफेम करने की कोशिश की तो, उसने प्राथमिकी दर्ज करने के लिए सम्बन्धित को सूचित कर दिया था। बाद में डरा-सहमा आरोप लगाने वाला व्यक्ति ने अपनी गलती को स्वीकार भी किया। इसी प्रकरण में जब सहायक ने उससे कहा, "साहब! FIR करवा कर सबक सिखा दीजिए।" तो वह चुप लगा गया था, और बाद में उसने अपने सहायक से कहा, "यार देखो, ठीक है, मैं FIR तो करा सकता हूँ, लेकिन कहने वाली बात से भी, कोई कहने वाला, कहने से डर जाएगा!  हमारी नीयत ठीक है, तो कहने वाला कहता रहे..कहने से कोई फर्क नहीं पड़ता..।"

                   हाँ, कुछ ऐसी ही बात थी...ठीक नीयत वालों को डरना नहीं चाहिए। ठीक है कि कोई जिम्मेदार व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी निभाने में कहीं चूक सकता है, लेकिन यदि उसकी नीयत ठीक है तो यह चूक भी क्षम्य हो सकती है।
                   वास्तव में, कहने वालों से सुननेवाला तभी डरता है जब सुनने वाले के नीयत में खोट हो!" लेकिन, सुननेवाला भी बेचारा क्या करे?  जब इस देश की जनता ही आँख मूँदकर कहनेवालों पर विश्वास करने लगती हो..!
                 कुल मिलाकर इस पहली खबर का लब्बोलुबाब यही निकलता है और पढ़ने से पता चला कि नाहक ही कहने वाला मारा भी गया..!
                  इस खबर से निपटे तो, जैसे पहली खबर की प्रतिक्रिया में ही छपी, आज की मेरे को प्रभावित करती दूसरी हेडिंग थी, "भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में तत्काल सुधार की जरूरत" जो मेरे ध्यानाकर्षण का सबब बनी। पता नहीं संसद या विधायिका में यह ध्यानाकर्षण का सबब बनती होगी या नहीं..? वैसे यदि बनती होती तो अमेरिका का एक शीर्ष थिंक टैंक भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में तत्काल सुधार करने की बात न कर रहा होता या फिर हो सकता है अमेरिका भारत से अपनी हाल की दोस्ती निभा रहा हो.. खैर जो भी हो।
                    वास्तव में भारतीय नौकरशाही को जनता के प्रति जवाबदेह नहीं बनाया गया है। वह अंग्रेजों के जमाने की ही भाँति कुछ चुनिंदा व्यक्ति या संस्थाओं के प्रति अपने को जबावदेह मानकर काम करती है। जैसे कि, अंग्रेजों के जमाने में इस नौकरशाही के माध्यम से अंग्रेज आम भारतीय जनता को गुलाम होने का एहसास दिलाए रहते थे और बेखटके इतने विशाल देश की सत्ता अपने हाथ में कब्जियाए थे। इसके बावजूद स्टील-फ्रेम का तमगा पाकर यह अपने उसी ऐंठन में रहती है। वास्तव में इसके लिए भी अंग्रेजों से उधार में मिला लोकतंत्र ही दोषी है। अगर इस लोकतंत्र ने इसके ऐंठन को दूर करने की भी कोशिश की तो यह संविधान का गुलाम न बन यह नौकरशाही "लोकतंत्र" की गुलामी करने पर उतर आई, और इसने ऐसी "हायार्की" ओढ़ रखी है कि जबावदेही भी सदैव नीचे से ऊपर की ओर ही जाते दिखाई देती है, इसी में उत्तरदायित्व की अवधारणा गुम होकर रह जाती है।
                    यह #दिनचर्या की बातें हैं, आज अभी तक हिन्दुस्तान नहीं मिला है, नहीं तो उसकी भी बातें लिखते। लिखा थोड़ा लम्बा हो रहा है, इसलिए इसे प्रकाशित करने और शेष दिन की गतिविधि जोड़ने का इन्तजार नहीं कर सकते। कोई नई बात होगी तो आपको फिर बता देंगे। 
                                                                                                               -- Vinay 
                                                                                                               #दिनचर्या 5/4.3.16

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