कोई मेरे भगवान को भला-बुरा कहे तो भी मेरा खून नहीं खौलता... शायद, मैं कायर तो नहीं...? लेकिन नहीं मैं अपने को कायर नहीं समझता...क्योंकि मैं जिस भगवान को मानता हूँ.. वह अपनी निन्दा या प्रशंसा से तनिक भी प्रभावित नहीं होता...वह समभाव बना रहता है..! मेरा भगवान..बस हो सकता है, इन बातों को देख-सुनकर मुस्कुराता भर हो...!! मैं अपने भगवान की इस अदा का कायल हूँ....इसीलिए, जब कोई मेरे भगवान को गाली देता है, तो मेरी भक्ति मेरे भगवान में और दृढ़ हो जाती तथा गाली देने वाले की ओर देखकर मैं भी बस मुस्कुरा देता हूँ...
..... अगर हमारे अन्दर स्वयं की आलोचना सुनने का माद्दा नहीं है तो हम दूसरों की आलोचना किस मुँह से कर सकते हैं...? फिर तो, यदि कोई अपनी खराबी को ही अपनी अच्छाई मान रहा हो और इसे वह अपनी भावना का विषय बताए तो हम उसकी आलोचना कैसे कर सकते हैं? क्योंकि तब उसकी भी भावना आहत हो सकती है! हमें चीजों को व्यापक नजरिए से देखना चाहिए। हमें भावना आहत होने के तर्क को न मानते हुए अपने मत को स्थापित करने के लिए ठोस तर्क प्रस्तुत करने चाहिए। अन्यथा, हम वैचारिकता के अन्धकूप में अपने को ढकेले हुए पाएंगे, जैसा कि आज दुनियां में अपनी भावनाओं को लेकर छेड़े गए हिंसक संघर्षों में हम देख सकते हैं।
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