मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

मूर्खता के दराज में

          वैसे, मूर्खता लेखन-कला टाइप एक बुद्धिमत्ता पूर्ण कृत्य है। तो, मूर्खता अपने आप में एक बुद्धिमत्तापूर्ण कला है। विश्वास मानिए! यदि कोई अपने को लेखक मानकर बुद्धिमान समझता है तो यह उसकी एक बड़ी भूल होगी। घर में तो निश्चित ही उसे मूर्ख समझा जाता होगा। यही नहीं, कई बेचारे भावुक कवियों को तो घर के अलावा बाहर वाले भी मूर्ख मानकर ही इनकी चुटकी लेते देखे जा सकते हैं।वैसे ये कवि बेचारे बेहद भावुक किस्म के जीव होते हैं और भावुकता अपने आप में मूर्खतापूर्ण बुद्धिमत्ता ही होती है। तो, लेखकों में मूर्खतापूर्ण ढंग की बुद्धिमानी होती है। इसी वजह से कवियों, खासकर मंचीय कवियों की लोग अजीब ढ़ग से तफरी भी लेते हुए देखे-सुने जाते हैं!

       और हाँ, लेखन कला में आजकल व्यंग्य का बड़ा जलवा है, यहाँ प्योर बुद्धिमानी दिखाई देती है। मतलब प्रत्येक व्यंग्यकार आज सबसे बड़ा बुद्धिमान है। अब जो सबसे बड़ा बुद्धिमान होता है हम उसे क्या कहेंगे! निश्चित ही वह मूर्खता के पायदान से होते हुए बुद्धिमानी के आसन तक पहुँचा होगा। प्रत्येक व्यंग्यकार अपने में जेम्सवाट टाइप का ही होता है। लेकिन मैं किसी भी व्यंग्यकार की टेढ़ी अंगुली से घी निकलता नहीं देख पाता। बेचारे ये लाख सरोकारी बनें, केवल छप-छपाकर खप जा रहे हैं और घी खाने वाले अपनी तईं घी खाते जा रहे हैं। यहाँ बुद्धिमत्ता और मूर्खता सब गड्डमड्ड टाइप का हो रहा है।

        तो, यहाँ इति सिद्धम यह कि, मूर्खता एक तरह से बुद्धिमत्ता की पूर्वपीठिका ही होती है, और दोनों एक दूसरे में ऐसे मिले होते हैं जैसे दूध में पानी। कुल मिलाकर दोनों कोरे हो ही नहीं सकते। कुछ लोग अपने हिसाब से इसमें मिलावट करके इसका फायदा भी उठाते हैं, मतलब, अवसरानुकूल मूर्ख या बुद्धिमान हो लेते हैं। उदाहरण यही कि एक मेरे गऊ टाइप के बेचारे जानने वाले हैं, वो दंद-फंद जैसे बुद्धिमत्तापूर्ण झंझट से बचे रहना चाहते हैं और अपनी भावभंगिमा तथा हाव-भाव ऐसे बनाए फिरा करते हैं कि कोई पहली नजर में ही उन्हें मूर्ख घोषित कर दे। और ऐसे में कोई इन्हें दंद-फंदी काम सौंपता भी नहीं, और ये महाशय अपनी मूर्खता के किस्से मुझसे मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बताते हैं। इसी तरह एक सज्जन और हैं जो बढ़-चढ़कर अपनी बुद्धिमानी का डंका बजाते रहते हैं, वे अपनी इसी बुद्धिमानी के बल पर सारे दंद-फंदी काम हथिया लेते हैं, और अकसर काम की बढ़िया सलाह भी देते रहते हैं, लेकिन बहुत सारे लोग उनकी इस बुद्धिमानी से खफा होकर कभी-कभी उनकी मूर्खतापूर्ण बुद्धिमत्ता की चर्चा हमसे कर बैठते हैं। अब मेरी समस्या यह होती है कि हम मूर्खता को बुद्धिमानी माने या बुद्धिमानी को मूर्खता! हमारे तो समझ में ही नहीं आता कि इसमें मूर्खता कहाँ छिपकर बैठ गई है।

        अब आते हैं एक अन्य स्थिति पर, एक साहब एक सज्जन को जबरन मूरख साबित करने पर तुले हुए हैं और वे सज्जन ऐसे कि अपनी मूर्खता छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं। यहाँ कुछ-कुछ अंगुली टेढ़ी कर घी निकालने का मामला बनता दिखाई देता है। लेकिन घी जमा नहीं तो कैसे निकले! सज्जन बेचारे अपने नजरिए से पिले पड़े रहते हैं और साहब अपने नजरिए से, जैसे दोनों एक दूसरे के नजरिए को समझना ही नहीं चाहते या फिर समझते हुए नासमझी। मतलब, यहाँ इन दोनों की बक-झक में कोई तीसरा इन्हें मूर्ख ही समझ बैठेगा, लेकिन बात ऐसी है नहीं वे दोनों अपने-अपने में बेहद बुद्धिमान जीव हैं, दोनों अपने-अपने छिपे मन्तव्य को छिपाकर कहना चाहते हैं, लेकिन खुलकर नहीं कह रहे होते और बात नहीं बनती है। कहने का मतलब मूर्खता अप्रकट टाइप की बुद्धिमानी ही होती है।

      मैं इसे मूर्खता की पदवियों से सिद्ध कर सकता हूँ, वह क्या है कि एक बार पढ़ाई के दौरान हम कुछ मित्रों के बीच मूर्खता की पदवियों का निर्धारण हो रहा था पम्पलेट में मैंने अपना नाम सबसे नीचे पाया, जबकि मूर्खशिरोमणि, मूरखाधिराज, महामूर्ख आदि पदवियाँ दूसरे मित्र ले उड़े थे। मूर्खता के लिए इस पदवी निर्धारण से मुझे बड़ी कोफ्त हुई और मैं मायूस सा हो गया, तभी मैंने समझा था कि मैं कम बुद्धिमान हूँ इसीलिए मूर्खता के सबसे निचले पायदान पर रखा गया हूँ। और उधर मूर्खता के सबसे ऊँचे पायदान पर आरूढ़ मित्र अपनी मूर्खता पर इतराते हुए इस खुशी में पार्टी देने की तैयारी करने लगे थे। अब आप ही तय करिए कि मूर्खता बुद्धिमानी की प्रतीक नहीं तो और क्या है..!

            अब आपसे एक अन्य टाइप की मूर्खता का जिक्र करना चाहते हैं तब कक्षा सात-आठ में पढ़ रहे होंगे। हमारे साथ पढ़ रहे हमारे एक सहपाठी के पिता कई महीनों बाद बम्बई से आए थे और मैं अपने सहपाठी से इस खुशी में मिठाई खाने का जिद कर बैठा। खैर, हम चवन्नी-अठन्नी वाले तब मिठाई कहाँ से खरीद पाते, लेकिन मेरी भी जिद बरकरार रही और ऐसे ही दो-तीन दिन गुजर गया था। तभी वे मेरे सहपाठी, एक-दो और मित्रों के साथ मेरे समक्ष मिठाई खिलाने का प्रस्ताव ले आए और मुझे क्लास रूम में ले आए। फिर एक डेस्क की ओर इशारा करते हुए बोले, “आपके लिए मिठाई यहाँ रखे हैं, ले लो..” और इधर मैंने भी मिठाई खाने की खुशी में आव देखा न ताव डेस्क की दराज में हाथ डालकर मिठाई निकाल झट से मुँह को समर्पित कर लिया। बस क्या था, सहपाठियों के हँसी के फव्वारे फूट पड़े थे। बाद में हँसने का कारण यह बताया गया कि दरअसल जिस मिठाई को मैंने खाया था उसे किसी अन्य छात्र ने छिपाकर रखा था। तब मैंने समझा मेरे सहपाठी मेरी मूर्खता पर हँस रहे थे। लेकिन मैंने बिना किसी से कहे अपनी मूर्खता का विश्लेषण किया और उन मित्रों से कहा “यार चाहे जो हो, मिठाई बहुत ही स्वादिष्ट थी आप सब ने ऐसी मिठाई अब तक नहीं खाई होगी!” मुझे एहसास हुआ कि इसके बाद उनके चेहरे पर कौतूहल के भाव आ गए थे और हँसी थम चुकी थी, इधर जिस मूर्खता पर मैं अन्दर ही अन्दर लज्जित सा था वह मेरी बुद्धिमानी में बदल चुकी थी। मतलब यही कि मूर्खता के फायदे भी होते हैं और जो फायदा पहुँचाए वही बुद्धिमानी भी होती है!

      खैर, एक अनायास टाइप की मूर्खता होती है जिसमें लेना-देना कुछ नहीं होता, वह कौतूहल से उपजने वाले कृत्य से सम्बन्धित मूर्खता होती है, इस मूर्खता में बुद्धिमानी खोजना रह गया है, लेकिन हो सकता है इसमें भी जेम्सवाट वाली बुद्धिमानी छिपी होती हो…!

         निष्कर्षतः मूर्खता नाम की कोई चीज नहीं होती मूर्खता बुद्धिमानी का एक स्तर ही होता है।

       अन्त में, जब आप मूर्खता जैसे विषय पर लिखे मेरे इस आलेख को पढ़ेंगे तो दो बातें समझ में आएंगी..जैसा कि अमूमन व्यंग्य में होता है ; या तो मेरी लिखी बात आपके समझ में आयेगी या नहीं आएगी। अगर आप पढ़कर मेरी बात को समझ जाते हैं तो यह मेरी मूर्खता है और यदि नहीं समझते हैं तो फिर यह मेरी बुद्धिमानी का पर्याय है..! वैसे धीरे से मैं आपको बताना चाहता हूँ कि पढ़ने के बाद मैं भी नहीं समझ पाया कि मैंने क्या लिखा है..?

        

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