रविवार, 20 अगस्त 2017

टेबल पर दौड़ता काम

          "आप तो, काम करते ही नहीं" बहुत पहले यह जुमला मेरे कानों में पड़ा था। तब मैं आश्चर्य से भर उठा था। क्योंकि इस वाक्य को सुनकर मैं सोच बैठा था, "अरे! यह कैसे हो गया कि मैं काम नहीं करता..? मुझे तो काम करने से तो फुर्सत ही नहीं मिलती...! फिर मुझे यह क्यों सुनाया जा रहा..?" असल में तब से बहुत वर्ष गुजर चुके हैं और इस दौरान यह जुमला मेरे कानों में कई बार टकराया..!
      
         इस जुमले को सुन-सुनकर अब मैं सोचने लगा हूँ कि "काम करना" किसको कहते हैं? और लोगों को कब लगता है कि कोई काम कर रहा है?  अतः अब मैं "काम करने की परिभाषा" पर अधिक मशक्कत करने लगा हूँ..और इसकी साधना के लिए वही स्थान चुनता हूँ जहाँ कोई "काम करना" न हो...
           एक बात और...मेरा अपना अनुभव कहता है...हमारे देश में काम के सिद्धिकरण की प्रक्रिया ही काम होता है और इस प्रक्रिया में काम करने वाला अपने सिद्धिकरण का दायित्व निभा-निभाकर बेलगाम घोड़े की भाँति उछल-कूद करते हुए बहुत खुश होता रहता है। इधर काम करने के पूरे सिस्टम में "वशीकरण-मंत्र" का बहुत जोर होता है... इस एक मंत्र के सहारे यह सारा सिस्टम शांतिपूर्ण और सिस्टमेटिक ढंग से काम के प्रवाह में प्रवाहमान होता रहता है। 
         असल में, शायद यही काम करने की मान्यता भी है..!  किसी छोटी सी टेबल पर काम का जन्म होता है, फिर कोई इसे काम का दर्जा देते हुए दूसरी टेबल पर बढ़ाता है...अगला उसे काम मानता है और इसे फिर थोड़े ऊँचे स्थान पर ठेल देता है, वहाँ इसे काम समझ लिया जाता है, यहीं से संस्तुत हुआ यह "काम" और ऊँचे टेबल पर पहुँचता है, कुछ दिनों तक यहाँ पड़े-पड़े यह अपने "काम" होने के गर्वोन्मत्त भाव से भरा रहता है...इसके बाद यह और हाईलेबल से अनुमोदित होकर इतरा उठता है...क्योंकि उसे "काम" होने की मान्यता प्राप्त हो जाती है!!
         अब जाकर इस काम को धरातल पर उतरना होता है, लेकिन नीचे से ऊपर आते-जाते लाल-फीते में बँधा यह काम, या तो अपनी भागा-दौड़ी में थका हुआ होता है या फिर काम मान लिए जाने की गर्वोन्मत्तता में इसे नीचे उतरना रास ही नहीं आता, या फिर यह नीचे आने की अपनी तौहीनी से बचना चाहता है ! खैर, इस मान्यता प्राप्त काम को लाल-फीते वाली उसी फाइल में रहकर आराम फरमाने का भूत सवार हो जाता है।
         और इधर काम करने के सिद्धिकरण पर सारा जोर लगना शुरू हो जाता है काम को दिखना भी तो चाहिए...! अब यहीं से काम के दिखने-दिखाने और करने, न करने का खेल शुरू होता है। इस खेल में "वशीकरण-मंत्र" की जरूरत पड़ती है, क्योंकि कौन काम कर रहा है कौन नहीं..इसे जाँचने और जँचवाने के लिए इसी मंत्र की जरूरत होती है... इस मंत्र में पारंगत होने वाले ही "काम करने वाले" होते हैं, जो इस मंत्र में पारंगत नहीं होते उन्हें "काम न करने वाले की" सिद्धि प्राप्त होती है, और उन्हें "काम न करने" का जुमला सुनाया जाता है...बाकी काम होते हुए देखने की किसी को फुर्सत नहीं है क्योंकि सभी इस वशीकरण-मंत्र के वशीभूत काम को टेबल पर दौड़ाने में लगे होते हैं..!! 

ये गॉडफादर और उनके लोग

      आज उसे अपने गॉडफादर से मिलना था...असल में, यह उसके गॉडफादर ही थे जिनके कारण वह मनचाही जगह पर तैनाती पा जाता था। इस बार भी उसके साथ ऐसा ही हुआ था। उसे एक बार फिर प्राइम स्थान पर तैनाती मिली थी ! हाँ प्रइम स्थान उसके लिए और कुछ नहीं बस उसकी मनचाही पोस्टिंग हुआ करती है। बस ऐसे ही मनचाहे स्थान पर तैनाती पाकर वह एक प्रकार के वीआईपीपने की सुखानुभूति में डूब जाता था और कभी-कभी लोगों पर अपनी पहुँच का रौब भी झाड़ दिया करता। हालांकि लोग उसे बहुत पहुँच वाला भी मान लिया करते थे..फिर तो उसका खूब रंग जमता था..!! इसी का शुक्रिया अदा करने उसे अपने गॉडफादर से मिलने जाना था। 
        
           उसे याद आया, कभी-कभी उसकी टकराहट अपने जैसे लोगों से हो जाया करती है...जिनके भी अपने-अपने गॉडफादर होते हैं..! आज के युग में तो सभी के गॉडफादर होते हैं..! क्योंकि सभी जागरूक हो चुके हैं। लेकिन जिसका गॉडफादर भारी पड़ता है, वही मनचाही जगह पाता है..! अब ऐसे गॉडफादर वालों की भीड़, गॉडफादरों के लिए भी एक समस्या टाइप की बन चुकी है। खैर... 
       
          हाँ तो..वह अपने गॉडफादर के ठौर पर पहुँच गया था...उसने देखा, उसके जैसे अन्य लोग भी गॉडफादर से मिलने आए थे..हो सकता है सभी उसके जैसा ही प्राइम स्थान पाने की अपेक्षा लेकर आए हों..!! खैर.. जो भी हो, उसे गॉडफादर से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ... 
        
         थोड़ी बहुत हाल-चाल लेने देने के बाद गॉडफादर ने उससे पूँछा, "क्यों भई, लोगों के बीच हमारे काम का मूल्यांकन कैसा है..." 
          गॉडफादर की इस बात पर कुछ पल के लिए वह अचकचाया जरूर, लेकिन अगले ही पल उसके मुँह से निकल गया, "लोग अच्छा नहीं कह रहे हैं..लोगों का सोचना है कि कुछ भी तो नहीं बदला..! सब उसी ढर्रे पर चल रहा है..! मेरी सलाह है, आप कुछ नया सोचिए..नए ढंग का करिए, तभी शायद लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरें..?" पता नहीं यह सब उसके मुँह से क्यों और कैसे निकल गया था..जो नहीं निकलना चाहिए था! असल में ये गॉडफादर टाइप के लोग सही बात सुनने के आदी भी तो नहीं होते..! लेकिन, बात मुँह से निकल चुकी थी, तो इसका असर होना ही था... 
          
          गॉडफादर ने अपने पूरे वजूद के साथ उसे घूर कर देखा था...शायद, उसे अपना पालित होने का अहसास कराते हुए वे बोले थे,  "वाह! सही बात बताई! अब हमें गॉडफादर बनना छोड़ ही देना होगा...तभी हम बदलाव का संदेश दे पाएँगे..." इतना कहते हुए उसके उन गॉडफादर ने उसे जाने के लिए भी कह दिया था..
       
            अब तो, काटो तो खून नहीं टाइप से, वह पशोपेश में था कि क्या गॉडफादर होना ही समस्या की जड़ है या फिर उसके जैसे लोग..! लेकिन इसपर उसे सोचने की फुर्सत नहीं थी, वह फिर से उन्हें मनाने के लिए जुट गया था..क्योंकि वह बखूबी जानता था...प्रयासेहिंकार्येणि सिद्धन्ति...आखिर उसे अपना मनचाहा स्थान भी तो लेना था..!! और नियम भी तो यही गॉडफादर जैसे लोग बनाते हैं...बल्कि कहिए कि नियम ही इसलिए बनाए जाते हैं कि गॉडफादर का गॉडफादरत्व कायम रहे..! और ये नियम को मनमाफिक ढाल भी लेते हैं...!!!

यह कील ठोकना

          उस महीने जब सुबह-सुबह मैंने श्रीमती जी को बताया था कि "इस महीने का इतनई वेतन मिला है" सुनते ही वे भड़क उठी थी..! बोली, "फिर क्या जरूरत है वेतन बढ़ाने का..? एक हाथ से दो और दूसरे हाथ से ले लो...ये सरकारें टैक्स के नाम पर नौकरी-पेशा वालों को ही बेवकूफ बनाती हैं.."फिर मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, "नहीं यार...हम वेतन भोगियों का ऊपरी इनकम से खर्चा बखूबी चल जाता है.. सरकारें यह बात जानती हैं...इसीलिए इनकमटैक्स लगाकर अपना दिया वापस ले लेती है।" इसपर श्रीमती जी ने मुझे गुस्साई नजरों से देखा जैसे कहना चाहती हों "फिर क्यों डरते हो? चलाओ न ऊपरी इनकम से खर्चा..!" लेकिन कहा नहीं और पैर पटकते हुए किचन में चली गई और इधर मैं, मन ही मन सोचने लगा था कि उन्हें कैसे समझाऊँ कि, सरकारों का काम ही टैक्स लगाना होता है, सरकार का अस्तित्व ही टैक्स पर निर्भर करता है, टैक्स सरकार का होना सिद्ध करती है और हम वैसे भी सरकारी वेतनभोगी हैं, वह हमें, अपना दिया जानती है, तो, उसकी वसूली तो हमसे करेगी ही..! क्योंकि यह सरकार जिसको नहीं दे रही है, उसके लिए भी तो उसे कुछ करना होता है..! लेकिन कहने की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि तब वो कहती, "सरकार अपने जिस दिए को न जानती हो, फिर वही करो.! आखिर, वह अपना दिया तो वसूले ही ले रही है..!"
              
           बचपन में साइकिल पर लाल बस्ता लिए जब एक सज्जन हमारे घर आते, तो मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए मेरे दादाजी बताते "सरकार इनसे लगान वसूल कराती है।" मतलब, बचपन में इन्हें देखते ही हमें सरकार की याद आ जाती थी कि, हमारे अलावा कोई सरकार भी होती है, और तब मुझे सरकार पर बड़ा विश्वास होता था। हाँ, दो लोगों को ही देखकर पता चलता था कि सरकार होती है; एक पुलिस और दूसरा ये लगान वसूलने वाले! बाकी और कहीं यह सरकार दिखाई नहीं देती थी। खैर, आज तो चारों ओर सरकार ही सरकार दृष्टिगोचर है...सड़क पर, दुकान पर और यहाँ तक कि घर के चप्पे-चप्पे पर सरकार ने कब्जा जमाता हुआ है..! यही नहीं दवा से लेकर दारू तक यानी जीवन से लेकर मरण तक, अब सब कुछ सरकार की नजर से नहीं बच सकता, मतलब चहुँ ओर टैक्स ही टैक्स..!! बिना टैक्स दिए कल्याण नहीं...
           हाँ, यही सब बताकर मैं श्रीमती जी के गुस्से को शांत करना चाहता था! और उन्हें यह भी बताना चाहता था कि "देखो आज कुछ भी बिना सरकार के संभव नहीं है और अगर तुम्हें सरकार के टैक्स से इतनई गुस्सा है तो चलो फिर किसी जंगल में निवास करते हुए कंद-मूल-फल खा कर जीवन गुजारा जाए...वहाँ सरकार से कोई लेना-देना भी नहीं होगा और न टैक्स का झंझट ही, लेकिन यह भी नहीं कह पाया..!" क्योंकि तब श्रीमती जी कहती,  "अब तो, जंगल भी तो सरकार के कब्जे में है..या फिर, सरकार को टैक्स देने वाले उस जंगल को काट-काट कर अपने टैक्स की भरपाई कर रहे होंगे..ये हमें वहाँ भी नहीं रहने देंगे..!" और फिर वे पैर पटकते हुए मुझसे कहती कि, "अरे जंगल में जाने की बात छोड़ो, सरकार को न जनाने वाले काम करो..जिस पर टैक्स न देना पड़ता हो..जंगल काटने-कटवाने वाले भी यही करते हैं !!" 
        
         मेरे मन में अभी यह उथल-पुथल चल रहा था कि, श्रीमती जी दो कप चाय लेकर मेरे पास आ गई.. हम दोनों साथ-साथ चाय पीने लगे थे... उन्होंने मेरे मायूस चेहरे को निहारा...और मुझसे बोली... "देखो, तुम हमेशा मुझे ही दोष देते हो...तुम्हें याद है न...जब तुम्हारी इस सरकार ने नोटबंदी किया तो, तुम्हारे साथ ही मैं भी कितनी खुश थी..! उस खुशी में, मैं तुम्हारे हर बात में, हाँ में हाँ मिलाती रही... कि...अब जाकर असली समाजवाद आया है..! लेकिन हुआ क्या..? अब फिर सब उसी ढर्रे पर आ चुका है, यहीं तुम्हारे मुहल्ले में ये बड़ी-बड़ी कारें आ गई है..!  कहाँ गया तुम्हारा वह समाजवाद..! और कहाँ गई तुम्हारी सरकार...क्या ये सब बिना सरकार के जाने हो रहा है...आखिर.. तुम्हारे इसी दिए हुए टैक्स से ही यह सब हो रहा है...हाँ, अटके रहो तुम वेतन में..! ... झूँठा गर्व पालते रहो कि मैं तो इतना टैक्सपेयी हूँ..!...हम यहाँ झुँझुवाते रहें..और..लोग हमारे ही दिए टैक्स पर गुलछर्रे उड़ाते रहें...सरकार के चोंचलों को तुम नहीं समझोगे..!!"
        
           वाकई!  मैं श्रीमती जी की बात को बड़े ध्यान से सुनता रहा था...मैं समझ गया था.. पत्नी जी के मन में सरकार को लेकर विश्वास का संकट था..! हम दोनों चाय पी चुके थे। 
         हाँ, इधर जी एस टी भी लागू कर दिया गया है...श्रीमती जी की बात याद कर मन में थोड़ा डर बैठा कि "कहीं यह जी एस टी-फी एस टी सरकार के चोंचले तो नहीं है..!!" लेकिन अपने को थोड़ा सान्त्वना दिया "सरकार को गरीबों के लिए भी तो काम करना होता है..!"
           "बेचारी सरकारों को गरीबों के लिए क्या-क्या पापड़ बेलना पड़ता है..! सैकड़ों साल पहले से यह पापड़ बेलना शुरू हुआ है..!!" सोचते हुए, कहीं पढ़ी हुई यह बात याद हो आई, जब अंग्रेज "लाइसेंस टैक्स" को बदल कर "इनकम टैक्स" बिल लाए थे, तो बाल गंगाधर तिलक ने इसे "लकड़ी में कील ठोकना" बताया था!  मतलब लकड़ी में कील धसानें की भाँति यह टैक्स भी जिसपर लगेगा उसी पर लगता चला जाएगा..!! 
           खैर...इसपर सरकार को मेरी यही सलाह रहेगी कि "भाई सरकार साहब..!! हम लकड़ी तो हईयै हैं, हम पर खूब कील ठोकों और यह जी एस टी-फी एस टी भी ठीक है, लेकिन यही कील हमारे दिए टैक्स पर तथा साथ में अन्य जगहों पर भी ठोकने की जरूरत है... नहीं तो, यही हमारा दिया टैक्स गुलछर्रे में उड़ जाएगा और श्रीमती हम जैसे टैक्सपेयी को झुँझलाते हुए, गाहे-बगाहे चार बात सुनाती रहेंगी..और तुम भी ऐसई टैक्स-फैक्स का पापड़ बेलते रहोगे..!! 

क्रिकेट और बैटिंग

         उस दिन, मेरे वे अन्तरंग मित्र, जिनके साथ बचपन में क्रिकेट भी खेल चुका था, आते ही मुझसे पूँछ बैठे थे, "और क्या हाल-चाल है..बैटिंग-वैटिंग ठीक-ठाक चल रही है न..?" उनकी इस बात पर अचकचाते हुए मैं उन्हें देखने लगा। लगे हाथ वे कह बैठे थे, "भईया..पिच ठीक है, मौका मिला है..पीट लो.."  अब तक मैं उनका मंतव्य समझ गया था। मुस्कराते हुए बोला, "हाँ यार...लेकिन, आजकल आरटीआई, सीबीआई, इनकमटैक्स और नेतागीरी टाइप की फील्डिंग में कसावट थोड़ी ज्यादा ही होती है..बड़ा बच-बचाकर चलना पड़ रहा है..."  "अमां यार हम ये थोड़ी न कह रहे हैं कि हर बाल पर चौका-छक्का जड़ो..! वैसे भी तुम बैटिंग में कमजोर रहे हो...हाँ, एक-एक, दो-दो रन तो ले ही सकते हो..!" मेरे वे परम-मित्र अपनी इस सलाहियत के साथ मुस्कुराए भी।
           इधर मैं चिंतनशील हो उठा था..नौकरी तो ज्यादातर बॉलिंग टाइप करने में ही गुजार दी है। मतलब, गेंदबाजी का ही ज्यादा अभ्यास रहा है और बैटिंग का कम, इसलिए फूँक-फूँक कर, इस नई-नई मिली पिच पर कदम रख रहा था। शायद मेरी इस कमजोरी को ही लक्षित करके मित्र महोदय ने मेरी ऊपरी कमाई पर टांट कसा होगा और इक्का-दुक्का रन लेते रहने की सलाह दे दिया होगा...अभी मैं अपने इसी विचार में खोया था कि उन्हें फिर बोलते सुना-
            "देखो यार...घबड़ाना मत, सट्टेबाजी और फिक्सिंग का जमाना तो हईयै है...गेंदबाजी-फेंदबाजी तो चलती ही रहती है, इससे डरना क्या..! हाँ, थोड़ा-बहुत फिक्सिंग-विक्सिंग भी कर लिया करो।"
         इसके बाद फिर मित्र जी, मुझे हड़काते हुए बोले थे-
         "तुमने नाहक ही अब तक गेंदबाजी में समय नष्ट किया, आखिर कउन गेंदबाज टाटा-बिड़ला बन गया..? अपने सचिन को देखो, बैटिंग के कारण ही तो भारत रत्न ले उड़ा है..आम के आम और गुठलियों के दाम टाइप का पैसा और सम्मान दोनों झटक लिया...जबकि, वहीं गेंदबाज बेचारा पसीना बहाते-बहाते, पता नहीं कहाँ खो जाता है..! क्रिकेट हो या नौकरी, दोनों में बैटिंगइ का खेला होता है, बढ़िया पिच मिल जाए तो कायदे से ठोक लेना चाहिए और अगर तुम बढ़िया बैटर बन गए होते तो, तुम्हारी सात पीढ़ियाँ बैठ कर खाती, सम्मान ऊपर से मिलता। मैं तो कहता हूँ...इसीलिए अपने देश में बैटरों का ही जमाना है, जो जहाँ है वहीं जमे हुए बैटिंग कर रहे हैं..!!"
             अब तक वे इत्मीनान से बैठ चुके थे, हमारी बातचीत आगे बढ़ी। मैंने पूँछा-
            "यह किस बेस पर कह रहे हो कि, अपने देश में बैटरों का ही जमाना है..?"
            "देखो यार, सारे आर्थिक सुधार देश के बैटरों के लिए ही होते हैं, इन सुधारों ने बैटिंग करने लायक बढ़िया पिच भी तैयार कर रखा है...तो,बैटरों का जमाना होगा ही..! समझे?"
             आगे मेरी जिज्ञासु टाइप की चुप्पी देख वे फिर से छाँटना चालू किए -
              "यार.. वैसे भी ले देकर अपना देश, एक ही खेल खेलता है, वह है क्रिकेट, और वह भी, जानते हो क्यों..? क्योंकि, अपना देश आलसियों का देश रहा है...आराम से खड़े रहो और खेलते भी रहो..न हुचकी न धम-धम और खेल भी लिए..! और इसमें भी बैटिंग के क्या कहने, परम आलसी ही अच्छी बैटिंग कर पाता है। इसीलिए तो कहता हूँ, क्रिकेट ही इस देश के लिए सबसे मुफीद गेम है और आजकल, ऊपर से बढ़िया आर्थिक सुधार जैसे कार्यक्रम बैटिंग का माहौल बनाए हुए है..!!"
            यह सब सुनते हुए मैं मित्र को घूरे जा रहा था, इसे भांपकर उनने फिर कहा-
           "जानते हो अपना देश, भ्रष्टाचार में क्यों आगे है...?"
            "अरे यार अब इसमें भी क्रिकेट घुसेड़ रहे हो..?" मैंने कहा।
            "नहीं भाई, आलस..! अगर हम आलसी न होते तो, मेहनत करते, मेहनत की दो जून की रोटी खाते। दिनभर टीवी के सामने दीदे फाड़कर किरकट न देखते। खैर, तुम्हें अब अवसर मिला है..फालतू की बातों में न पड़ो..ढंग की बैटिंग कर लो..तुम्हारे जैसे सब इसी में लगे हैं..।"
           
          उनकी बात का मर्म में समझ रहा था। लेकिन मेरा ध्यान भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट-मैच पर अटका हुआ था। इनमें से कौन जीतेगा ? मुझे इस बारे में चिन्तित देख दार्शनिक टाइप से समझाते हुए वे बोले-

           "छोड़ यार! यह खेल नहीं धंधा है...फकत तीन घंटे का शो है...इससे ज्यादा कुछ नहीं..वही छक्का-चौका और वही बॉलिंग-फील्डिंग..! इससे ज्यादा कुछ नहीं...देशभक्ति की थोड़ी घुट्टी पिए होने के कारण उत्तेजना बढ़ जाती है...नहीं तो, बाकी और कुछ नहीं इस क्रिकेट के खेल में। टास होगा तो, चित या पट में से एक तो आएगा ही...क्रिकेट का मैदान मार लेने से देश महान थोड़ी न हो जाएगा..! उस पर ससुरे ये टीवी वाले उत्तेजना फैला-फैला कर विज्ञापन कमाते हैं... हमीं तुम हैं कि चियर लीडर बने फिरते हैं..!!"
           मित्र की बात अभी समाप्त ही हुई थी कि टीवी के स्क्रीन पर "खेल-भावना" की दुहाई देते हुए कोई ऐंकर कुछ कह रहा था.. मित्र जी यह सुनते ही बिफर पड़े-
           "देखा..! इन ससुरों को क्रिकेट मैच होने के पहले खेल-भावना याद नहीं आई..हारने पर अब खेल-भावना याद आ रही है...इनका धंधा जो हो चुका..!!"
            क्रिकेट का खेल अब तक खत्म भी हो चुका था और मित्र के चक्कर में पूरा खेल देख नहीं पाया था। खैर, इसलिए मेरी खेल-भावना भी बरकरार रही। इधर मित्र के जाने के बाद, नौकरी के पिच पर फील्डरों से बचने के लिए सफल बैटिंग के गुर पर चिंतन-मनन करने लगा था।