कोई भी संस्कृति तलवार के बल पर कायम नहीं रखी जा सकती। तलवार के बल पर कायम संस्कृति में केवल बूचड़खाने की ही संस्कृति पनपती है, जो शायद किसी भी सभ्य समाज को स्वीकार नहीं होगा। संस्कृति तो तर्कों की स्वतंत्रता में पल्लवित होती है और इससे जो श्रेष्ठतम निकलता है वही सर्वमान्य बन जाता है तथा बहुत सारे मजाक समय की गर्त में खो जाते हैं। हमारी संस्कृति में देवताओं का मजाक उड़ाना कोई नई बात नहीं है, हमारे बीच वेद को न मानने वाली दार्शनिक विचारधारा भी रही है और इसके प्रति किसी हिंसक विरोध का इतिहास भी नहीं मिलता।
हमारे यहाँ सत्य को चतुष्कोटिविनिर्मुक्त कहा गया है, मतलब हम अन्तिम सत्य को इन तर्कों से होते हुए ही पाते हैं। वाकई, बौद्ध दर्शन में भी माध्यमिक शून्यवाद का प्रतिपादन वेदों के चार तर्को के आधार पर ही किया गया है, यही नहीं जैन दर्शन मे भी "अनेकान्तवाद" हमारी तर्क प्रणाली का सर्वोत्तम उदाहरण रहा है ।
यहाँ गीता का यह श्लोक भी द्रष्टव्य है-
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।१६।।
"असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सतका अभाव नहीं है । इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व, तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है ।"
अर्थात, कहने का आशय यही है कि हम भाव, अभाव, अभावाभाव और भावाभाव के परे जाकर चरम सत्य को खोजने का दर्शन प्रस्तुत किए हैं। सच तो यह है, जिस सनातन संस्कृति की बात हम करते हैं उसका आधार वेद, उपनिषद और वेदान्त की दार्शनिक विचारधारा ही रही है और इसके बिना सनातन संस्कृति का कोई अस्तित्व ही नहीं। फिर अब क्यों एक छोटी सी बात हमें अपनी मान्यताओं पर खतरे के रूप में दिखाई देने लगी है?
एक बात और, जिसे हम सनातन सभ्यता कहते हैं इस सभ्यता में हमें एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहाँ किसी की हत्या उसकी किसी विचारधारा को लेकर की गई हो। जबकि युरोपियन सभ्यता में सुकरात को भी विष का प्याला पीना पड़ा था। हम अपने देवी देवताओं के जिन अस्त्र-शस्त्रों का बखान करते हैं वह भी अन्याय के ही विरुद्ध था न कि किसी वैचारिक विरोधी की हत्या के लिए।
"हम भारत पर गर्व करते हैं" आखिर ऐसा क्यों? क्या हम भारत की गरीबी पर गर्व करते हैं ? या अमानवीय जातीय भेदभाव वाली व्यवस्था पर गर्व करते हैं? या फिर हम अपनी काहिली पर गर्व करते हैं? नहीं हम इन सब पर गर्व नहीं करते। हम गर्व करते हैं अपनी भारतीयता पर और अपनी सर्व समावेशी संस्कृति पर ! शायद हम भारतीयों की यही जमापूँजी भी है नहीं तो, हम आज तक अपने देश को क्या दे पाये हैं..? ये हमारे देवताओं के गिनाए जा रहे अस्त्र-शस्त्र भी इस भारत की गरीबी, भुखमरी, जातिवाद, असमानता, भ्रष्टाचार, को मिटाने के काम नहीं आ रहे हैं। इन भोथरे अस्त्रों से अब किसी धर्मस्थापना का युद्ध नहीं लड़ा जा सकता क्योंकि ये भोथरे हो चुके हथियार मात्र सुविधाभोगियों के लिए ही रह गए हैं। यदि ये हथियार काम आए होते तो भारत हजार वर्षों की पराधीनता में न जकड़ा रहा होता।
भाई मेरे ,यह कहना बौद्धिकवाद नहीं है वास्तविकता है, धर्म के हथियार से लोगों को केवल कुछ दिनों तक बरगलाया जा सकता है और धर्मस्थापना इसके बल पर होती भी नहीं। भारत में भारतीयता यदि आज भी बची है तो आम मेहनतकश रोजमर्रा की साधारण सी सहज जिन्दगी जीने वालों के ही कारण ही, बाकी संकट में ये अस्त्र-शस्त्र उठाने की बाते करने वाले लोग पीछे दुबक जाते हैं या फिर गुलछर्रे उड़ाने की जुगत भिड़ा लेते हैं, उदाहरणार्थ, अंग्रेजों के समय यही सुविधाभोगी वर्ग गुलामी का कारण रहा है। तो..
बस हमारी यही चिन्ता है कि हम मात्र एक सम्प्रदाय भर बनकर न रह जाएं। एक साम्प्रदायिक सोच में जकड़े हुए हम वैज्ञानिक सोच, मानवीयता, वैचारिक स्वतंत्रता और तार्किकता से कोसों दूर होते चले जाएंगे, जैसा कि जब से हमने अपने दर्शन को धर्म में बदला है तब से देख रहे हैं और इस चक्कर में हम किसी नए वैज्ञानिक सोच को फिर नहीं जन्म दे पाए हैं..!!!
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