गुरुवार, 26 अगस्त 2021

स्वप्निल इंटरव्यू

इंटरव्यूकर्ता - जी, आप लेखक हो?

मैं - जी नहीं, मैं लेखक नहीं हूं।

इंटरव्यूकर्ता - लेकिन आप लिखते तो हो!

मैं - हां लिखता तो हूं।

इंटरव्यूकर्ता - तो आप कैसे लेखक नहीं हुए?

मैं - हां मैं वैसे ही लेखक नहीं हुआ।

इंटरव्यूकर्ता - वैसे ही कैसे?

मैं - ऐसे कि, वैसे मैं लिखने के लिए नहीं लिखता।

इंटरव्यूकर्ता - ऐसे कैसे हो सकता है? साहित्य तो लिखने के लिए लिखने से ही बनता है! 

मैं - तो मैं साहित्य कहां रच रहा हूं!  

इंटरव्यूकर्ता - तो क्या रच रहे हैं आप?

मैं - अरे भाई मैं अपना सुख रच रहा हूँ

इंटरव्यूकर्ता - वह कैसे?

मैं - ऐसे कि लिखने से मुझे सुखनुभूति होती है।

इंटरव्यूकर्ता - ओह! तो आप स्वान्त:सुखाय टाइप के रचनाकार हैं?

मैं - जी आपने सही पकड़ा!

इंटरव्यूकर्ता - फिर तो आप साहित्य के साथ अन्याय कर रहे हैं। ऐसे कि आप केवल अपने लिए लिखते हो और पाठक को उपेक्षित करते हो जबकि लेखक को पाठक की दरकार होती है, इस पर आप क्या कहेंगे?

मैं - वैसे आज पाठक की जरूरत ही कहां है, फेसबुक पर नहीं हैं क्या आप? क्या आप मानते हैं कि जो लिखने के लिए लिख रहे हैं, वे पाठक को दृष्टि में रखकर लिख रहे हैं? बल्कि वे इसलिए लिख रहे हैं कि वे बता सकें कि उन्होंने यह लिखा है या वह लिखा है या फिर वे लेखक हैं, यह बताने के लिए लिखते हैं।

इंटरव्यूकर्ता - आप उल्टा हमसे प्रश्न क्यों कर रहे हैं, इंटरव्यूकर्ता मैं हूं कि आप? 

मैं - आप ही हैं, लेकिन क्या आप गारंटी देते हैं कि लिखने के लिए लिखने वाले के पाठक होंगे ही?

इंटरव्यूकर्ता - क्यों नहीं होंगे, जरूर होंगे, अरे जब लिखा जा रहा है तो पढ़ा भी जा रहा होगा.. इसमें गारंटी देने की कौन सी बात है।

मैं - देखिए इंटरव्यूकर्ता महोदय! इसमें होगा..होंगे की बात नहीं है, फुल गारंटी देने की बात है! आप देते हो तो कहो हाँ और नहीं तो कहो नहीं!!

इंटरव्यूकर्ता - देखिए, गारंटी तो किसी बात की नहीं दी जा सकती।

मैं - लेकिन मैं दे सकता हूं! और वह भी डंके की चोट पर!!

इंटरव्यूकर्ता - क्या दे सकते हैं आप???

मैं - यही कि लिखने के लिए लिखने वाले का पाठक हो या न हो, लेकिन स्वान्त:सुखाय के लिए लिखने वाले का पाठक जरूर होता है!!

इंटरव्यूकर्ता - वाह महोदय! अपने मुंह मियां मिट्ठू मत बनिए! और यदि ऐसा है तो वह कैसे?

मैं - अरे महोदय, यह तो स्वत:सिद्ध है कि जब मैं स्वान्त:सुखाय के लिए लिख रहा हूं तो जरूर इस सुख की प्राप्ति के लिए मैं अपनी रचना छपवाता हूं, इस छपे को देखता हूं और इसे पढ़ता भी हूं! इसीलिए पहले ही मैंने कहा दिया है कि मैं अपने लिए सुख रचता हूं, साहित्य नहीं!!

इंटरव्यूकर्ता - अच्छा..इसका तात्पर्य यह है कि आप महान साहित्यकार बनने की दौड़ में शामिल नहीं हैं?

मैं - देखिए! यह दौड़-औड़ की बात मैं नहीं जानता, यह आपका मत हो सकता है मेरा नहीं। कौन महान बनेगा कौन नहीं यह भी भविष्य के गर्त में है।

इंटरव्यूकर्ता - आपके कहने का आशय है कि आप भविष्य में महानता की श्रेणी में जा सकते हैं?

मैं - अरे भाई क्यों नहीं! यदि पत्नी जाने दे!

इंटरव्यूकर्ता - इसमें बीच में पत्नी कहां से आ गई?

मैं - जैसे हुलसी और विद्योतमा आई थी। पत्नियां किसी को भी तुलसी या कालिदास बना सकती हैं।

इंटरव्यूकर्ता - अपने लिए यह संभावना आप कहां तक पाते हो?

मैं - देखिए, स्वान्त:सुखाय टाइप के लेखन में 'तुलसीत्व' के प्राप्ति की संभावना छिपी होती है। इस टाइप के लेखन से पत्नी भले चिढ़ती हो लेकिन ऐसे लेखन में महान बनने का भविष्य सुरक्षित है। इस संभावना को बरकरार रखने के लिए ही इस टाइप का मेरा लेखन है। 

इंटरव्यूकर्ता - ऐसा लगता है पत्नी की बात करके अपने निजी जीवन पर प्रश्न करने की छूट प्रदान की है, तो क्या मैं आप से पूँछ सकता हूं कि पत्नी से कोई आपका अनबन चल रहा है?

मैं - देखिए! हर पत्नी वाले का पत्नी से अनबन चलता रहता है, क्योंकि बिना उसकी अनुमति के आप एक पत्ता भी नहीं खड़का सकते! अब यही देखिए, पत्नी की उपस्थिति में मैं अपना यह स्वान्त:सुखाय वाला लेखन नहीं कर सकता, उसे देखते ही मैं चुपचाप मोबाइल को परे खिसका देता हूं!     

इंटरव्यूकर्ता - अच्छा अन्त में एक प्रश्न और वह यह कि साहित्य में पुरस्कार के बारे में आपकी अवधारणा क्या है?

मैं - देखिए स्वान्त:सुखाय के लेखन में पुरस्कार की अवधारणा फिट नहीं होती.. मैं यहां एक बार फिर कहुंगा कि इसके पीछे 'तुलसीत्व' की अवधारणा काम करती है। लेकिन फिर भी मैं आपको विश्वास दिलाता हूं पुरस्कार से सुखानुभूति की आवश्यकता पड़ने पर मंडली में शामिल होने से गुरेज नहीं! आज के जमाने में कहां नहीं सेंधमारी की जा सकती। फिर आजकल तो बड़े-बड़ों को फेसबुक पर गप्पें मारते इठलाते और इसपर मिलते आह या वाह पर मदमाते देखता हूं, यह किसी पुरस्कार से क्या कम है!! तो, फिलहाल मेरा इरादा अभी फेसबुकिया होने पर ही अधिक है।

इंटरव्यूकर्ता - (दर्शकों से) तो जैसा कि अभी आपने देखा और सुना, हम एक ऐसी शख्सियत से रुबरु हुए जो लिखने के लिए नहीं लिखता और न यह बताने के लिए ही लिखता है कि वह लेखक हैं, इसलिए वह अपने को पुरस्कारों की दौड़ में भी नहीं पाता। बल्कि वह इस बात की गारंटी देता है कि उसके लिखे का कोई दूसरा पाठक हो या न हो, लेकिन कम से कम वह स्वयं अपने लिखे का पाठक तो है ही.. जबकि आजकल किसी लेखन का पाठक खोजना कितना मुश्किल भरा काम है!! हम कह सकते हैं, इस शख्सियत में लेखन और पाठन दोनों तत्व मौजूद हैं, कोई विरला ही इनका समकालीन होगा!! इसलिए हम इनकी पत्नी से अपील करते हैं कि ऐसे महान संभावनाओं वाले लेखन को महानता की ओर ले जाने में, उनके साथ यदि हुलसी का नहीं तो कम से कम विद्योतमा वाला व्यवहार जरूर करें और मोबाइल पर लेखन करते समय इन पर व्यंग्योक्तियों का प्रहार न करें, क्योंकि इन महाशय में लेखन और पाठन की अद्भुत संगति है।

     इस इंटरव्यू के समाप्त होते ही नींद टूटी। मैं समझ गया कि स्वप्न ने हमें मूर्ख बनाया है। इधर पंखा भी तेजी से गतिमान था, इससे हमें ठंड लगने लगी थी। समय देखने के लिए मोबाइल टटोला तो वह तकिए के नीचे मिला। सुबह हो चुकी थी, फिर भी एक बार और चद्दर तान लिया था।

सिस्टमपंथी

       देश-भक्त ही देश की चिंता कर सकते हैं। मेरे इस कथन पर मुझे दक्षिणपंथी घोषित करते हुए उन्होंने कहा, "देशभक्त हुए बिना भी देशहित की चिंता की जा सकती है।" और फिर यह कहते हुए, "अरे हां भा‌ई! ये तंत्र-मंत्र शक्तिधारी ही देश-भक्त हैं...बाकी हमां-सुमां तो रियाया हैं..हम डाइरेक्ट देश के काम थोड़े ही न आ सकते हैं, देशभक्तों को अपनी पीठ पर ढोना ही हमारी देशभक्ति है! एक बात कहूं..! इस तंत्र-मंत्र ने देश का बेड़ा ग़र्क कर दिया है..दिखाते रहिए अपनी देशभक्ति.." कमरे से बाहर चले ग‌ए। मुझे अपनी देशभक्ति पर थोड़ी शर्मिंदगी जैसी फीलिंग आई। सोचा, आखिर कलाकार भी तो अपनी भावनानुरूप ही मूरत गढ़ता है, तो देशभक्त हुए बिना देश की मूरत कैसे गढ़ी जा सकती है? फिर तो देशभक्त होना भी एक कलाकारी ही है, चूंकि सरकारें देशभक्त होती हैं इसलिए छेनी-हथौड़ा से नहीं, अपने तंत्र से देश को गढ़वाती हैं। मुझे क्षोभ हुआ कि राष्ट्र की मूरत गढ़ने वाले इसी कलाकार-तंत्र को वे महाशय गाली देकर चले ग‌ए थे।

       उल्लेखनीय है कि मेरे ग्रेजुएशन के दिनों में राजनीतिक विषय के रूप में देशभक्ति की ख्याति नहीं थी। इसका ढिंढोरा भी नहीं पीटा जाता था और न ही इसमें कोई प्रतियोगिता थी। इसे मूर्खता का पर्याय भी नहीं माना जाता था। हाँ, खेती-किसानी की इज्जत न तब थी और न अब है। क्योंकि देशभक्तों की वैरायटी में मेहनतकशों की गणना न पहले थी और न आज है‌। लेकिन किसान देशद्रोही भी नहीं हुआ करते थे‌। इधर देश के स्टेनलेस स्टील फ्रेम जैसे तंत्र में जुड़ने वाले सफल अभ्यर्थियों के ऐसे वक्तव्यों से कि, इस फ्रेम से जुड़ने पर देश की अच्छे से सेवा करने का खूब अवसर मिलता है, मैने निष्कर्ष निकाला कि फावड़ा-कुदाल या खेती-किसानी में जिंदगी भर पसीना बहाने की बजाय देश की प्राॅपर तरीके से सेवा करने के लिए सरकारी-तंत्र के फ्रेम वाला प्लेटफार्म चाहिए। स्पष्ट था कि किसी ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे के वश में देशसेवा जैसा पवित्र कार्य नहीं, इसके लिए बड़ा बनना होता है। और बड़े लोग ही देशहित के पवित्रनुमा कार्यों को सिस्टमेटिक ढ़ग से सुगम और फलवान बनाकर निपटाते हैैं। फ़िलहाल मुझे देशभक्ति, देशसेवा और सिस्टम के अन्तर्सम्बन्धों द्वारा बड़ा बनने की प्रक्रिया समझ में आ गई थी। अंततः मैंने कम्पटीशन-वम्पटीशन फाइट करना शुरू किया और आयोग ने मुझे भी स्टील फ्रेम का एक छोटा पुर्जा बनाकार बड़ा बनाने वाले कामों को अमलीजामा पहनाने का अवसर प्रदान किया।

      लेकिन उन दिनों की अपनी भावुकता पर मुझे तरस आती है। संयोग से उस वक्त देश में सूखा भी पड़ा था। इथियोपिया से लेकर भारत तक सूखे से लोग बेहाल थे। शायद वह तस्वीर, जिसमें भूख से हड्डी की ठठरी बनी एक जीवित अफ्रीकी बच्ची को एक गिद्ध ताक रहा था, उन्हीं दिनों की है। आज भी जब-तब वायरल होती इस तस्वीर से वह गिद्ध-दृष्टि याद आती है। उस अकाल-काल में किसानों की पीड़ा देख मेरी भावनाएं द्रवित होकर बूंद की तरह सहसा उछल पड़ी थी। यह सच है, जब जोर की भावुकता आती है तो आदमी कविता करने की ओर भागता है और मैं भी उसी ओर भागा था। मैंने अपनी कविता में बादलों से बरसने का आह्वान किया, हे बादल आओ बरसो/ कुछ तो दे जाओ/ खेत हमारे और हम प्यासे हैं/ हलक सूख गया है/ यह पीड़ा है प्यासे इस तन-मन की। लेकिन मुझे यह सोचकर हँसी आती है, यदि मेरी कविता की भावुकता में बहक कर बादल बरस पड़ते तो सूखे की आपदा का क्या होता? जबकि आपदा में मिलने वाले बजटीय डोजों से उत्पन्न देशभक्ति में राहत के काम शुरू होते हैं, जिसके परिणाम देश ही नहीं विदेश में भी पहुंचते हैं। अखबार में छपे इस सर्वे कि लाॅकडाउन की अवधि में स्विटजरलैंड के खातों में भारतीयों ने खूब धन जमा किए जो दुनियां में सर्वश्रेष्ठ है, से इसकी पुष्टि होती है। इसीलिए मैं मानता हूँ कि अकाल-काल में उपजी मेरी वह कवित्व-भावना देशप्रेम नहीं, देशद्रोह वाली थी। जो सूखा खत्म कराके देशभक्तों को बूस्टर डोज जैसे उनके प्राप्तव्य से वंचित कराने जैसा था। खैर अब मुझे भावुकता पसंद नहीं, क्योंकि यह आदमी को अंधा बना देती है, इसमें पड़ा व्यक्ति नफा-नुकसान की नहीं सोच पाता।
 
        वैसे तो सिस्टममय सब जग जाना। लेकिन सरकारी सिस्टम की बात ही निराली है। इसके बगैर देश का बेड़ा ग़र्क हो जाए! इसमें आकर 'मदर इंडिया' का भगवान और शैतान के बीच वाला इंसान, आवश्यकतानुसार वह जो है वह न होने की और जो नहीं है वह हो जाने की अपनी क्षमता से सिस्टम के गुड-बुक में नाम दर्ज कराकर दोनों से भी उच्च कोटि का हो जाता है। जो भी हो, देश के काम आने वाली ऐसी तंत्रात्मक शख्सियतें दक्षिणपंथी ही मानी जाएंगी। यहां महत्वपूर्ण है, जो तंत्रात्मक नहीं वह देशभक्त भी नहीं, चाहे वह दक्षिणपंथी ही क्यों न हो! लेकिन लोकप्रियता की श्रेणी हांसिल कर चुके कुछ लोगों का अंदाज थोड़ा अनोखा है। जैसे कि एक लोकप्रिय महानुभाव ने तंत्र के हम जैसे कल-पुर्जों की एक गोपनीय बैठक में बहुत ही मीठी वाणी में सजेस्ट किया था, "वैसे तो आप लोग अपने हिसाब से काम करो, लेकिन जो करने के लिए हम कहते हैं उसे न मानने वाले से हम दूसरे तरीके से निपटते हैं।" शायद यह एक माफिया किस्म वाली देशभक्ति थी। जो घर बैठे अपने सिस्टम से लोक और तंत्र दोनों का काम अकेले निपटा सकती थी। फ़िलहाल अभी तक संवैधानिक दर्जा प्राप्त न होने से इसे वैधता हांसिल नहीं है, इसके लिए सिस्टम को निजी टाइप से अन्डरवर्ल्डात्मक होने की बजाय सरकारी टाइप का तंत्रात्मक होना चाहिए। इसके रहस्यमयी वातावरण को समझना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है, अन्यथा तंत्र में होते हुए भी वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति हो सकती है। 

        वैसे सिस्टम अदृश्य ही होता है, क्योंकि जो दिखाई पड़े वह सिस्टम ही क्या!! इसका कोई लेखा-जोखा या प्रमाण भी नहीं, बल्कि तंत्र में भाव और अभाव रूप में विद्यमान होकर उसे नियंत्रित और संचालित करता है जैसे ईश्वर सृष्टि को! इसकी अनुभूति सृष्टि में ईश्वर के जैसी इसमें डूबने पर ही होता है। कहते हैं ईश्वर ने सृष्टि को रचा और उसे विकसित होने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया है। लेकिन सिस्टमीय-तंत्र, दांत वाले छोटे-बड़े चक्कों के समूह जैसा है जो अपनी मर्जी से नहीं, आपस में फंसकर एक दूसरे को नचाता है। इसके पीछे मंत्राध्यक्ष का मंत्र-बल होता है। इसे ग्रहण कर तंत्राधीश अपने दंतबल से इस चक्कीय सिस्टम को नचाता है। लेकिन देशभक्ति के कृत्य का श्रेय मंत्राध्यक्ष को जाता है। उसका मंत्र-बल उसे ऋषि-मुनि की श्रेणी में खड़ा कर देता है। इसीलिए भारत को ऋषियों-मुनियों का देश कहा जाता है, इनके सहारे ही इस देश को उसका प्राप्तव्य प्राप्त होता आया है।

         खैर, शुकर हैं भारत माता के नक्शे और स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का! जिसके निरंतर अनुश्रवण से मेरे मन में देशभक्ति की तरंगे उठी और मुझे भी आनंदित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। क्योंकि देश सेवा वाले भाव के साथ बजटीय डोज की मिक्सिंग कर सिस्टमीय-तंत्र में जबर्दस्त पेराई होती है, इससे निकलते रस से सराबोर हुआ मन देश-सेवा के कृत्य से सुखी होकर आनंदित होता है। इस प्रकार तंत्राधीश के निर्देशन में तंत्रीय देशभक्त भी देश की मूरत गढ़ते-गढ़ते अपना प्राप्तव्य प्राप्त करता है। यही देशसेवा का सिस्टमेटिक ढंग है, इसमें विवेक, भावना और बुद्धि का कोई स्थान नहीं, बस घूमने के लिए दाँत से दाँत सटे हुए होने चाहिए। खैर, यहां आकर क्या दक्षिणपंथी और क्या वामपंथी! और क्या सिस्टमपंथी!! सबकी गति एक ही है, बाकी जनता को भरमाने की चीजें हैं।

माफिया और गुर्गे

          लिखने की प्रेरणा लेखक होने के पेशे से नहीं, लहू में आए उबाल से मिलती है। इसलिए लेखक डरता नहीं, बल्कि पेशा डराता है! पेशेवर बनकर ही इस डर से मुक्ति पाई जा सकती है। फिलहाल अपने लहू के उबाल से डरने वाले पेशेवर नहीं बन पाते। दो शूटर किसी बड़े सफेदपोश माफिया के लिए काम करते थे। हालांकि उन्हें अपने उस सुप्रीम आका का कभी दीदार नहीं हुआ था लेकिन वाया प्राप्त उसके निर्देशों के अनुसार वे अपने काम को अंजाम देते। एक बार दोनों को किसी बड़े व्यापारी से गुंडा टैक्स वसूलने का काम सौंपा गया। शायद उस व्यापारी ने तयशुदा खोखे की रकम पहुंचाने में देरी की थी। तो, दोनों गुर्गे‌ उसी की वसूली करने उसके घर पहुंचे। 
       इधर व्यापार में घाटे के साथ व्यापारी को अपनी बेटियों के विवाह की चिंता थी। जब वह पेटी लेकर जान छोड़ने के लिए गुर्गे से गिड़गिड़ा रहा था, तो एक गुर्गे की निगाह दरवाजे की ओट में खड़ी उसकी बेटियों पर पड़ी। डर से सहमे उनके भयाक्रांत चेहरे को देख उसे अपनी बेटियों का ध्यान आ गया। इधर उसका दूसरा साथी खोखा न देने पर व्यापारी को मौत की धमकी देता सुनाई पड़ा। स्थितियों का भान होते ही बेटियों के चेहरे में खोए गुर्गे की आंखों में आँसू छलकने को आ ग‌ए थे। उसकी ऐसी बदली हुई भाव-भंगिमा को देख जब उसके दूसरे साथी ने कठोर आवाज में कहा, ये क्या हो रहा है, तो वह गुर्गा सकपका गया और अपने डर से डर गया। वह दूसरा साथी कुछ समझ पाता इसके पहले ही उसकी कनपटी पर उसने गोली चला दी। 
           बड़े माफिया का अपने गुर्गों को निर्देश होता है कि यदि कोई गुर्गा टारगेट के प्रति नरमदिल दिखाए तो तत्काल दूसरा साथी उसे शूट कर दे। दरअसल व्यापारी की बेटियों को देखकर गुर्गे के हृदय में संवेदनशीलता जागी और वह किसी भी दशा में व्यापारी की हत्या नहीं होने देना चाहता था। ऐसी दशा में उसका दूसरा साथी उसे ही शूट कर देता, इसलिए बिना अवसर गंवाए उसने अपने दूसरे साथी को गोली मार दिया और पेशे से मुंह मोड़ पेशेवर बनने से बच गया। खैर यह तो हुई कहानी की बात।
         अमृता प्रीतम 'रसीदी टिकट' में एक जगह लिखती हैं कि "मुझे एक प्रकाशक की ओर से एक लंबा काव्य लिखने के लिए कहा गया था, पर मैंने मना कर दिया था। लिखती, तो वह काव्य मेरे लहू के उबाल में से उठा हुआ न होता।" खैर, मैं यह नहीं कहता कि प्रकाशक माफिया है और लेखक उसका गुर्गा। लेकिन यहां लेखिका जैसे पेशेवर होने से बचना चहती है। और चाहें भी क्यों न, क्योंकि संवेदनाओं में पेशेवराना अंदाज नहीं होता। वैसे भी पैसा और प्रसिद्धि की आकांक्षा लहू के उबाल को ठंडा कर देता है।

रिश्तों का डिजिटलाइजेशन

        नया साल आ गया। आधी रात से लेकर लगभग शाम तक शुभकामनाओं का रेलमपेल लगा रहा। वैसे बचपन में तो नहीं, लेकिन जब कालेज लगभग छोड़ चुका था, तब पता चला था कि न‌ए साल में ग्रीटिंग-कार्ड दिया जाता है। लेकिन वह जमाना भी कब का बीत चुका है। भ‌ई, एक बात यह भी है अब कोई जमाना ज्यादा समय तक ठहरता ही नहीं! जमाना आया नहीं कि गया। बल्कि मैं तो कहूं जमाना भी अब सरपट भाग रहा है जैसे कि आदमी भागता है! आखिर आदमी से ही तो जमाना है। पल-पल छिन-छिन बदलते आदमी का कोई ठिकाना नहीं तो जमाना ही अपना ठिकाना क्यों बनाए? इसीलिए जमाना भी आया नहीं कि सरपट भागते हुए 'क्या जमाना था' में बदल जाता है, खैर।

          तो ग्रीटिंग कार्ड सजाने-सजने का जमाना चला गया और आया मैसेज का! हां मैसेज का!! न रंग लगे न फिटकरी और रंग चोखा। वैसे मैं नहीं जानता कि फिटकरी का चोखे रंग के साथ क्या ताल्लुक है। लेकिन मुहावरा है सो इसे लिखने में यूज कर लिया। मतलब यही कि बढ़िया से बढ़िया मैसेज रेडीमेड मिल जाता है, इसके लिए बेचारे हृदय को परिश्रम करने की अब जरूरत नहीं होती और वैसे भी आजकल के लोगों का हृदय भी कमजोर होता है, इससे जितना कम से कम काम लिया जाए उतना ही स्वास्थ्यवर्धक है। जबकि पहले ग्रीटिंग-कार्डों की दुकान पर जाना उनमें से बढ़िया ग्रीटिंग छांटना और फिर संबंधित तक इसे पहुंचाने में पर्याप्त जहमत उठानी होती थी। आज प्रदूषण के जमाने में इतनी तिकड़म भी स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता। खैर फिर बेहतरीन आप्सन के रुप में आया मोबाईल मैसेज का जमाना। इसमें मैसेज लिखने के लिए दिल और दिमाग को एक बार यूज कर उसे बहुतेरे स्वजनों को एक साथ फारवर्ड कर देने की सुविधा भी मिली। तब ये मैसेज भी किसी को बासी नहीं लगता था और लगे क्यूं? क्योंकि इसमें 'फारवर्डेड' का पता नहीं चलता था। मैसेज पाने वाला बेचारा मात्र इसे अपने लिए भेजा हुआ मानकर प्रेषक के वर्जिनल प्रेम से अभिभूत हो जाया करता था।

           लेकिन वह क्या जमाना था! और आज व्हाट्सएप का जमाना आ गया है। अब तो रेडीमेड बने-बनाए संदेश के ऐप भी बन चुके हैं, बस थोड़ी मेहनत कीजिए एक से एक ब‌ढ़िया संदेश या कहें बात, नहीं तो विचार ही कह लीजिए, मिल जाएंगे और व्हाट्स ऐप पर कापी पेस्ट कर अपने मित्रों-सुहृदयों को भेजते जाइए! मतलब शुभकामनाएं और मंगलकामनाएं लिखने के झंझट से भी मुक्ति! कहने का आशय यह है कि आज के महान तकनीकी दौर में डिजिटलाइज्ड मंगलकामनाएं और शुभकामनाएं उपलब्ध हैं जो सुहृदों के हृदय को सुहृदय बनाने के काम आती हैं। गजब का यह संबंधों के डिजिटलाइजेशन का जमाना है। लेकिन इसमें एक ख़तरा बस यही है कि थोड़ी सावधानी की जरूरत होती है क्योंकि 'फारवर्डेड' से आपका कोई अति संवेदनशील साहित्यिक टाइप का इष्ट-मित्र आपके 'फारवर्डेड' संदेश को "प्रकृति के यौवन का श्रृंगार/ करेंगे कभी न बासी फूल" जैसे साहित्यिक भाव से ओवरलुक न कर दे। आखिर ताज़गी तो सबको चाहिए ही होती है।

         लेकिन आजकल के डिजिटलाइजेशन युग में संदेशों के आदान-प्रदान में परफेक्ट टाइमिंग का ख़्याल रखना चाहिए। मतलब किसी के डिजिटलाइज्ड सुख-दुख में तत्काल शरीक हो लेना चाहिए। ऐसा इसलिए कि एक बार मेरी नज़र एक फेसबुकीय फ्रेंड के पोस्ट पर पड़ी जिसमें किसी अतिप्रिय स्वजन के शोक में उनका इज़हार-ए-दुख कुछ ऐसा था कि उनके लिए यह पूरा संसार निरर्थक और बेमानी हो चला था। उनके दुख की इस घड़ी में साथ देने के लिए मैंने दुख में दुखी होने वाले एक सांत्वनापरक संदेश को गूगल से खोजकर कापी किया और उन दुःखी हृदय आत्मा के वाल पर पेस्ट करने ही जा रहा था कि मेरी दृष्टि उनके एक लेटेस्ट पोस्ट पर पड़ी, जिसमें वे डांस टाइप की मुद्रा में किसी पार्टी में मिले 'इंज्वॉय' का बखान करते हुए गौरवान्वित फील कर रहे थे। अब बताइए! मेरा हृदय कौन सी मुद्रा धारण करता? उन्हें सांत्वना देता या कि उनकी डांस मुद्रा के साथ मैं भी गौरवान्वित फील करता? कुछ डिसाइड न कर पाने की स्थिति में चुपचाप उनकी वाल से खिसक लेने में ही मैंने भलाई समझा। ठीक यही स्थिति डिजिटल प्लेटफार्म पर खुशी जाहिर करने वाले भी पैदा कर सकते है।  

           खैर, आजकल के क्षणजीवी इंसान के मनोभाव भी इस डिजिटल जमाने के साथ तालमेल बैठाने के लिए तैयार है। विकासवाद की सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट की थियरी एकदम फिट बैठ रही है, क्योंकि इस ज़माने में युगानुरूप आदमी का हृदय आटोमेटिकली डिजिटलाइज्ड हो चुका है! इसीलिए उसके मनोभाव भी  डिजिटली ढंग से प्रवाहित होते हुए कट-पेस्ट की सुविधा का लाभ ले रहा है।  

         लेकिन मोबाइलीकरण के इस ज़माने में आदमी को तकनीक और वह भी कम्प्यूटर का ज्ञान होना बेहद जरूरी है। अन्यथा मानवीय संबंधों के निर्वहन में वह फिसड्डी साबित होगा। फिर भी इस ज्ञान का प्रयोग सावधानी से करना चाहिए। नहीं तो टच-बोर्ड आपके संबंधों को दूसरा आयाम भी दे सकता है। क्या है कि मनोभावों के इमोजीकरण के दौर में एकबार एक सुहृद मित्र ने मेरे उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ मुझे एक बेहद खूबसूरत संदेश भेजा। उसे देखते ही मैं आह्लादित हो गया और आव देखा न ताव विनीत भाव से उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए उतावला हो उठा। इस उतावलेपन में धोखे से टचस्क्रीन पर अंगुली एक बेहद गुस्से से लाल चेहरे वाली इमोजी पर टच कर गया और वह इमोजी सेंट भी हो गई। उस समय बड़ी असहज स्थिति का सामना करना पड़ा था मुझे! तबसे उनसे अपने लिए खूबसूरत मैसेज पाने के लिए तरस गया हूँ। दूसरी बार ऐसी ही एक और गलती मैंने एक अन्य मित्र के साथ किया। उन बेचारे ने अपनी सफलता का बखान करते हुए एक संदेश डाला। उनके साथ अपने संबंधों को उच्च आयाम पर पहुंचाने के लिए उनकी इस सफलता पर उन्हें तत्काल बधाई संदेश भेजने की आवश्यकता को महसूसा, लेकिन जल्दबाजी में मोबाइल के टच-स्क्रीन को ऐसा टच किया कि उनके खुशी के इस अवसर पर जार-जार आंसू बहाने वाला इमोजी सेंट कर दिया। मुझे अपनी इस गलती का अहसास होता उसके पहले ही मेरी वह दुखी होने वाली इमोजी उनके द्वारा 'सीन' भी हो चुकी थी! मेरी एक चुटकी बेवकूफी से मित्रता दांव पर लग गई।  

           वैसे हर ज़माने के ख़तरे भी अपनी तरह के ही हैं। लेकिन इन खतरों के पार हमारे डिजिटलाइज्ड सोशल मीडियायी संबंध लाइव रहने चाहिए। हां इतना ज़रूर है कि नव वर्ष पर शुभकामना संदेशों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर इन्हें वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे कि साहित्यकार और उसमें भी व्यंग्यकार का संदेश, श्रेष्ठ-जनों या विशिष्ट-जनों का संदेश, साहब का मातहत के लिए या मातहत का साहब के लिए, मतलब निकालने वाला, दोस्ती जताने वाला, औपचारिक-अनौपचारिक आदि-आदि टाइप से! 

         इस लेख को पाठक-गण कृपया दिल पर न लें बल्कि संदेशों का आदान-प्रदान करते रहें और इनका मज़ा लें। यह दुनिया है जमाना तो बदलता ही रहेगा।