उद्धव! मन न भये दस बीस
एक हुतौ सो गयो श्याम संग, को अवराधे ईश|
सूरदास की ये पंक्तियाँ जहाँ भक्ति के सगुण और निर्गुण भाव के आपसी द्वंद्व
को दर्शाती हैं वहीँ गोपियों और उद्धव के उक्त संवाद में गोपियों के ईमानदार मन की
झलक भी मिलती है..वह उद्धव के निर्गुण भक्ति संबंधी किसी ज्ञानोपदेश को स्वीकार
करने के लिए तैयार नहीं हैं...क्योंकि उनका मन तो श्याम की भक्ति में रम चुका
है...तभी तो वे उद्धव से कहती हैं कि मन दस-बीस नहीं होता..मन तो एक ही होता है जो
श्याम संग चला गया है..तो अब किस मन से हम आपके ब्रह्म की आराधना करे..
वास्तव में मानव ही मन वाला होता है और उसका यह मन बड़ा चंचल होता है..! क्या
वह गोपियों के मन जैसा स्थिर हो सकता है..! मानव मन की इसी चंचलता का संकेत
युधिष्ठिर ने मन को सबसे तेज गति वाला बताते हुए यक्ष के प्रश्न का उत्तर दिया
था...मन सदैव भ्रमणशील भौंरे के समान ही होता है..! मन को साधना मानव के लिए असंभव
तो नहीं बल्कि उसके लिए एक दुरूह कार्य अवश्य है...लेकिन सूर की गोपियों ने जैसे
उस मन को साध लिया है..तभी तो उद्धव के तमाम तर्कों के बाद भी उनका मन विचलित नहीं
होता और उद्धव को गोपियों से फटकार सुननी पड़ती है...
आज हम अपने उस एक मन को खंडशः विभाजित कर उसे संदिग्ध बना दिए हैं...इस मन
की विश्वसनीयता पर स्वयं हमें ही संदेह है..कृष्ण भक्ति में लीन गोपियों के जैसे
असंदिग्ध मन की कल्पना हम कर ही नहीं सकते...सभी गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में पागल
हैं..लेकिन यहाँ एक दूसरे के प्रति इर्ष्या-द्वेष नहों है..! वास्तव में मन की यह
शुद्धता ही इस असंदिग्ध मन का कारण है..
बात यहाँ गोपियों के मन की ही नहीं हैं... ‘एक चित्त मन’ की हम आलोचना भी
कर सकते हैं उसे मानव विकास में रोड़ा भी मान सकते हैं..हम गतिशील मन को चेतना का
लक्षण भी कह सकते हैं...लेकिन यदि यह मन ही संदिग्ध हो तो हम क्या कहेंगे...? आज इसी
संदिग्ध मन की छाया सर्वत्र मंडरा रही है...सारे वितंडावाद और समस्याओं की जड़
हमारा संदिग्ध मन ही है....
आइए..! प्रतिदिन के छिपे..! और आज के खुले ‘मित्रता दिवस’ के दिन हम जीवन के
प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक ईमानदार और सही मन की कामना करे जो हम सभी के जीवन को
सुगम और सरल बना दे.....
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