रविवार, 25 सितंबर 2016

प्रकृति की आवाजें

            आज पाँच बजकर तैंतीस मिनट पर नींद खुली..वैसे एक बार रात ढाई बजे नींद खुली थी लेकिन फिर जो सोए तो घोड़ा बेंच कर ही सोए..एलारम-फेलारम की आवाज भी नहीं सुनी...हाँ, जब उठे तो सोचा देर हो गई है...का टहलने जाएँ..और थोड़ा फिर अलसियाने से लगे थे..लेकिन यह सोचते हुए कि अगर कभी ऐसे ही देर में उठे तो देर का बहाना बनाकर यह मन, आसानी से सबेरे-सबेरे के टहलने से वंचित करा देगा..फिर तो यह रोज का काम है...और मैं मन को परे झटकते हुए, फटाफट स्टेडियम की ओर निकल लिए..
              रास्ते में देखा, एक गाय महोदया अपनी नुकीली सींगों का निशाना मेरी ओर लिए सामने से चली आ रही थी...नुकीली सींगों को देख एकबार तो थोड़ा सहमा, फिर अगले ही पल कुछ सोचते हुए ठीक गऊ माता के बगल से विचारते निकल गए कि सड़क पर रहने वाली यह गाय झौंकारेगी नहीं.. इसका भी तो रोज यहीं सड़क पर घूमने का कार्यक्रम रहता है...शायद इसीलिए, ठीक बगल से निकलते समय उसने मेरी ओर निहारा तक नहीं। अब आगे बढ़े तो, एक कुत्ते महाशय पूँछ बरेरे बीच सड़क पर, मेरी ओर ही देखते खड़े दिखाई दिए, सूरत-शकल उनकी ठीक दिख रही थी..झपट्टेमार जैसे नहीं थे...जब उनके पास पहुँचा तो ये कुत्ते महाशय भी एक सज्जन व्यक्ति की तरह मुझे रास्ता देकर वहीं बगल में फिर से खड़े हो गए थे...उनकी इस "मनईगीरी" पर मैं मुस्कुरा उठा। 
            स्टेडियम में, ग्रुप वालों से आज भेंट हो गई, उनकी संख्या में एक की कमी थी..वे अापस में बतियाते हुए अपना टहल-कार्यक्रम पूरा कर रहे थे। उनमें से किसी एक को, कहते हुए मैंने सुना, "मुम्बई से उनके कलाकारों को निकल जाने के लिए कह रहे हैं..आखिर अपने देश के आतंक का वे विरोध भी तो नहीं करते..तो, फिर यही होगा" मने पाकिस्तानी कलाकारों को निकालना उचित है। मैंने इसे सुना भर, इस पर अपनी राय के बारे में सोचा भी नहीं। खैर... 
             लौटकर आवास पर आया, तो, बस यूँ ही कुछ देर तक शान्त बैठा रहा...कानों में तरह-तरह की आवाजें गूँज रही थी..कभी किसी मोटर की आवाज, तो कभी मनई की आवाज, कभी पंखे की आवाज तो कभी चिड़ियों की आवाज...मतलब, नानाप्रकार की आवाजें! इन आवाजों में, मैं प्रकृति की आवाज पहचानने की कोशिश करने लगा था.. वैसे, मनई की आवाज भी प्रकृति की आवाज के ही श्रेणी में आएगी, लेकिन न जाने क्यों, यह आवाज मुझे बनावटी लगती है। इस आवाज को परे झटक, फिर से, चिड़ियों और हवा की सरसराहट जैसी ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित करने लगा था...इन आवाजों की गहराई में जाने पर कुछ बहुत बारीक सी मंद-मंद चीं-चीं जैसी ध्वनि सुनाई दी। इसपर ध्यान दिया तो, यह आवाज हमारे बाथरूम से आती हुई प्रतीत हुई। असल में, बाथरूम के गीजर के नीचे उलझे तारों के बीच गौरयों ने एक स्थाई सा घोंसला बना रखा है..एक बार, ऐसे ही तिनकों के भार से यह घोंसला एक ओर झुक गया था और गौरैया के अंडे से निकला एक नवजात बच्चा वहीं नीचे फर्श पर गिर पड़ा था। संयोगवश, मेरी निगाह उस पर पड़ गई थी, तब उस नवजात जीवित बच्चे को मैंने पुनः उस घोंसले में रख दिया और घोंसले के नीचे एक डंडी रख घोंसले को सीधा कर दिया था, जिससे गौरयों के अंडे या बच्चे इससे सरककर नीचे न गिरें। गौरैया का वह बच्चा बड़ा होकर उड़ गया था। बाद में, गौरयों ने मिलकर उस घोंसले को अपने बैठने लायक और बढ़िया बना लिया। 
      
            इस घटना के कई माह हो चुके हैं। तब से कई बार गौरयों के जोड़े यहाँ आकर अंडे दिए और अपने बच्चों को उड़ने लायक बनाए। इधर, मैंने ध्यान दिया...अभी एक माह भी नहीं हुआ होगा जब इस घोंसले से गौरया के बच्चों के चीं-चीं की आवाजों से जी हलकान हुए और उन गौरयों के बच्चों को उड़े हुए...लेकिन फिर से, गौरयों के एक दूसरे जोड़े के बच्चों की चीं-चीं की आवाजें सुनाई पड़ने लगी है। 
            हाँ, आज इन विभिन्न आवाजों के बीच मद्धिम-मद्धिम सी बेहद पतली सी यह आवाज उसी दूसरे गौरयों के जोड़े के बच्चों की है। वाकई!  इस एक घोंसले को लेकर गौरयों के जोड़ों के बीच की आपसी समझ से मैं आश्चर्य चकित सा था..आश्चर्यजनक रूप से जैसे ही एक जोड़ा अपने अंडों को से कर यहाँ से बच्चों को उड़ा इस घोसले को खाली करता है तो, दूसरा जोड़ा आकर इसी घोंसले में अपने अंडे देकर उन्हें सेने लगता है। सच में, मेरे लिए यह एक अद्भुत अनुभव! मैं इन चीं-चीं की आवाजों से अभिभूत था। खैर.. 
             मेरे एक मित्र हैं, एक दिन वो मुझसे इसलिए नाराज हो उठे कि मैं उनसे, उनके बन रहे घर के हालचाल नहीं पूँछे थे कि, अब तक उनका घर कितना, और कैसा बन चुका है। उनकी इस नाराजगी पर मैंने सोचा, वाकई! मैंने गलती की है, किसी की खुशियों के बारे में भी हमें जिज्ञासा होनी चाहिए। क्योंकि, कभी-कभी एक प्रसन्न व्यक्ति अपनी प्रसन्नता को दूसरों को सुनाने के लिए बेचैन हो उठता है। वैसे, घर एक ही होता है, जो एक बार ही बनता है, फिर तो इसके बाद सम्पत्ति खड़ी करना माना जा सकता है, और किसी की सम्पत्तियों के बारे मे ज्यादा पूँछ-ताछ करना मैं उचित नहीं मानता। आज बहुत सारे लोग मकान दर मकान खड़े करते जा रहे हैं, लेकिन शायद ही कोई घर बनाता हो! आज ज्यादातर मकान, जमीन, पानी, हवा को कब्जियाए सांय-सांय करते सूने से, केवल किसी की सम्पत्ति के रूप खड़े दिखाई देते हैं, जो किसी काम के नहीं। घर शानो-शौकत नहीं, सम्पत्ति नहीं, बल्कि घर वह जहाँ बच्चों को पाला-पोषा जाता हो। घर एक घोंसला ही होता है। हाँ.. घोंसलों पर ध्यान देना चाहिए, घोंसलों के हालचाल लेते रहना चाहिए, इसकी चिन्ता भी करनी चाहिए, इसे सँवारा जाना चाहिए। खैर...फिर अखबार पढ़ा था..
       
              "जागरण" में एक अन्दर की छोटी सी हेडिंग पर ध्यान अटका, "सांस्कृतिक मुद्दों व भगवाकरण ने रोकी बड़े सुधारों की राह" में "भारत को खुली और अनाश्रित समाज बनने की जरूरत है जिसका ध्यान मूलरूप से आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित हो।" जैसी बात से प्रभावित हुआ। सच में! हमारा समाज अनाश्रित तभी होगा जब चीजों का केंन्द्रीकरण नहीं होगा और उपभोग की लालसा कम होगी। जैसे, उन गौरयों के तमाम जोड़ों को मैंने एक ही घोंसले से काम चलाते देखा। 
           यही #दिनचर्या थी कल की। 
          चलते-चलते, 
          ध्यान और कुछ नहीं, बस प्रकृति की आवाजों को सुनना ही ध्यान है, ये आवाजें आपको भटकाएँगी नहीं... 
        --Vinay 
          #दिनचर्या 18/24.9.16

"विधा" और "बात"

           मित्रों! आज तो मैं स्टेडियम गया ही नहीं...अलसियाये से रहे, बस यहीं आवासीय कैम्पस में ही टहलने का कोटा पूरा किया। चाय पिया और मोबाइल चलाकर फेसबुक पर कुछ लाईक-फाईक सा करने लगा था। वैसे मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस "लाईक" करने या न करने के पीछे एक तरह का मनोविज्ञान काम करता है जैसे, किसी बात के कहने के पीछे। खैर, "फाईक" का आप गलत मतलब मत निकालें कि जिसे लाईक नहीं किया वह फाईक हो गया हो। मित्रों! यहाँ बातों को बहुत गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए।

             मान लीजिए कोई आप से कहे कि फला विधा में आप बहुत अच्छा लिख लेते हैं, तो इसका क्या मतलब है? समझिए! मेरे हिसाब से इस कहने का आशय मैंने यही लिया कि यह "विधा" ही आपके लिखे को साहित्यिक या असाहित्यिक का दर्जा दिलाएगी, लिखने के पीछे की "बात" नहीं। अब प्रश्न है कि हम लिखने की "विधा" या लिखने के पीछे की "बात" इनमें से किसी एक को महत्वपूर्ण मानें या फिर दोनों को? वैसे तो साहित्य में "कलागत विशेषताओं" की ही खूब चर्चा की जाती है और कभी-कभी "बात" पीछे छूट जाती है। अब यह उसी तरह से है जैसे वह चिरकुट कल्लनवा भी तो बात-बात में कहता है, "चोरी न करो" "झूठ मत बोलो" लेकिन क्या कोई उसकी बातों पर कान धरता है? लेकिन, जब यही बातें "आशाराम" माला पहने हुए किसी भव्य सिंहासन पर बैठकर कहेंगे तो लाखों उनके भगत बन उन्हें भगवान मान उन्हें मालामाल भी कर देंगे। हमको लगता है "विधा" और "बात" में भी यही सम्बन्ध है। मतलब बात महत्वपूर्ण नहीं विधा ही महत्वपूर्ण होती है। तभी बात भी सुनी जाती है। अब फिर प्रश्न है! किसी को विधा जेल में पहुँचाती है कि बात? यह बेहद गूढ़ प्रश्न है! मैं मानता हूँ, वह कल्लनवा बेचारा जेल नहीं जाएगा क्योंकि वह "विधा" के चक्कर को नहीं जानता! लेकिन जब कोई "बात" "विधा" की गुलामी करने लगती है तो फिर "आशाराम" को जेल जाना ही पड़ता है। यहाँ "बात" स्वतंत्र होती है लेकिन "विधा" नहीं। विधा सिंहासन होती है जो बात का अन्दाज बदल देती है, परतंत्र हो जाती है। मेरा निष्कर्ष है कि जब कोई कहे कि आप फला "विधा" में माहिर हैं तो आपकी "बात" कैदखाने की ओर पांँव बढ़ा रही है। सावधान हो जाइए! किसी विधा में बैठकर अपनी बात मत कहिए...बस! कहते जाइए...इसी में बात कहने की स्वतंत्रता है। 
              आज "हिन्दुस्तान" का सम्पादकीय पृष्ठ मेरे लिए काफी रुचिकर रहा। "अपने समय का सूर्य हूं मैं" आलेख "राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मतिथि पर उनकी काव्य चेतना का जायजा" ले रहा था। "दिनकर इस बात से खिन्न दिखते थे कि मार्क्सवादियों को लेखन की स्वतंत्रता नहीं थी, उन्हें पार्टी लाइन पर ही लिखना पड़ता था" और "दिनकर का मानना है कि अकसर राष्ट्रीयता का जन्म घृणा से होता है।" जैसी लेख की बातें प्रभावित करती हुई दिखी। इसीप्रकार "ये मेरा नया वाला मुगालता" वाकई, तरह-तरह के मुगालते पालने के लिए प्रेरित करता दिखाई दिया। "डर की मौत" जैसा आलेख "डर डरने से होता है" की याद दिला रहा था, और "युद्धोन्माद के खिलाफ" हम भी हैं।
           मित्रों, आज की ये बातें मेरी दिमागी #दिनचर्या के अंग रहे। हाँ..जो मैंने कहा है उसके आधे हिस्से को मैं भी समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैंने आखिर, कहा क्या है! 
          चलते-चलते -
         निर्द्वन्द्व रहिए, निर्द्वन्द्व सोचिए..निर्द्वन्द्वता से कहिए....
         --Vinay 
         #दिनचर्या 17/23.9.16

चक्र

          बड़ी विचित्र स्थिति है मेरी #दिनचर्या को लेकर!  यह भी अजब का झमेला पाल लिए हैं..लिखने में आलस लगता है और न लिखें तो मन कचोटने लगता है..हाँ, यह मेरे लिए झमेलई तो है..! लेकिन फुराखरि में, इस दिनचर्या को लेकर मेरे लिए एक बात तो है, वह यह कि इसी बहाने मैं आप से बात भी कर लेता हूँ..एकतरफा ही सही..!

          आज स्टेडियम जाने में थोड़ी देर हो गई..स्टेडियम जाते समय ऐसा लगा जैसे, आज टहलने वालों में उतना उत्साह नहीं है.. रास्ते में ज्यादा लोग भी नहीं दिखे..बड़ी समस्या है! भीड़ होने पर भी परेशानी और न होने पर भी परेशानी..हाँ, ग्रुप वालों से भेंट नहीं हुई.. वे लोग मेरे काफी आगे थे और मेरी चाल भी कम थी...आज एक चक्कर मैं, कम टहला भी...उनसे भेंट होती तो एकाध जुमला सुनने को मिल ही जाता, क्योंकि टहलते हुए उनकी बतकही निर्वाध रूप से जारी रहती है!

          लौटते समय रास्ते पर, मेरे आगे तीन-चार लोग चले जा रहे थे आचानक उन सभी की चाल धीमी हुई उनमें से एक वहीं खाली पड़ी जमीन की ओर इशारा करते हुए कुछ दिखा सा रहा था..उनके बगल से आगे बढ़ते हुए उनकी बातें मैंने सुनी, "अभी यहाँ कबाड़ वाले अपनी पन्नी रख दें तो उन्हें कोई नहीं हटाएगा..लेकिन हम रख दें तो तुरन्त फेंक दिया जाएगा..।" दूसरा बोला, "कोई पट्टा-वट्टा हो सकता है, हुआ हो.." कुल मिलाकर खाली पड़ी सरकारी जमीन पर कब्जे के लिए इनका लार टपकता हुआ सा प्रतीत हुआ। मैं उनसे आगे निकल गया था। 

         आज सबेरे चाय पीने का मन नहीं हो रहा था...लेकिन यह सोचकर कि चलो चाय पी ही लिया जाए फिर चाय बनाई, अखबार आ चुका था, पढ़ने बैठ गए। 

 

          पहले पृष्ठ पर जबर्दस्त विज्ञापन से भेंट हुआ बाल लहराते हुए माडल किसी कम्पनी की स्कूटी पर बैठ अपने सपने सच कर रही थी। दूसरे पेंज पर किसी शुगर टेबलेट का पूरे पेंज पर प्रचार था। मतलब प्रचार में दो पेंज चले गए थे...ऐसा लगा जैसे अखबार के पैसे देकर हम प्रचार खरीदते हैं। बाकी पेंजों में भी आधे-तीहे प्रचार ही थे। यह प्रचार तंत्र का अपना अर्थशास्त्र है और हम इस तंत्र में चाभी भरनेवाले लोग।

           एक स्थानीय समाचार की छोटी सी हेडिंग "हिंदू युवा वाहिनी ने जलाया पाकिस्तान का झंडा" को देखा। जैसे, देशभक्ति का ठेका यह लोग ले रखे हैं, यह हेडिंग देशभक्ति का साम्प्रदायीकरण करती प्रतीत हुई, इस देश की यही समस्या है। पत्रकारिता, जैसे इन बातों को समझती ही नहीं। नकारात्मकता का दंश लिए हुए बेमतलब की महत्वहीन बातों को हेडिंग बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है। 

             फिर सरकारी काम निपटाने में लग गए...एक गाँव चले गए थे... गाँवों में लोगों की हालत यह है कि गरीबी का रोना रोकर लोग सरकारी योजनाओं को झटकने के फिराक में पड़े रहते हैं और दिनभर में पच्चीस रूपए का गुटखा खा जाते हैं। किसी भी गाँव में यह किसी एक व्यक्ति की बात नहीं, गाँव में हर तथाकथित गरीब मजदूर की यही कहानी है और पूँछने पर कहते हैं, "इसलिए खाते हैं कि इससे समय बीत जाता है"। गजब! समय काटने का भी यह भी एक तरीका है! हमें तो पहली बार पता चला कि यह भी समय बिताने का एक तरीका होता है। अब समझ में आया कि  यह देश तमाम विडम्बनाओं से भरा देश है। 

        बस इतना ही। 

        चलते-चलते -  कभी बहुत पहले लिखा था -

          चारों ओर पसरा विज्ञान है 

           विज्ञान से 

            टीवी है 

             टीवी में नेता है

              नेता का भाषण है 

               भाषण का प्रभाव है 

अखबार है 

अखबार में शब्द है 

शब्द में विज्ञापन है 

विज्ञापन में प्रचार है 

प्रचार में छिपा बैठा 

लोकतंत्र है 

रूपया है 

रूपया से 

टीवी है 

अखबार है 

विज्ञापन है 

प्रचार है 

लोकतंत्र है 

सबका चुनाव है 

चुनाव का चक्र है 

चक्र में चाभी देता 

लंगोटिया यार है। 

           हाँ, आज की #दिनचर्या खतम।

 

              --Vinay 

               #दिनचर्या 16/22.9.16

सुपरस्टारी का चक्कर

           चीजें सब वैसी ही हैं जैसे कल थी। सुबह टहलते हुए ग्रुप से वही कल वाली बात फिर सुनी "कार्यवाही का अधिकार सेना को दे दिया गया है"। आज अन्तर यह था कि ग्रुप द्वारा इस कथन को सबसे बढ़िया बात बताया जा रहा था। हाँ.. ग्रुप से नमस्कारी-नमस्कारा हुआ और मैं आगे बढ़ गया था। सबेरे अखबार तो पढ़ी लेकिन अन्यमनस्क ही रहा, कोई उल्लेखनीय बात मैं, समझ नहीं पाया। 

            

              अखबार पढ़ने के बाद फैन चालू किया और टी वी भी चला दिया.. सोचा अब तक हो सकता है युद्ध शुरू हो जाने की कोई फड़कती हुई खबर मिल जाए! क्योंकि, इधर देख रहा हूँ, क्या बुद्धिजीवी...क्या भगत..सभी युद्धोन्माद में दिखाई दे रहे हैं। हाँ.. यह युद्धोन्माद उनमें अलग-अलग टाइप का है! भगत बेचारे युद्धवत्सल तो हो ही रहे हैं, बुद्धिजीवी भी अपने तरीके की वत्सलता निभा रहे हैं,। वैसे भगत तो, बुद्धिजीवी होते ही नहीं, कारण यही कि बुद्धिजीवी उन्हें अपनी जमात में शमिलई नहीं होने देते! इनमें उन्माद का स्तर ऐसा कि ये दोनों "न भूतो न भविष्यति" के अन्दाज में ही दिखाई दे रहे हैं..हाँ, आज नहीं तो फिर कभी नहीं..जैसा! मतलब युद्ध तो हो ही जाए के अन्दाज में, पता नहीं फिर अवसर मिलेगा भी या नहीं।

           इस उन्माद में बुद्धिजीवी वर्ग नए तरीके से शामिल हैं, जैसे इस समय उनके दोनों हाथों में किसी ने लड्डू धर दिया हो..उनके द्वारा तड़ातड़ भक्तों की खिल्ली उड़ाई जा रही है..कि...देखो! तुम्हारे ओ, कितने झूठे निकले..अभी तक युद्ध नहीं शुरू हुआ..हम कहते थे न.." मतलब यदि युद्ध होता है तो भी इन बुद्धिजीवियों के मजे और न हो तो भी। युद्ध छिड़ जाने की दशा में इनके मजे होने या न होने का अनुपात फिफ्टी-फिफ्टी होगा..! आप कहेंगे कैसे..? सो ऐसे कि, यदि देश जीतता है तो इनके बुद्धि के किसी कोने में बैठी इनकी भी देशभक्ति-भावना हिलोरें ले लेंगी..हो सकता है ये भी खुश हो जाएँ! लेकिन हाँ, इससे फिफ्टी परसेंट का इन्हें नुकसान यह होगा कि तब भक्तों की बल्ले-बल्ले हो जाएगी, जो इनपर नागवार गुजरेगा। ऐसे में, ये बौद्धिक सम्प्रदाय यही चाहेंगे कि युद्ध का परिणाम बेनतीजा ही रहे...वह भी इसलिए कि भगतई की औकात बताई जा सके। 

         हाँ.., अब अगर युद्ध शुरू नहीं होता है तब तो, इन बुद्धिजीवियों के मजे ही मजे हैं..एकदम हंड्रेड परसेंट! मतलब तब ये चहकते हुए कह रहे होंगे, "देखा! हम न कहते थे..!" ऐसी दशा में, भगत बेचारों को बिल में मुँह छुपाना पडे़गा। मतलब, भगत बेचारों की दुर्गति ही दुर्गति है...एक तो अभी तक युद्ध नहीं शुरू हुआ, दूसरे यदि शुरू भी होता है तो पता नहीं परिणाम, क्या होगा! और इधर बुद्धिवादी मजे पर मजे लिए जा रहे हैं और मजे ले रहे होंगे...। मैं तो कहता हूँ, इन भगत बेचारों से कि, पाकिस्तान से भले ही पंगा ले लो मगर इन बुद्धिमानों से पंगा मत लेना, नहीं तो, ये कहीं फँसा ही देंगे..।

         निष्कर्षतः हम तो भाई मान लिए हैं कि, कुल मिलाकर यह युद्ध तो छिड़ ही चुका है ; भगत वर्सेज अदर में!  और अपने-अपने तरीके से! इनके बीच में यह युद्ध ही "बोन आफ कंन्टेंशन" बन चुका है, अब पाकिस्तान गया तेल लेने..!

 

          हाँ तो, मैंने फैन तो चला ही दिया था, इसकी ठंडी-ठंडी हवाओं में ऐसे ही "बोन आफ कंन्टेंशन" का तलाश भी करता जा रहा था...तब तक टी वी की एक समाचार पट्टी पर निगाह पड़ी जिसमें कोई सुपरस्टार "अपने फैन से नाराज हुए" धीरे-धीरे सरक रहा था! दिखा। 

         इसे पढ़ते ही मैंने अपने सिर के ऊपर चल रहे फैन को देखा, बेचारे अपने गति में चले जा रहे थे और मेरे ऊपर ठंडी-ठंडी हवाएँ फेंकते जा रहे थे...सिर के ऊपर की इनकी चाल से मेरे शरीर की गर्मी नियंत्रित हो रही थी..और ठंडी हवाओं के प्रभाव में सोचा, "अब भला मैं अपने इस फैन पर क्यों नाराज होऊँ...!!  लेकिन, ये सुपरस्टार महोदय अपने फैन से न जाने क्यों नाराज हुए! हो सकता है, हो सकता है...फैन लोगों ने सुपरस्टार से धक्कामुक्की कर दिया हो...लेकिन भाई, फैन तो फैन ठहरे, आखिर आपको सुपरस्टार बनाया है, धक्कामुक्की करने का इतना हक् तो उनका बनता ही है..! और फिर, फैन सिर पर ही तो चढ़कर बोलते हैं.." हाँ, मैंने ध्यान दिया मेरा भी फैन हाई और लो वोल्टेज के चक्कर में सिर के ऊपर ही रह-रहकर घर्र-घर्र कर जाता था...बस अन्तर इतना ही है कि हम अपने-अपने फैन से अपने-अपने तरीके से आनंद उठाते हैं ; जैसे मेरा अपना फैन मुझे ठंडई का अहसास करा रहा था जबकि उनके फैन उन्हें गरम कर रहे होंगे, और वो इस गर्मी के चक्कर में अपने फैन से अपने सुपरस्टारी का आनंद उठाते-उठाते कुछ ज्यादा ही गरम हो गए होंगे, तो नाराज हो बैठे होंगे। मतलब यह भी कि सुपरस्टारों के फैन गरमी देते हैं। खैर, हम जैसे लोग, फैन के ठंडी हवाओं भर से संतोष कर लेते हैं, वो गरमी देते भी नहीं। 

    

              बेचारे, इन सुपरस्टारों की बड़ी शामत है! इनके फैन हैं कि अपने फैनई से बाज नहीं आते, गरमी ही देते जाते हैं, और खामियाजा बेचारे सुपरस्टार को भुगतना पड़ता है! चलो हो सकता है, वह समाचार वाला सुपरस्टार, फैन की धक्कामुक्की से परेशान होकर नाराज हुआ हो। लेकिन, यदि कोई सुपरस्टार, बोन आफ कंटेन्शन के चक्कर मे पड़ जाय तो फिर पूँछो मत...कभी-कभी तो उसे मैदान भी छोड़ना पड़ जाता है। बात यह होती है कि जब सुपरस्टार अपने फैनों के फैनई से गरम हो जाते हैं तो फैलने लगते हैं, फिर यहीं से वे स्वयं, बोन आफ कंन्टेंशन बन जाते हैं। 

            मैं तो कहुँगा...कि...सुपरस्टारों को कभी भी अपने लाईकर्स-ग्रुप के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए नहीं तो "बोन आफ कंन्टेंशन" के चक्कर में फँसकर किसी व्यंग्यकार की भाषा में कहें तो इनकी "मरन" है..!! पाकिस्तान की तो बाद में जो होगा सो होगा ही...

            वैसे इस लिखने को आज की #मनचर्या मान सकते हैं, किस दिन मन कैसा सोचा, इसे भी तो #दिनचर्या का ही हिस्सा माना जा सकता है। आज बस इतना ही..अब खाना खाकर सोएंगे...कल की कल देखी जाएगी। 

       चलते-चलते...

       

         अपने-अपने फैन से बच कर रहो, नहीं तो ये,..बोन आफ कंन्टेंशन..आप ही को बना देंगे...

                           --Vinay 

                          #दिनचर्या 15/21.9.16

हड़बड़ाहट

             इस बीच जैसे सब गड़बड़ा गया हो..हाँ, वही अपनी #दिनचर्या..!  अभी बीती रात के पहले वाली रात में निशाचर था। असल में रात आठ बजे घर छोड़ नौकरी पर निकल लिए थे, घर वाले जेन नहीं  ले जाने दिए, नहीं तो अगले दिन सबेरे ही निकलते। घर वालों का तर्क था बहुत ट्रैफिक होता है, बस से जाइए, सो रात में ही निकलना पड़ा। अगर सबेरे बस से निकलते हैं तो नौकरी पर पहुँचने में दिन के बारह बज जाते हैं, और जब तक नहीं पहुँच जाते दिल ऊग-बीग करता रहता है...देर से आफिस पहुँचने पर..! और लोगों की नजरों से बचना भी पड़ता है। खैर... 
             अकसर हड़बड़ी में चीजों को भूल जाता हूँ; जैसे कि उस दिन मोड़ पर सामने से आती बस देख उसे पकड़ने की हड़बड़ी में कार से कूद कर भागा...और बस रोकने के लिए हाथ से इशारा किया ही था कि ध्यान आ गया, "अरे! मोबाईल तो कार ही में छूट गया है..." हाथ तुरन्त नीचे किया, फिर उल्टे पाँव कार की ओर भागा..! सुपुत्र जी वापस जाने के लिए कार मोड़ ही रहे थे, साथ में उनकी माता जी भी थी, इस तरह मुझे हड़बड़ी में देख वे कुछ समझती, कि इसके पहले ही मैंने कार का दरवाजा खोल सीट पर छूटी मोबाइल हाथ में लेते हुए उन्हें दिखाया और उतनी ही तेजी के साथ मुख्य सड़क की ओर पुनः भागा..लेकिन वह बस दूर जाती हुई दिखी, सोचा, "बस का ड्राइवर सोच रहा होगा कि कितना बेवकूफ आदमी है.. हाथ देकर भाग खड़ा हुआ...!" भाग्य अच्छा था (हम छोटी-छोटी बातों में भी भाग्य को कष्ट देने से नहीं चूकते), कुछ ही क्षणों बाद दूसरी बस आ गई थी।
           बस में सवार हो गया। कंडक्टर मेरे पास आया..फुटकर नहीं था..पाँच सौ का नोट दिया...बहुत सलीके से उसने मेरा टिकट बनाया..और किराए से बचे पैसे टिकट के पीछे न लिख, उसी समय वापस भी कर दिया। कई बार भीड़ न होने पर भी कंडक्टर, तुरन्त पैसा वापस करने की बजाय टिकट के पीछे लिख देते हैं और गंतव्य आने पर ही वापस करते हैं.. ऐसे में हड़बड़ी में भूलवश बिना पैसा वापस लिए हुए ही बस से उतर गए हैं..एकाध बार तो टिकट खो जाने पर संकोचवश कंडक्टर से पैसा वापस लिया ही नहीं क्योंकि प्रमाण के लिए टिकट के पीछे लिखे बाकी के पैसे दिखाना होता है, और वह दिखा नहीं पाया था। लेकिन, आज का यह बस कंडक्टर मुझे सभ्य लगा था।
              बस में बैठे-बैठे मेरा दिमाग उरी हमले पर चला गया...शहीद सैनिकों को लेकर मन कुछ भावुक भी हो चला था.. पाकिस्तान पर इतना गुस्सा आया कि लगा, भारत को तुरंत पाकिस्तान पर बमबारी शुरू कर देनी चाहिए लेकिन देश की राजनीतिक उठापटक पर भी ध्यान चला गया, लगा यह समस्या आज की ही नहीं है। ऐसी समस्याओं के पीछे "मन" होता है, और किसी देश का मन जब गड़बड़ा जाता है तो, या तो वह दूसरों के लिए समस्या पैदा करता है या, समस्या का शिकार होता है..हम एक तरह की समस्या के शिकार हैं!  कल सबेरे मैंने जो कविता पोस्ट की थी भावुकता में इसी बस के सफर के दौरान लिखी थी..फिर कब कानपुर आ गया था, मुझे पता ही नहीं चला..!
        जैसे ही बस से उतरा, महोबा वाली बस तुरन्त मिल गई..वाकई..! देखिए न, ये भी बेचारे बसवाले दिन-रात की परवाह किए बिना अपनी ड्यूटी बजाते रहते हैं..! जब इन बसों को कहीं किसी आन्दोलन के दौरान जला दिया जाता है तो, हमें बड़ा कष्ट होता है...जैसे अभी, कावेरी विवाद में बैंगलुरू में चालीस बसों को जला दिया गया था! वास्तव में, ऐसे अपराधियों को खोजकर इन पर हत्या का अभियोग चलाया जाना चाहिए और कम से कम आजीवन कारावास से कम की सजा नहीं मिलनी चाहिए। हमारा चरित्र ऐसा!! और चलें हैं पाकिस्तान को सबक सिखाने..! सरकार कुछ नहीं कर रही..सरकार मौन है.. सरकार के चरित्र को देखने के पहले भाई लोग हम लोगों ने अपने चरित्र को देखा है..? आजादी के इतने दिनों बाद भी एक नागरिक बनने का सऊर तो आ नहीं पाया, पाकिस्तान को सबक सिखाएंगे? पहले अपने को इस लायक तो बनाओ कि आप पर हमला करने के पहले कोई लाख बार सोचे। 
             मन दुखी था..मौन था..बस होठों को चबाए जा रहा था... युद्ध लड़ने की इच्छा मन से निकल चुकी थी..कविता को अगले दिन सबेरे पोस्ट किया। 
           आज सबेरे पाँच बजकर पाँच मिनट हुए थे जब स्टेडियम की ओर टहलने निकला था। रास्ते में स्टेडियम की ओर काफी लोग जाते हुए दिखाई दिए..अब सबेरे-सबेरे टहलने वालों की संख्या में काफी इजाफा हो चुका है! दस दिन बाद मैं स्टेडियम की ओर गया था। कुछ देर बाद स्टेडियम में कार वाला ग्रुप भी आ गया था, तेजी से चलते हुए उन लोगों की यह बात सुनी "कार्यवाही का अधिकार सेना को दे दिया गया है..अब सेना भी नहीं कह सकती कि हाथ बँधे हुए हैं" इतनी ही बात मैं सुन पाया था और उनसे आगे निकल गया। 
स्टेडियम का तीन चक्कर पूरा करने के बाद वापस चलने को हुआ तो बिना घड़ी देखे ही, निकलने वाले समय से हिसाब जोड़कर मन ही मन  अनुमान लगाया कि पाँच बजकर सैंतालिस मिनट पर आवास के दरवाजे पर पहुँच जाएँगे। आवास के दरवाजे पर पहुँचते ही समय देखा, अनुमान एकदम सही था। मतलब कभी-कभी गुणा-गणित से सटीक निष्कर्ष निकल आते हैं, तो भाई! किसी जवाब में हड़बड़ी की जरूरत नहीं, गुणा-गणित कीजिए और करने दीजिए..हड़बड़ी में चीजें मिस हो जाती हैं। 
          आज जल्दी चाय बना लिया था..चाय पीने के बाद ही अखबार आया..जागरण में पहली हेडिंग "पाक पर प्रहार को तैयार" पढ़ने के बाद "मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल सरासर गलत" पढ़ते हुए मन में विचार उठा, "काश! हमारे देश के लिए भी कोई पर्सनल लॉ होता...ले देकर जो संविधान है, वह तो, सब को पर्सनल पर्सनल सा किए दे रहा है..!"  खैर, आगे "इतना आसान भी नहीं है युद्ध का फैसला" में बताया गया था कि "भारत पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध की दशा में दोनों ओर से एक करोड़ बीस लाख लोगों की मृत्यु हो जाएगी, पाकिस्तान तो नेस्तनाबूद तो हो ही जाएगा।" यह भी एक गुणा-गणित है। लेकिन युद्ध से शान्ति शायद मरघट वाली ही शान्ति होती है। "युद्ध से शान्ति" इसे मैं आदिम विचार भी मानता हूँ..तब शायद, शान्ति स्थापना के लिए एकमात्र विकल्प युद्ध ही रहा होगा। आज बहुत सारे विकल्प हैं। 
           बाद में घर से फोन भी फोन आया.. बोलीं, "इस बार इंडिया टूडे में महोबा के पहाड़ों के खनन पर रिपोर्ट आई है..." मैंने मन ही मन पूर्व में फेसबुक पर इस सम्बन्ध में किए गए अपने कुछ पोस्टों के बारे में सोचा... "वाकई! बात निकलती है तो दूर तलक जाती है..! चाहे कोई पढ़े या न पढ़े, सुने या न सुने। हाँ, बातों ही बातों में उन्होंने एक बात और कही, " सेना में भी बड़ा भ्रष्टाचार है...शहीद होने वाले सैनिक बेहद गरीब घर के ही होते हैं " इस बात पर कुछ सैनिक अधिकारियों के परिवारों के बी एम डब्ल्यू से चलने की बात याद आई। खैर, हम भारतीय हृदय से अपने सैनिकों का सम्मान करते हैं। 
          हाँ, यही आज की दिनचर्या थी..पता नहीं यह #बतकचरा तो नहीं है...!
        चलते-चलते -
       
         कोई भी निर्णय, हड़बड़ाहट में, पूर्वाग्रह में, क्रोध में, भावना में और बिना गुणा-गणित के नहीं लेनी चाहिए। 
                     --Vinay 
                     #दिनचर्या 14/20.9.16
        

शनिवार, 17 सितंबर 2016

कवि सम्मेलन और हिन्दी

              मेरा भी कवि सम्मेलन का ऐज ए श्रोता होने का अपना अनुभव है - 
   
          कवि सम्मेलन की शुरुआत पूरी तरह औपचारिकताओं के साथ हुई, श्रोता बेहद उत्साह में थे। गीत, वीररस, हास्य-प्रधान कविताओं का रसास्वादन लेते रहे। इस काव्य-मंच की अध्यक्षता एक नामी कवि महोदय द्वारा सम्पन्न हो रहा था। कवि-गण अपनी कविता पाठ के पहले इस कवि सम्मेलन के मंचाध्यक्ष का चरण-वंदन करना नहीं भूलते थे। कुछ कवि अध्यक्ष महोदय की प्रशंसा में उन्हें फॉरेन रिटर्न भी बता रहे थे, गोया जैसे हमारी हिन्दी भी कभी-कभार यूएनओ घूम आती है। 

        एक बात है, कवि लोग चुहलबाजी पर चुहलबाजी करते जा रहे थे, कवि सम्मेलन में पढ़ी जा रही कविताएँ हमें "सधुक्कड़ी-कविता" लग रही थी। भाषा के रूप में नहीं, भाव और शैली के रूप में मेरे भी एकदम समझ में आ रही थी ये सधुक्कड़ी-कविताएँ। 
          
         हाँ...सधुक्कड़ी पर मुझे याद आया....उन दिनों मैं हिन्दी में नया-नया था..! मतलब बोलने में नहीं, लिखने में..! मैं ठहरा ग्रामीण स्कूल में पढ़ने वाला...तब शहर में पढ़ने वाले एक शहरी लड़के के अनुरोध पर उसके लिए दहेज पर निबंध लिखा, जिसे उसे अपने स्कूल में दिखाना था। दूसरे दिन स्कूल से लौट कर आने पर मैंने निबंध के बारे में पूँछा, तो उसने बताया कि उस निबंध को मास्टर जी ने "सधुक्कड़ी भाषा" में बताते हुए रिजेक्ट कर दिया है। उस निबंध में दहेज लोभी को गाय-भैंस की संज्ञा दे दी थी।
          हालाँकि, तब मैं सधुक्कड़ी भाषा का बहुत मतलब नहीं समझता था। बड़ी कक्षाओं में जाने पर जब मतलब समझा तो एक दम संस्कृतनिष्ठ पर उतर आया था। एक बार संस्कृतनिष्ठ के चक्कर में मेरे परीक्षा में अंक ही कम आ गए थे। 
          ऐसे ही श्रोता-गण कविता सुनने में मस्त थे कि काव्य-मंच के अध्यक्ष महोदय के काव्यपाठ की भी बारी आ गई। अध्यक्षता कर रहे कवि महोदय, जैसे कि कवि सम्मेलनों की रवायत होगी कि मंच के अध्यक्ष सबसे अन्त में कविता पाठ करते होंगे, सबसे अंत में कविता -पाठ करने को उठे। अपनी गरू-गम्भीर वाणी में उन्होंने काव्यपाठ आरम्भ किया। मैं देखता रहा, इसी के साथ पांडाल में रह-रहकर हलचल सी हो जाती। मुड़कर देखता तो कोई न कोई उठ कर जा रहा होता। उनका काव्य-पाठ समाप्त होते-होते पांडाल लगभग खाली हो गया था।
            मैं भी उठ खड़ा हुआ। चलते-चलते कहीं से आवाज आई इन कवि महोदय ने तो एकदम बोर ही कर दिया...मैंने कहा, "नहीं भाई, इनकी कविताओं में गहरे अर्थ छिपे हुए हैं, इनकी कविता को समझने के लिए दिमाग की जरूरत होगी।" इस पर अगला बोला, "अब इतना दिमाग भी खाली नहीं है कि बैठकर इनकी कविता समझी जाए।" 
         हाँ..हम अपनी हिन्दी को ऐसी न बनाएं कि लोग हमारे हिन्दी के पांडाल को छोड़-छोड़ कर जाने लगें क्योंकि आज के जमाने में अब लोगों में इतना धैर्य और समय नहीं है कि आपकी भाषा के शब्दों का मतलब खोजते फिरें। हाँ, भाषा भाखा होती है, सधुक्कड़ी-वधुक्कड़ी कहना भाखा का अपमान है, और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी भी भाखा नहीं होती। उसपर भी नम्बर कम आएँगे। ज्यादा शास्त्रीयता के चक्कर में पांडाल खाली हो जाएगा। 
           -  विनय

समाज की परवाह

               कल, मन कुछ भारी था, बस यूँ ही महोबा में स्थित रहेलिया के सूर्यमंदिर की ओर निकल गए थे। मंदिर के भग्नावशेष कभी के इसकी भव्यता की कहानी बयाँ कर रहे थे। वहाँ नियुक्त कर्मचारी ने बताया कि इसकी पुरानी भव्यता को पुनः वापस लाने के लिए बजट आवंटित किया गया था, लेकिन बजट व्यय हो जाने के बाद काम रुक गया है...अब फिर से बजट आने पर काम होगा। देखा, थोड़ा काम हुआ भी था। काम यही था कि मंदिर के बिखरे पड़े पत्थरों को पुनः अपने पुराने स्थान पर रखते हुए मंदिर को पुराना स्वरूप दे देना! लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि मंदिर का स्ट्रक्चर समझने में परेशानी हो रही है। लेकिन आज ऐसी बात कहना समझ की बात नहीं मानी जाएगी। हाँ.. यदि मंदिर फिर से अपने पुराने स्वरूप को ग्रहण कर लेता है तो पर्यटन की दृष्टि से अच्छा होगा। मेरे देखते-देखते दो-तीन और कार सवार यहाँ आ गए थे। 
             
              इस वर्ष अच्छी बारिश होने से मंदिर के सामने का बड़ा सा तालाब भी भर गया है। अभी हम यहाँ के चौकीदार से यही सब बातें कर रहे थे कि पास के गाँव का एक साठ-पैंसठ की उम्र का व्यक्ति जानवर चराते-चराते आ गया था। हमारे साथ श्रीमती जी भी थी। अचानक उन्होंने हमसे पूँछ लिया कि यह मंदिर कब बना होगा तो मैंने उन्हें बताते हुए कहा कि खजुराहो के मंदिर जब बने होंगे उसी के आसपास या उससे थोड़ा पहले बने होंगे। असल में यह मंदिर आठवी-नौंवी सदी में बना था। अभी हम यह बातें कर ही रहे थे कि वह चरवाहा बोल उठा, "अरे! खजुराहो तो हम पहले गये हते..देखै लायक नहीं.." फिर इस व्यक्ति ने खजुराहो के मंदिरों को बनाने वालों को तमाम गालियों से नवाजने लगा था, हाँ..गालियाँ भी ऐसी कि खजुराहो की मूर्तियां ही शर्मा जाएं! उसकी गालियों को सुनते हुए मैंने सोचा, "हम आम भारतीयों का चरित्र ऐसा ही होता है...खजुराहो की मूर्तियों से शर्म तो आती है लेकिन, ऐसी गालियाँ बकने में कोई शर्म नहीं...!" खैर.. मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया। 
               
               हाँ..फिर इस व्यक्ति ने ओरछा का जिक्र करते हुए बताया कि वहाँ बहुत अच्छा स्थान है, वहाँ का मंदिर देखने लायक है। हरदौल के मंदिर के बारे में बताते हुए उसने हरदौल की कहानी सुना...असल में जुझार सिंह और हरदौल दो भाई थे। जुझार सिंह बड़ा था। हरदौल जब पैदा हुआ तभी इनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। उस समय जुझार सिंह की पत्नी यानी हरदौल की भाभी ने हरदौल को अपना दूध पिलाते हुए पाला-पोसा। बाद में, युवा होता हरदौल ताकतवर और सुन्दर था। जुझार सिंह के कुछ खास मंत्री उसके बढ़ते प्रभाव से चिन्तित से हो गए थे। तब इन लोगों ने जुझार सिंह के कान भरने शुरू कर दिए कि हरदौल का अपनी भाभी यानी जुझार की पत्नी के साथ अवैध रिश्ता है..और जुझार सिंह ने अपनी पत्नी के हाथों हरदौल को जहर खिलवा दिया..। मतलब हरदौल अपनी भाभी के हाथों जहर खा लिया। हाँ... चरवाहे ने आगे यही बताते हुए कहा....
       
           "मंत्री-अन्त्री रहईं ओनके...उनने चुगली कर देई...कहई, मैंने अपनी आँखों से देखा है..और फिर भी...जुझार सिंह न मानो!  तब भी चुगली करत-करत उनने कर दिया...और हरदौल ने कहा..मैं जिन्दा न पूरा करता रहा तो, मरने पर इनका क्यों पूरा करता रह ना?" (शायद हरदौल का आशय यही था जो बात जिंदा रहते सच नहीं थी तो मरने पर कैसे सच हो जाएगी..!) 
               
                इसके बाद चौकीदार ने आगे इसी में जैसे जोड़ते हुए हमें समझाने के अंदाज में कहा, "जब खा नहीं रहा था जहर तो उसमें यो हो जाता कि ये बात सच्च है.. इससे उनके मन में कि मैं जहर खाऊँ...मर गये..." मेरे फिर पूँछने पर कि जहर किसने दिया तो उसने कहा, "भाभी से दिलवाया"!
         
                आगे उस ग्रामीण ने फिर बताया, "मरते-मरते बारह-तेरह को मार गये और कहा...मेरे मरने के बाद मेरे वंश परिवार में कोई नहीं रह जाएगा और ये संन्त्री के भी कोई इनके न रह जाएगा।"
               
                   मैंने कहानी सुनी...सोचता रहा...
                 कल की #दिनचर्या बस यूँ ही बीत गई थी। 
और चलते-चलते -
              समाज में कोई क्या कह रहा है, हमें इन बातों की परवाह नहीं करनी चाहिए...कहने वालों के अपने-अपने स्वार्थ होते हैं। 
                               --Vinay 
                               #दिनचर्या 13/13.9.16

जीवन का रहस्य

              मेरे प्रिय मित्र श्री Rakesh Mishra जी की चिन्ता यही है कि, "पुस्तकीय पाठन में हम खुद के खूबसूरत पलों से अकसर दूर हो जाते हैं, विश्राम से परे हो जाते हैं..." और परिणामस्वरूप हम "खुद को पढ़ना...या...हम कहाँ से आए हैं! हमें कहाँ जाना है! और हम कौन हैं! पर सम्यक चिन्तन नहीं कर पाते हैं...." ऐसे प्रश्न, पहले भी हमें मथ चुके हैं, लेकिन, आज मित्र के प्रश्न ने मुझे कुछ कहने के लिए प्रेरित किया है...
           
           वाकई! यह प्रश्न मेरे लिए भी महत्वपूर्ण रहा है, मैं स्वयं अपने ब्लॉग "अकथ-मन" की टैग लाइन "आखिर, मेरे होने का मतलब क्या है!" लिख रखा है। यही नहीं मेरे लिखने की कोशिश भी तमाम ऐसे प्रश्नों का उत्तर खोजने का ही प्रयास होता है! इस लिखने की प्रक्रिया में, कभी-कभी ऐसे प्रश्नों का उत्तर पाने सम्बन्धी मेरे अपने विचारों की मौलिकता पर मुझे सन्देह होने लगता है, विचारों के दोहराव की आशंका बलवती हो जाती है। क्योंकि, कहीं का सीखा-पढ़ा विचार अवचेतन में घर किए रहता है और अवचेतन में घर किए यही विचार ऐसे प्रश्नों के उत्तर बन फूट पड़ते हैं। 
         
            वास्तव में! नए चिन्तन, नए विचारों के हम संवाहक कैसे बन सकते हैं, यहीं पर यह महत्वपूर्ण प्रश्न बन जाता है। फिर, प्रश्न खड़ा होता है, क्या पुस्तकें आत्मचिंतन की प्रक्रिया को बाधित करती हैं?मौलिक-विचार, आत्मचिंतन में ही उभरते हैं, और अपनी मौलिकता के लिए मैं भी पुस्तकें पढ़ने को तरजीह नहीं देता। इसीलिए किताबें पढ़ने में मेरी विशेष रुचि नहीं रही है। बल्कि मैंने, स्कूली पाठ्यक्रम या प्रतियोगी परीक्षाओं के दिनों में ही साहित्यिक पुस्तकें पढ़ी हैं, इधर के वर्षों में चार-छह किताबें ही पढ़ी हैं। वास्तव में, मुझे पुस्तकें पढ़ने की अपेक्षा आत्मचिंतन में अधिक आनंद आता है। शायद, आत्मचिंतन की प्रक्रिया में ही हमें अपनी मौलिकता से साक्षात्कार होता है, हम अपने को जान पाते हैं। यह जरूर होता है कि किताबें हमें सूचित करती हैं, और इस सूचना पर हम स्वयं को भी कस सकते हैं। 
           
              अगर हम काव्य या साहित्य की उत्पत्ति पर निगाह डालते हैं, तो इसके मूल में संवेदना की ही पृष्ठभूमि मिलती है। "यात्क्रौंच मिथुना" को देख, उनके हते जाने की पीड़ा से, प्रथम कवि की संवेदना मुखरित हुई तो, तमाम साहित्यकार अपनी संवेदनाओं के ही बल पर कालजयी रचनाओं के प्रणेता बने। यह सब आत्मचिंतन और तत्क्रम में आत्मबोध से ही उपजा रहा होगा। तब तो, किताबें भी नहीं छपा करती थी। वास्तव में, ज्ञान किताबों का मोहताज नहीं होता। अगर ऐसा होता तो, आज साहित्य और विज्ञान का भी अस्तित्व भी न होता। 
             
              हाँ, एक बात हम मान सकते हैं ; किताबों से हमें सूचनाएँ मिलती हैं, मतलब किताबें सूचनाओं की संवाहक होती हैं। इस रूप में किताबों का अपना एक अलग महत्व है। किताबें, सूचनाओं के माध्यम से संवेदनाएँ जगाने और संवेदनाओं से साक्षात्कार कराती हैं। जैसे, एक शहरी जीवन में रचे-बसे व्यक्ति को ग्राम्य-जीवन पर आधारित कोई उपन्यास पढ़ने को मिल जाए तो वह ग्राम्य-जीवन जिए बिना ही ग्राम्य-जीवन की अनुभूतियों का साक्षात्कार कर सकता है। किताबें बिजली के तार समान होती हैं जिनमें अनुभूतियों का करंट बहता है। एक बार बचपन में, बेसान्तर की जातक कथाएँ पढ़ते-पढ़ते मैं रोने लगा था। कहने का आशय यह कि किताबें, जो हम नहीं होते, हमें वह होने का एहसास दिलाती हैं, यही रस-निष्पत्ति भी है। ज्ञान भी और कुछ नहीं, अपनी अनुभूतियों का रसास्वादन है। तमाम तरह के साहित्य के अध्ययन से हमारी अनुभूतियों का भंडार समृद्ध होता है, कोई इस बात से सहमत हो या न हो, लेकिन मेरी अपनी मान्यता है कि ज्ञान हमें पारदर्शी भी बनाता है। हम पारदर्शी होकर ही स्वयं को जान सकते हैं, और इसके लिए हमें अनुभूतियों के व्यापक धरातल पर अवस्थित होना चाहिए। 
         
               हाँ, एक बात है, किसी कार्य के पीछे उद्देश्य भी निहित होता है। जैसे, कोई मनोरंजन के लिए, कोई समय बिताने के लिए, तो, कोई जो नहीं होता उसे जानने के लिए या फिर कोई इसलिए भी किताब पढ़ना चाहता है कि कैसे लिखा जाए, इसी प्रकार, कुछ लोग किताबें इसलिए भी पढ़ना चाहते हैं कि, किसी विषय पर कितने तरीके से सोचा जा सकता है! मतलब किताबें पढ़ते समय हम अपने पढ़ने के उद्देश्यानुसार ही अनुभूतियों से साक्षात्कार प्राप्त करते हैं। जैसे, हाल के दिनों में व्यंग्य-लेखन के सम्बन्ध में मेरी जिज्ञासा उठ खड़ी हुई है तो, जाहिर है हमें कुछ व्यंग्य की किताबें तो पढ़नी ही पड़ेंगी!  हाँ, अब "राग दरबारी" पढ़ने की इच्छा नहीं होगी क्योंकि इस उपन्यास के कथानक जैसे विषय-वस्तु की स्थितियों से पाठक बने बिना भी हमें साक्षात्कार होता रहता है तो, इसे पढ़ने का मन नहीं होता। एक जिज्ञासु-मन नई अनुभूतियों को ही पाना चाहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पुस्तकें शायद इसीलिए भी पढ़ी जाती हैं और शायद इसीलिए नहीं भी पढ़ी जाती। मतलब हम जो हैं की अपेक्षा जो नहीं हैं उसे ही जानना चाहते हैं। यहाँ, इस सन्दर्भ में, हम कह सकते हैं कि पुस्तकें खूबसूरत पलों से भी साक्षात्कार कराने और स्वयं को पाने में सहायक होती हैं। 
             
                    लेकिन यह काम केवल किताब ही कर सकती है ऐसा भी मैं नहीं मानता। आत्म-साक्षात्कार के पल और अनुभूतियों को पुस्तकों को पढ़े बिना, हम अपने आसपास की चीजों का बोध करते हुए पा सकते हैं। कल की #दिनचर्या में, एक साधू का जीवन जीता व्यक्ति जब यह कहता है कि, "सधुअई बहुत कठिन चीज है" तो मतलब यही निकलता है कि अभी भी वह "सधुअई" के "फन" को नहीं समझ पाया है। उसे बोध नहीं है। वैसे ही, जीवन के "फन" को समझना पड़ता है। जो जीवन के "फन" को नहीं समझ पाता उसी के लिए जीवन रहस्यात्मक होता है। 
           
             आज सुबह! पहाड़ों के बीच के सुन्दर सरोवर को देखने पहुँच गया था, यहाँ सूर्योदय और वातावरण के खूबसूरत अहसास से भर गया। लगा जीवन में कोई रहस्य नहीं है, जीवन तो बहुत ही पारदर्शी है, इसे पढ़ने के लिए किसी किताब की जरूरत नहीं होती...किताबें तो अनुभूतियों के व्यापारी पढ़ते हैं या फिर सूचना के आग्रही। 
              हम कहाँ से आए हैं, हमें कहाँ जाना है या हम कौन है, जैसे प्रश्नों का इन अनुभूतियों के समक्ष कोई अर्थ नहीं....ये हरियाले पेड़..इन पेड़ों, झाड़ियों..झुरमुटों...से बहती हुई आती भींनी-भींनी खुशबू...ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर खड़े पेड़..पत्तों-झाड़ियों पर उड़ती-मँडराती तितलियाँ..!
           
          हाँ...साथ में, पहाड़ों के बीच..सरोवर की जलराशि..! तैरती मछलियां..आहट पा इसमें कूद पड़ते मेढक..सरोवर में सूर्योदय के स्वागत में खिली कुमुदिनी..आसमान में उड़ते परिंदे...! सब कुछ तो पारदर्शी है..सहज और सुन्दर..! कुछ भी रहस्यात्मक नहीं..!! जो जैसा है वह वैसा ही बस अपने में बरत रहा है। शायद जीवन का भी यही उद्देश्य है। ये पेड़- पौधे, पत्तियाँ, तितलियाँ, उड़ते परिंदे..सरोवर की जलराशि...सूर्योदय...!!  ये हमसे, क्यों..कौन..कैसे, जैसे प्रश्न नहीं करते.! बस, अपने होने का एहसास जगाते रहते हैं....हम भी अपने होने का एहसास जगा पाएँ...यही हमारा परिचय है...हाँ, हमें कहीं नहीं जाना होता है! 
                       
                         आज मैंने यही सब विचार किया। 
           
                          चलते-चलते -
                          जीवन का रहस्य उसे बरतने और इसके एहसास में ही छिपा होता है! 
                   
                                                                                                                             --Vinay
                                                                                                                              #दिनचर्या 12/11.9.16

घास छीली

                हाँ, आज हमने जम कर घास छीली...। सुबह अलसाए हुए से थे, नहीं उठे, श्रीमती जी अकेले ही वाक पर निकल गई। चाय पीते-पीते आठ बज चुके होंगे...आज भी अखबार नहीं आया था। ध्यान आया बाहर घर के किनारे कुछ पेड़ लगाए हैं, वहाँ बड़ी-बड़ी घास उग आई है ; सो खुरपी लेकर आठ बजे से घास छीलना शुरू कर दिए। डेढ़ घंटे लगातार घास छीलते रहे। तब तक अच्छी खासी धूप हो आई थी। काम समाप्त कर उठे तो चक्कर सा आ गया फिर वहीं बैठ पाइप से जमकर चेहरे पर पानी का फव्वारा मारा। पूरी तरह भींग गए। जब राहत मिली तो घर में आए। प्यास लगी थी। श्रीमती जी लोटे में पानी और गुड़ का एक टुकड़ा देते हुए बोली, "लो अगर किसान होते तो ऐसे ही हल जोत कर आते तो गुड़-पानी देती"। खैर, गुड़ का टुकड़ा मुँह में डाल गटागट लोटे से ही पानी मैंने पिया।
               वैसे, यदि कोई कह दे कि वह किसानी करता है तो, उसे देखने वाले हेय दृष्टि से ही देखेंगे। 
          
              वास्तव में आज की #दिनचर्या कुछ ऐसे ही शुरू हुई थी। इसके बाद कुछ अन्य घरेलू कार्यों में लग गया था।
              कभी-कभी सहज होना बड़ा अच्छा लगता है। यह सहजता अपने में जीना है और यह "अपने में" सभी चीजों या परिवेश से जुड़ना होता है। जीवन में सहजता हमारे लिए दुर्लभ चीज बन चुकी है। लेकिन एक मिनट भी इस सहजता को जी कर देखेंगे तो बड़ा मजा आएगा! 
                 चलते-चलते -
             सहजता केवल घास छीलना भर नहीं होती...इससे आप पर्यावरण और परिवेश में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे होते हैं, जहाँ जीने की जगह बनती है। 
               इसी के साथ आज की राम-राम...

                                                                 --Vinay 
                                                                  #दिनचर्या 9/8.7.16

किताबें और नीली बत्ती

                कल मुझे लगता था कि आज की #दिनचर्या नहीं लिख पाएँगे!  कल ऐसा इसलिए कहा था कि केवल लिखने के लिए हम नहीं लिखेंगे और जब लिखने का मन तथा लिखने की परिस्थिति मिलेगी तभी लिखेंगे। हाँ, आज लिखने का मन भी हुआ और लिखने की परिस्थिति भी मिल गई। आज लखनऊ से महोबा ड्राइविंग करते हुए साथ में घर लिए हुए आया। साथ में, उनकी खुशी देख लिखने की हिम्मत आ गई और परिस्थिति भी मिल गई। सो, सोचा अब ऐसी परिस्थितियों में #दिनचर्या लिखने में क्या हर्ज! वैसे भी आज टोंका-टाकी नहीं होगी। 
                कल जब रावत साहब से मैं बात कर रहा था उसी समय बैंक से रिटायर्ड हुए एक हमारे पड़ोसी भी आ गए थे। बातों-बातों में उन्होंने हमसे पूँछ लिया आप अपनी गाड़ी में नीली बत्ती लगाते हो?  मैंने उन्हें बताया कि मेरा ड्राइवर मेरी सरकारी गाड़ी में नीली बत्ती लगाए रहता है। साथ ही मैंने यह भी कहा कुछ आवश्यक और संवेदनशील सेवाओं के लिए ही यह बत्ती अनुमन्य होती है। लेकिन, मैंने उन्हें यह नहीं बताया कि उस दिन लखनऊ आते समय मैं अपने निजी वाहन में नीली बत्ती लगा कर आया था। असल में महोबा से चलते समय मेरे सरकारी ड्राइवर ने एक पुरानी नीली बत्ती यह कहते हुए मेरे निजी कार पर लगा दिया कि रास्ते में कोई परेशानी नहीं होगी। खैर, उसकी बात सच साबित हुई थी। हाँ, निजी कार पर बत्ती लगाते समय मेरी नैतिक चेतना थोड़ी जागृत अवश्य हुई लेकिन इस चेतना को मैंने परे ढकेल दिया था। 
     
               आज भी महोबा लौटते समय इस नीली-बत्ती ने अपना पूरा दायित्व निभाया। महोबा क्षेत्र में हाल ही में जम कर हुई वर्षा से मैदान हरे-भरे दिखाई दे रहे हैं कास भी फूले हुए हैं,  दूर समूह में फूले हुए कास विशाल जलराशि का आभास देते दिखाई दे रहे थे। इन्हें देखकर श्रीमती जी ने एक कहावत सुनाते हुए मुझे बताया कि यह कहावत उन्होंने अपने दादी के मुँह से सुना था --
        
                               "बोलई गोह फूटई वन कासा, अब नाहीं बरखा की आशा।"
            जैसे मैं अपने दादाजी से बहुत प्रभावित रहा हूँ, वैसे ही श्रीमती जी अपनी दादी की बात करती हैं। खैर, मुझे यही पता था कि जब "कास बन फूले" मतलब यह शरद ॠतु के आगमन का संकेत है। 
            हाँ, एक बात और है, कल की दिनचर्या में कुछ बातें छूट (छूटी हुई बातों को अगले दिनचर्या में शामिल करने का सर्वाधिकार मेरे पास सुरक्षित रहेगा) गई थी, असल में कल मैंने बेमन से लिखा था, कल मैं हजरतगंज स्थित "यूनिवर्सल बुक स्टोर" गया था, बस ऐसे ही! यहाँ हमारे एक मित्र रणवीर सिंह चौहान की वह किताब दिखाई पड़ गई जिसे मैं पढ़ना चाहता था। असल में, मैं और रणवीर दोनों स्वास्थ्य-भवन में अपनी स. लेखाधिकारी की नौकरी एक साथ शुरू किए थे। बाद में वे उत्तराखंड पी.सी.एस में चयनित हुए और मैं उत्तर प्रदेश राज्य विकास सेवा में आ गया। वर्तमान में रणवीर भाई को आई.ए.एस. कैडर मिल चुका है। खैर.. उनकी किताब "स्याह, सफेद और स्लेटी भी" मैंने तुरंत ले ली। अब नौकरी में हम बहुत "सर..सर.." करते रहते हैं तो, अजय नावरिया की किताब "यस सर" जैसे शीर्षक से प्रभावित इस पुस्तक को भी खरीद लिए। इधर फेसबुक पर कुछ अधिक ही व्यंग्य-विधा पर चर्चाएँ पढ़ रहा हूँ तो, व्यंग्य के विद्यार्थी की तरह शरद जोशी की "घाव करे गम्भीर" और परसाई की "ऐसा भी सोचा जा सकता है" तो सोचने के चक्कर में खरीद लिया। इधर हाल के दिनों में फेसबुक पर श्री अनूप शुक्ल जी द्वारा ज्ञान चतुर्वेदी की पुस्तक की चर्चा "हम न मरब" काफी सुन चुका हूँ सो दिखाई पड़ने पर इसे भी खरीद लिया। अब साथ में श्रीमती जी की निगाह राही मासूम रजा की किताब "आधा गाँव" पर पड़ी सो उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए मुझे इस किताब को लेनी पड़ी, हालाँकि बहुत पहले किसी से माँग कर यह किताब मैं पढ़ चुका था। 
              काउंटर पर किताबों का दाम चुकाने के बाद मैंने इसके बारे में जब उन्हें बताया तो उनके चेहरे की रंगत देख लगा जैसे, मैंने कोई बुरा काम किया हो। 
         
           शायद, कल की बेमन की #दिनचर्या के पीछे का एक कारण यह भी रहा हो। वैसे, समय हर घाव भर देता है, तो आज किताबों के चुकाए मूल्य के बारे में हम यही फील कर रहे हैं। 
              हाँ..जैसे-जैसे इन किताबों को पढ़ते जाएंगे वैसे-वैसे यदि कोई हमारे हिसाब की बात हमें पता चलती है तो, आप मित्रों से भी शेयर करते रहेंगे। 
              शाम को आसपास के कुछ पहाड़ों पर चढ़ वहाँ पसरी हरियाली भी देख आए। श्रीमती जी ने कहा, "प्रकृति को अपने मूल स्वरूप में देखना ही ईश्वर दर्शन है"। मैंने मन ही मन सोचा, "जब धरती पर आदमी का साम्राज्य नहीं फैला रहा होगा तो धरती अपने मूल स्वरूप में ऐसी ही रही होगी।" खैर...
                पहाड़ के ऊपर बाबा गोरखनाथ की तपोस्थली की रक्षा करते हुए एक बाबा जी, जो दो साल पहले यहीं बाँदा से अपना घर छोड़ आए हैं और अपने घर से कोई मतलब नहीं रखते, ने कहा, "सधुअई बहुत कठिन चीज होती है।" यह सुन मैंने सोचा अपने फन के माहिर लोग ही अपना काम कर पाते होंगे। पहाड़ से नीचे आने पर पता चला कार के एक पहिए की हवा निकली हुई थी। पहिया बदला। पंचर बनवाने गया तो पता चला कोई पंचर नहीं है। श्रीमती जी ने कहा, "किसी ने शरारत की होगी।" मुझे भी यही बात समझ में आई। फिर हम दोनों महोबा के कीरत सागर पर पहुँचे। काफी देर तक इसके पानी में पैर लटकाए बैठे रहे। 
               हाँ, चलते-चलते एक बात कहना चाहते हैं -
        कभी-कभी, किसी बात की अच्छाई या बुराई पर बहुत नहीं सोचना चाहिए। 
                             --Vinay 
                             #दिनचर्या 11/10.9.16

जिन्दादिली

           वैसे, यह तो सब जानते हैं कि परिश्रम से अर्जित फल सभी को प्रिय होता है। कल पौधों के बीच से घास निकाला और आज चाय पीने के बाद फिर से इन पौधों के बीच खड़े इन्हें यूँ ही देखे जा रहा था। इस बीच कालोनी के ही एक रिटायर्ड कर्नल साहब, हाथ में बैडमिंटन का  रैकेट लिए हुए, जो उधर से ही गुजर रहे थे, मुझे देख मेरी तरफ मुड़ लिए। हाँ, उनकी उम्र यही कोई लगभग अस्सी पार हो चुकी होगी, पिछले जाड़े में इन्होंने अपनी शादी की पचासवीं सालगिरह मनाई थी। कर्नल साहब सुबह-शाम पास में ही पार्क में अपनी पत्नी के साथ टहलने भी जाते हैं और वहाँ बैडमिंटन भी खेलते हैं। 
              कर्नल साहब इस उम्र में भी भरपूर जिन्दादिल इंसान लगते हैं। वैसे भी, सेनावाले भले ही सेना में रहते हुए "डू एंड डाई" के अलावा और कुछ न जानते हों, लेकिन इस चक्कर में इनके अन्दर जिन्दादिली घर कर जाती है, जिसमें रिटायर्मेंट के बाद भी कोई कमी नहीं आती। तो, यही कर्नल साहब मुझसे बतियाने लगे थे। इस कालोनी में शायद सबसे पहले वही आकर बसे थे। कर्नल साहब ने ढेर सारी बातें की। ये गढ़वाली रावत हैं जो राजपूत होते हैं। अपने एक कुमाऊँनी साथी को लेकर बताया कि गढ़वाली भाषियों को कुमाऊँनी भाषा समझने में समस्या होती है। गढ़वाली लोग कुमाऊँनी को "मीन माइंडेड" भी मानते हैं। 
      
           बातों-बातों में कर्नल साहब ने बताया कि आजकल लोग खासकर ब्राह्मण और क्षत्रिय अपने-अपने कर्तव्यों को भूल गए हैं। कर्नल साहब ने पहाड़ों पर प्रचलित बकरे की बलि देने की प्रथा के बारे में बताया कि वहाँ ब्राह्मण इस बलि का प्रसाद ग्रहण करने में सबसे आगे रहते हैं और इस बलि में उनके हिस्से में गर्दन सहित बकरे का सिर और एक टांग आती है। मतलब सभी धर्मों की वही कहानी, हिंसा के लिए किसी एक धर्म को दोष नहीं दे सकते। इस तरह हमारे बीच काफी देर तक बातें हुईं। 
            आज भी यहाँ हाकर ने अखबार नहीं दिया था। टी.वी. से पता चला कि कॉमेडियन कपिल शर्मा कोई आरोप लगा रहे हैं। यहाँ तो क्या शहर, क्या गाँव सभी जगह यही कहानी है। गाँव वाला यदि अपनी अज्ञानता या गरीबी के कारण ऐसी स्थितियों का शिकार है तो एक सुविधा-भोगी पढ़ा लिखा शहरी इसलिए शिकार बनता है कि उसके पास समय नहीं है, और उसे भी अपना काम निपटाना होता है। यह रोग दोनों जगहों पर भयानक रूप से फैला है। 
          वैसे, आज का मेरी यह #दिनचर्या मैंने बड़े बेमन से लिखा है...लिखना नहीं चाहता था। सोच रहा हूँ जिस दिन लिखने का मन न हो उस दिन न लिखा करूँ...हाँ, शायद अगले दो दिनों तक न ही लिखूँ...!
          चलते-चलते -
        जो धर्म किसी को हिन्दू, किसी को मुसलमान, किसी को सिख या किसी को ईसाई बनाता है, वास्तव में वह धर्म नहीं होता। 
                 -- Vinay 
                 #दिनचर्या 10/9.9.16        

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

परमीशन की आवश्यकता

                       जब कोई #दिनचर्या लिखने बैठे तो मान लीजिए वह #बतकचरा कर रहा है। ऐसे ही, मैं भी अपनी दिनचर्या लिखता हूँ। यह बतकचरा ही है। लेकिन दिनचर्या लिखना मेरे लिए इतना आसान नहीं है, जब दिन अपना न हो। जैसे, कोई सरकारी सम्पत्ति, सार्वजनिक ही होती है, ठीक वैसे ही परिवार के बीच में होने पर मैं भी सरकारी हो जाता हूँ, मुझपर मेरा कोई अधिकार नहीं रह जाता और ऐसा कोई भी दिन तब मेरा अपना नहीं रह जाता। हाँ, जब दिन हमारा होता है तभी मैं दिन की चर्या लिख पाता हूँ.. आज का दिन मेरा अपना नहीं है, इसलिए आज की चर्या भी मेरी अपनी नहीं है। अगर ऐसे दिन को मैं अपनी चर्या मान भी लूँ तो इसके लिए परमीशन की आवश्यकता होती है ठीक उसी तरह जैसे कोई सरकारी नौकरी में छुट्टी और कार्यस्थल छोड़ने की परमीशन की जरूरत होती है, नहीं तो आरोप झेलने पड़ जाते हैं। बस यही हाल हमारा घर में होता है। 
                   आज तो अखबार भी नहीं पढ़ पाए। यहाँ लखनऊ में हाकर चार-पाँच दिनों से हड़ताल पर हैं। तो, आज की मेरी दिनचर्या स्थगित जैसी ही रही। 
                    वैसे फेसबुक की वाल खंगालते हुए खाट लूट लेने का जिक्र कई जगह देखा। खाट ही क्यों, यहाँ ऐसी कोई चीज नहीं जिसकी लूट न हो! कभी साड़ी, तो कभी कुछ! अब खाट की लूट भी सामने आई है। बात यह कि इस देश की जनता को हमने यही कुछ तो दिया है, और वह भी वोटों की खातिर! लूटनेवाले भी ऐसी नीयत पहचानते हैं। बचपन की कहानियों में भी पढ़ा था -
                    "राजा, जब कोई चीज उछालता है तो प्रजा उसे लूटने को टूट पड़ती है। 
                      आज की #दिनचर्या समाप्त। 
                                                                 --Vinay 
                                                                 #दिनचर्या 8/7.9.16

खच्चर देखा!

               आज अभी तक की #दिनचर्या यात्रा भरी सामान्य रही। लेकिन और दिनों की अपेक्षा स्टेडियम में टहलने वालों की संख्या में वृद्धि दिखी, जैसे कुछ नए चेहरे भी अब इस टहलबाजी में सम्मिलित हो गए हों। हाँ, युवाओं की संख्या कुछ ज्यादै दिख रही थी। वैसे, आज टहलबाजों में मुझे उत्साह भी दिखाई दिया। जब मैंने स्टेडियम का एक चक्कर लगाया तो कार वाला ग्रुप भी आ गया था। उन्हें पार करते हुए मैंने उनकी प्रशंसात्मक अन्दाज में भारतीय विदेशनीति पर आपस में हो रही वार्ता सुनी..जैसे अब किसी नए ढर्रे पर यह नीति चल निकली हो।
               दूसरा चक्कर पूरा करते-करते मैंने देखा, एक अधेड़ टाइप के बुजुर्ग आधा बैठते और फिर खड़े हो जाते.. उनको देख दूसरी ओर निगाह फेरी...तो एक सज्जन पुशअप करते दिखाई दिए.. कुल मिलाकर स्टेडियम में चहल-पहल की अनुभूति हुई.. हालाँकि, अभी तक भानु-भाष्कर का लाव-लश्कर नजर नहीं आया था, लेकिन आने का संन्देशा धीरे-धीरे हो रहे उजाले से मिल चुका था। मैं, तीसरा चक्कर पूरा कर, अरुणोदय से पहले ही यहाँ से खिसक लेना चाहता था, सो तीसरा चक्कर पूरा होते ही मैदान से बाहर आ गया।
                स्टेडियम के गेट तक पहुँचा तो देखा, खच्चरों का झुण्ड स्टेडियम के गेट की ओर बढ़ा आ रहा था। शायद ये भी टहलबाजी के उत्साह में आ गए हों?  तभी मैंने देखा! झुंड के पीछे से एक खच्चर महाशय अचानक जैसे झुंड से असहमत होते हुए अकेले ही वापस मुड़ लिए...मैं थोड़ा अचंभित हुआ! पलट कर गेट की तरफ देखा, कोई हाथ में डंडा लिए झुंड को स्टेडियम के गेट से लौटा रहा था।
                  आगे बढ़ा तो कोई राम-राम कह रहा था.. वह वृद्ध मुझसे अपरिचित था..किसी को भी आते-जाते देख "राम-राम" करने की उसकी आदत सी है...उत्तर में मैंने भी राम-राम कहा..
                 आवास पर पहुँचते ही लान पर के खरपतवार को हटाने लगा। इस बीच आज रामकिशोर ने चाय बनाई। चाय पीने के बाद अखबार तो मैंने पढ़ा था लेकिन आज एक ही बात लिख पा रहे हैं - कल के शिक्षक दिवस पर फेसबुक वाल रंगे हुए दिखाई दे रहे थे, दैनिक जागरण की एक खबर के अनुसार एक शिक्षक महोदय ने अति उत्साह में एक छात्र की इतनी पिटाई कर दी कि छात्र के परिजनों को उन गुरूजी के विरुद्ध थाने में प्राथमिकी दर्ज करानी पड़ी। हाँ, आज इस अखबार को पढ़ने से एक अन्य तथ्य का ग्यान प्राप्त हुआ, वह यह कि, यदि कोई पिता अपने पुत्र को आत्मनिर्भर बनाना चाहता है तो उसकी तस्वीर के साथ वाली अपनी तस्वीर को निकाल पुत्र के तस्वीर को अकेला छोड़ देना चाहिए।
        
                     वैसे आज महोबा से लखनऊ तक की ड्राइविंग की। अगला दिनचर्या हमारे वश में नहीं है।

                      अन्त में, आज का "बतकचरा" समाप्त हुआ।
चलते-चलते -
       
       जो अपने ईश्वर की आलोचना नहीं सुन सकता वह अपने ईश्वर से बहुत दूर होता है।

             --Vinay 
             #दिनचर्या 7/6.9.8