बहुत दिन बाद अपने गाँव जाना हुआ था..उस
दिन फुर्सत का दिन था...! सूर्य अस्ताचल की ओर था..हाँ..याद आ गया कि इधर कई
वर्षों से सीवान की ओर नहीं गया था..अपने खेतों को तो लगभग मैं भूल ही चुका
था..मिट्टी से अपनेपन की लालसा जागी तो नहर की पटरी पकड़े सीवान की ओर चल दिया.. ‘सीवान’ शब्द का प्रयोग तो केवल मैं अपनी इस लेखनी
में कर रहा हूँ वैसे बचपन से हम उसे ‘ताल’ ही कहते आये हैं..वह
कई किलोमीटर में फैला निर्जन क्षेत्र है जहाँ लोगों के खेत हैं..आज...मैं सोचता हूँ
कि उसे ‘ताल’ का संबोधन क्यों दिया गया था..तो..बचपन की स्मृतियों पर थोड़ा जोर
डालना पड़ता है..तब उस ताल में आज के जैसे लोगों के खेत नहीं थे...उसका अधिकांश भाग
परती हुआ करता था..और वर्षाकाल में उसका अधिकांश भाग जल से डूबा रहता था..जिसका जल
उसके एक छोर से बहते नाले से धीरे-धीरे निकलता रहता था..यह क्रम वर्षाकाल समाप्त
होने के बाद लगभग कुवार मास के अंत तक चलता रहता था...और आज मनरेगा से ड्रेन की ऐसी खुदाई की गई है कि पानी कब बरसा और कब उस ड्रेन से निकल गया पता ही नहीं चलता...जबकि भू-जल रिचार्ज का रोना रोया जाता है...हाँ...तब उस क्षेत्र में धान के
आलावा यदा-कदा गेहूँ की फसलें ही हुआ करती थी..और वह भी उस ताल में स्थित छोटे-मोटे
तालाबों में एकत्रित वर्षा-जल के सहारे..! लोग 'दुबले' के सहारे सिचाई करते थे..बचपन
में एक बार मेरे परिवार के एक बुजुर्ग ने हम बच्चों को एक कहानी सुनाई थी कि कैसे
उसी ताल में एक भूत के साथ उनके किसी पूर्वज ने रात भर दुबला चलाया था..! इस कहानी
के याद आने पर मेरे चेहरे पर बरबस मुस्कुराहट तैर जाती है...
उस ताल के संबंध में एक बात और याद आती है..हाँ मोहन..! शायद यही नाम रहा होगा उसका..! अपनी बाल्यावस्था में मैंने प्रतिदिन प्रातः मोहन को पशुओं के एक बड़े समूह को उसी ताल में ले जाते हुए देखा करता था.....दादा जी कहते थे कि पशुओं को वह ताल में चराने ले जाता है.. और सायं इसी प्रकार वह पशुओं के समूह को लेकर वापस लौटता था..तब दादा जी उसे देखते हुए कहते थे कि देखो गोधूलि की बेला हो गयी है पशु अब लौट रहे है.. “गोधूलि” शब्द से मेरा परिचय बखूबी उसी समय हुआ था...तब दादा जी ने यह भी समझाया था कि शाम को लौटते पशुओं के खुरों से धूल उड़ती है इसीलिए सायंकाल को गोधूलि बेला कहते हैं...खैर..! अब न तो पशु बचे हैं और न वह ताल बचा है...
उस ताल के संबंध में एक बात और याद आती है..हाँ मोहन..! शायद यही नाम रहा होगा उसका..! अपनी बाल्यावस्था में मैंने प्रतिदिन प्रातः मोहन को पशुओं के एक बड़े समूह को उसी ताल में ले जाते हुए देखा करता था.....दादा जी कहते थे कि पशुओं को वह ताल में चराने ले जाता है.. और सायं इसी प्रकार वह पशुओं के समूह को लेकर वापस लौटता था..तब दादा जी उसे देखते हुए कहते थे कि देखो गोधूलि की बेला हो गयी है पशु अब लौट रहे है.. “गोधूलि” शब्द से मेरा परिचय बखूबी उसी समय हुआ था...तब दादा जी ने यह भी समझाया था कि शाम को लौटते पशुओं के खुरों से धूल उड़ती है इसीलिए सायंकाल को गोधूलि बेला कहते हैं...खैर..! अब न तो पशु बचे हैं और न वह ताल बचा है...
बाद में चक-बंदी आई..! तमाम विवादों
के बाद उसी ताल में गाँव के लोगों के चक काटे गए...जहाँ गाँव के किसानों ने खेती
प्रारंभ कर दिया..उसी समय यह नहर निकली थी.. तब हम बच्चे बड़े कौतूहल से इस नहर की
खुदाई का कार्य देखते थे और खुदे हुए भाग में खूब दौड़ लगाते थे...अब वहाँ न कोई
भूत आता है और न ही दुबला चलाने की जरुरत होती है....इसी नहर के कारण आज उस ताल
में गेहूँ और धान की फसलें बराबर हुआ करती है...उसी नहर की पटरी से आज मैं ‘सीवान’ की ओर चला जा रहा
था..आचानक मेरी नजर नहर की पटरी पर पड़ी अब उस पर मनरेगा से खडंजा भी लगाया जा चुका था
जो कुछ दूर नहर की पटरी से होते हुए गाँव की सीमा से थोड़ा बाहर मुसहरों की बस्ती
की ओर घूम जाती हैं..मन में आया कि गाँव के प्रधान ने खडंजा लगा कर अच्छा कार्य
किया है...दृष्टि मुसहरों की बस्ती की ओर घूमी..आज भी उस बस्ती का रंग ढंग नहीं
बदला था...वही छोटे-छोटे छप्पर वाले घर..! हाँ इंदिरा आवास योजना से बने घर भी
दिखाई दे रहे थे...लेकिन उस बस्ती में चहल-पहल झोपड़ियों की ओर ही थी...फिर...मैं
नहर की पटरी पकड़े हुए आगे ताल की ओर बढ़ता रहा...
हाँ...उस तालाब के पास मैं पहुँच गया था...जो इस नहर की पटरी के बायीं ओर
स्थित है..उस तालाब को मै बहुत गौर से देखने लगा..तब नहर नहीं हुआ करती थी..मेरे
बचपन के दिनों में उस तालाब में सिंघाड़े की खेती भी हुआ करती थी कई बार बचपन में
लगभग दादागीरी तो कई बार चोरी के अंदाज में सिंघाड़े निकाल कर खाए थे..! खैर बाद में
दादा जी के भय से सुधार हो गया..तो..उसके मालिक से सिघाड़े खरीद लिया करता था.. हाँ
तालाब को देखने से एक बात और याद आ गई...तब इस तालाब के भीटों पर बहुत सारे नीम के
पेड़ हुआ करते थे..और इन नीम के पेड़ों पर शाम के समय कौओं के इतने झुंड बैठा करते
थे कि दूर घर से ये नीम के पेड़ काले नजर आते थे..तथा उनका काँव-काँव दूर घर तक
सुनाई पड़ता था..! लेकिन..आज अब वे पेड़ ही नहीं बचे हैं, ले दे कर मात्र नीम के दो
जर्जर पेड़ ही नजर आ रहे हैं वे भी पेड़ों के अवशेष जैसे लग रहे हैं..और कौवे तो
एकदम नदारत..! हाँ..भीटों का भी अवशेष ही बचा है..! अरे..! इस तालाब से थोड़ी ही दूर एक बहुत पुराना भीटा भी था अब वह नहीं दिखाई दे रहा है...उसके बारे में बचपन में कई किवदंतियां भी सुनी है..शायद मिट्टी के माफियाओं ने उसकी मिट्टी को खोद कर बेंच दिया है..सोचा...सियार बेचारे अब अपनी माँद कहाँ बनायेंगे..! इन सब को देखते हुए मैं थोड़ा और
आगे बढ़ गया...उस ताल के दूर..अंतिम छोर की ओर निगाहें चली गयी..देखा कई ऊँची-ऊँची
चिमनियाँ घना काला धुँआ उगल रही थी..हाँ ये चिमनियाँ उस औद्योगिक क्षेत्र की हैं
जो बीसेक वर्ष पूर्व वहां स्थापित हुआ था..जहाँ कई छोटी-बड़ी फैक्ट्रियां स्थापित
हो चुकी हैं...
हाँ.. अब शाम थोड़ी गहराने लगी थी..उन चिमनियों और उस क्षेत्र के भवनों पर
विजली की रोशनियाँ जगमगा रही थी..इन सब को देख पता नहीं मन क्यों नहीं खुश
हुआ..फिर वापस लौटने को हो गया...तो उन महुओं के विशाल पेड़ों की ओर ध्यान चला
गया...जो एक दूसरे तालाब के किनारे स्थित थे..हाँ..याद आ रहा है उसी तालाब पर गुड़ुई के
त्यौहार (नागपंचमी) पर कई बार मैं अपनी बहनों के साथ दादा जी के बनाए रंगीन नीम के
डंडे के साथ गुड़ुई पीटने आया था..और महुए के उन्हीं पेड़ों के नीचे कजरी के गीत
गाते हुए बहनों की याद घनी हो गयी...पर अफ़सोस वे विशाल महुए के पेड़ अब नहीं
थे...बल्कि उनके स्थान पर मनरेगा से एक बड़ा तालाब खुदवा दिया गया था...पता नहीं
क्यों..आखें भर आई...! थोड़ा तालाब के पास जाकर देखा तो खुदाई से निकले मिट्टी के
भीटों पर एक छोटी सी झोपड़ी दिखाई दी..सोचा इतने निर्जन में यह झोपड़ी कैसे तो ध्यान
में आया अब इस तालाब में मछली पालन होने लगा है और यह झोपड़ी उसके रखवाले की
है...अब वहाँ गुड़ुई नहीं पीटी जाती...और न ही बहनें कजरी गाने आती हैं...
अब मैं लौट पड़ा पुरानी यादों को मन
से झटक चुका था....अचानक थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर मेरी निगाह जमीन की ओर देखते हुए
ठिठक पड़ी..कारण...वहाँ फावड़े से खुदा हुआ एक छोटा सा गड्ढा दिखा था..लगा जैसे कोई
किसी बिल को खोद रहा होगा...देखा मुसहरों की बस्ती नजदीक थी..याद आ गया बचपन में
मैंने कई बार मुसहरों को इसी तरह गेहूँ की फसलों के कटने के बाद खेतों में बिलों
को खोदते हुए देखा था...और उनसे चूहों को पकड़ते हुए भी देखा करता था..चूहों को वे
पटक कर मार डालते और उसे अपने पास रख लेते थे..बाद में दादा जी ने बताया था कि वे
इसे भून कर खाते है..इसी लिए इनका नाम 'मुसहर' पड़ा है... हाँ..तो क्या इतने वर्षों
बाद भी उनकी वह पुरानी आदत नहीं गयी..? आज भी वे उसी तरह चूहे मार कर खाते हैं...?
हाँ..आज भी उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया है..मैंने आज तक नहीं सुना कि मेरे गाँव
के उस मुसहर बस्ती का कोई बच्चा प्राथमिक शिक्षा को पार किया हो...बल्कि शायद ही
कोई मुसहर का बच्चा हो जो उस बस्ती के थोड़ी ही दूर स्थित प्राइमरी विद्यालय
में...जिसमें मैंने शिक्षा ग्रहण की थी...पढ़ने गया हो..! और तो और..उनके लिए बने
इंदिरा आवास निर्जन पड़े हैं वे उसमें नहीं रहते..पता नहीं क्यों उन्हें अभी भी
झोपड़ियों में ही रहना पसंद है...कई बार पूँछने पर किसी अज्ञात भय या भूत का डर
मानते हुए वे उन बने इंदिरा आवासों में नहीं रहना चाहते...हाँ खेत उनके पास नहीं
है..किसी-किसी मुसहर परिवार को एकाध विस्वा भूमि ग्रामसभा ने पट्टा कर रखा
है...लेकिन उनमें वे खेती भी नहीं करते...हाँ आज भी रोज कुआं खोद कर पानी पीने
जैसी उनकी पुरानी आदत बरकरार है...संचय की कोई प्रवृत्ति उनमें नहीं आ पाई है...
हाँ याद आ गया आज ही तो पिता जी ने कहा था कि अरे..! धान की रोपाई के लिए
खेत तैयार होना है लेकिन ‘हरी’ अभी तक नहीं आया है..हरी और कोई नहीं बल्कि तीसों
साल से हमारे खेतों का काम देखने वाला पुराना...नौकर तो नहीं कहेंगे...और न ही
हलवाहा..क्योंकि अब तो हल बैल तो है नही..हाँ उसका काम यही होता है कि वह समय-समय
पर मजदूरों को पकड़ कर खेती का काम करा दिया करता है...और छिट-पुट अन्य छोटे-मोटे
काम कर दिया करता है..कई बार जब पिता जी उसके काम की लापरवाही से नाराज होकर खेतों
को बटाई पर दे देने की बात उससे कहते हैं तब वह कामों में थोड़ी तेजी दिखाने लगता
है...लेकिन आजकल वह कुछ अधिक ही पीने लगा है...पीते-पीते अब वह अपने स्वास्थ्य के
प्रति भी लापरवाह हो चुका है..पिता जी ने बताया कि उसमें अब चोरी करने की आदत भी
पड़ चुकी है...बाद में जब उसने सुना कि मैं गाँव आया हूँ तो मुझसे मिलने आया
था...मैंने उसे कुछ रुपये भी दिए हालाँकि पिता जी ने कहा था कि वह इन रुपयों को
पीने में खर्च कर डालेगा..यह सब सुन कर मुझे बड़ा दुःख हुआ मेरे बचपन के दिनों में
वह ऐसा नहीं था...सोचने लगा शायद यही कारण है कि ये अल्पायु में ही गुजर जाते हैं
तभी तो मेरे देखते-देखते इसकी तीन पीढ़िया गुजर रही है...बाद में पिता जी ने बताया
कि आजकल मनरेगा में काम करता है..कभी-कभी बिना काम किए भी पैसा पा जाता
है..मेठगीरी भी करता है...और बी०पी०एल० का अनाज भी पाता है...तो मेहनत क्यों
करेगा..!
खैर..कुछ भी हो इन मुसहरों की स्थिति में आज भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं
आया है...वही आदिवासियों जैसा रहा-सहन किसी तरह की कोई आर्थिक सोच नहीं..जब तक
झोपड़ी में खाने के लिए कुछ है तब तक काम पर भी जाने से कतराते हैं..बीमारी को आज
भी भूतों का चक्कर मानते हैं...इनका विकास कैसे होगा..यह मनरेगा,
अन्त्योदय,बी.पी.एल. आदि जैसी योजनाएँ इनमें बदलाव क्यों नहीं ला पाई हैं..
सोचता जा रहा था...सरकारों ने इन्हें जनजाति का दर्जा क्यों नहीं दिया...साँझ अब गहरा चुकी थी..हाँ इनकी बस्तियों की ओर फिर निहारा..अँधेरा गहराया हुआ था...फैक्ट्री की चिमनियों के काले घने धूएँ इस मुसहर की बस्ती के ऊपर भी काले साए की तरह दिखाई देने लगे थे....दो-चार-एक बिजली के बल्व अपनी रोशनी वहाँ बिखेर रहे थे...और..कोई लाउडस्पीकर से बम्बइया फ़िल्मी गाने भी बजा रहा था...इनकी मनोवृत्ति कैसे बदलेगी इनकी इस स्थिति के लिए कौन दोषी है...सोचते-सोचते मैं घर की ओर बढ़ गया..
सोचता जा रहा था...सरकारों ने इन्हें जनजाति का दर्जा क्यों नहीं दिया...साँझ अब गहरा चुकी थी..हाँ इनकी बस्तियों की ओर फिर निहारा..अँधेरा गहराया हुआ था...फैक्ट्री की चिमनियों के काले घने धूएँ इस मुसहर की बस्ती के ऊपर भी काले साए की तरह दिखाई देने लगे थे....दो-चार-एक बिजली के बल्व अपनी रोशनी वहाँ बिखेर रहे थे...और..कोई लाउडस्पीकर से बम्बइया फ़िल्मी गाने भी बजा रहा था...इनकी मनोवृत्ति कैसे बदलेगी इनकी इस स्थिति के लिए कौन दोषी है...सोचते-सोचते मैं घर की ओर बढ़ गया..
कल जिले के आलाधिकारी मुसहरों के विकास के संबंध में एक बैठक करने वाले हैं
उस बैठक की भी तैयारी करनी है..कुछ रिपोर्टें भी लेनी है...सोचता हूँ अब इस लेखनी
को यहीं विराम दे दें...