मंगलवार, 10 सितंबर 2019

आजादी का बखार

        जब १५ अगस्त २०१९ को तिरंगा झंडा फहराया जा रहा था, तो गर्व और देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत होते हुए मैंने सोचा था कि १९४७ में क्या खूब आज़ादी हमें मिली रही होगी, जैसे किसी गरीब भूमिहीन को बोरे भर भर अनाज मिल गया रहा हो।
      उस दिन दूर दराज के एक क्षेत्र में आजादी की जांच-परख करने जाना हुआ था तो वहां घिस‌इया दिखाई दिया था! वही घिस‌इया जो सड़क-चौराहे और गाँव-गिराव में चलते चलाते अकसर टकरा जाता है और जिसकी यदा-कदा चर्चा भी कर देता हूँ। उसे देखते ही मैं औचकते हुए पूँछ बैठा था, "अरे घिस‌ई, तू यहां कैसे, उस दिन तो तू शहर में मिला था!" घिस‌इया ने मुस्कुराते हुए, जैसे अपनी गरीबी पर फ़क्र करते हुए कहा था, "का गुरु, आप गरीबन को अस-तस समझते हो का, अरे ये आपको हर जगह मिल जाइहैं, बस आपका हृदै पवित्तर हो।" मैंने भी मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया था, "हाँ सही कहा, अपने देश में गरीब भी भगवान की तरह सर्वव्यापी होते हैं न, और हाँ पवित्तर हृदै वाले ही गरीब खोज पाते हैं।" खैर, उस दिन तो जाँच पड़ताल करके मैं चला आया था, लेकिन इस पंद्रह अगस्त के दिन मेरे दिमाग में चकरघिन्नी की तरह यह प्रश्न नाच रहा था कि सन् सैंतालिस में बोरे भर भर मिली आजादी के वितरण में घिस‌ईया अपना हिस्सा पाने से छूटा क्यों? और मैं उसकी यादों के सहारे अपना भाषण बुनने लगा।
       असल में घिस‌इया के बाप-दादाओं से कहीं चूक हुई होगी। आजादी के मतलब से वे नावाकिफ रहे होंगे इसलिए उनकी दिलचस्पी आज़ादी के लिए मतवाले हो रहे लोगों को कौतूहल से देखने के सिवा और कुछ न रही होगी, और इसे लपकने में वे चूक ग‌ए। एक बात और, जिन्हें आजादी के मायने पता होता है वे ही नेता बनते हैं और बनाते हैं, फिर तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह बनने-बनाने का खेल चल निकलता है। इसीलिए नेताओं की पीढ़ियाँ सबसे ज्यादा आजाद होकर घूमती है। इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे भारत देश इन्हीं के लिए आजाद हुआ है।
       वैसे ये करते भी तो क्या करते, इस भूखे नंगे देश में सभी को एक साथ आजादी बांटी नहीं जा सकती थी! ऐसा करने से अंग्रेजों से मिली आजादी का बखार खाली हो जाता और आजादी बांटने वालों के बच्चे भी घिस‌ईया की तरह आज मारे मारे फिर रहे होते। इसीलिए पंचवर्षीय प्लान के तहत शनै: शनै: आजादी बांटने की नीति अपनाई गई।   
         फिर क्या था आजादी के मालिकों में अंग्रेजों के लटके-झटके आ ग‌ए और अपनी मदद के लिए ये अंग्रेजियत की फौज खड़ी करते ग‌ए! इस फौज के साथ मिलकर ये आजादी का लुत्फ उठाना शुरू कर दिए। इनके लुत्फ पर कोई और मालिकाना हक़ न जताए इसलिए लबादे बुने ग‌ए, जैसे धर्म, भाषा, क्षेत्र, और तो और एक मायने में जाति के भी, क्योंकि नेताओं की आजादी के लिए ऐसे लबादे बेहद जरूरी हुए। इन लबादों को जनता की ओर उछाला गया, जिन्हें ओढ़-ओढ़ कर पगलाई-धगलाई जनता स्वतंन्त्रता की फुल अनुभूति प्राप्त करती रही है। कुलमिलाकर हुआ यह कि जैसे इन लबादों को बुनने के लिए ही हम स्वतंन्त्र हुए हों। 
       उस दिन गांव में आजादी की जाँच-परख करते करते मेरी निगाह बिना तार के बिजली के खम्भों पर चली गई, गांव वालों ने बताया आजादी के बाद से अभी तक बिजली नहीं आई, तो मैंने कहा "जैसे खम्भे गड़े वैसे बिजली भी आ जाएगी, थोड़ा गम खाओ, आजादी धीरे-धीरे आती है न।" इसी समय 'इंजिनियर कम ठेकेदार' ने कहा, "साहब, यह इंटरलाकिंग ईंटों की रोड मंदिर तक बना दिया है। आइए मंदिर तक चलें।" मैंने मंदिर की ओर जाती उस सड़क को निहारा जिसके एक ओर बस्ती तो दूसरी ओर खेत थे, लेकिन मुझे लगा इससे ज्यादा ज़रूरी उस गांव को जोड़ने वाले कच्चे रास्ते पर पुल की थी, क्योंकि बारिश के पानी ने रास्ते को काटकर तालाब में बदल दिया था। मैंने इंजीनियर की ओर देखते हुए कहा, "पहले पुल बनना चाहिए था।" तब तक साथ चल रहे मंदिर के पुजारी जी ने कहा, "आइए, मंदिर तक तक चलें.." पुजारी की ओर ध्यान से देखते हुए मैंने उसे जर्जर और निष्प्रयोज्य शौचालयों को दिखाते हुए कहा, "अच्छा ये बताइए, ये जो शौचालय बने हैं ध्वस्त होने के कागार पर हैं, कभी गांववासियों को इनका प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया है? नहीं किया है न, तो मंदिर तक मैं क्या जाऊँ! एक बात और पुजारी जी, इस गांव में कितनी गंदगी है! देख रहे हैं न, यहां के लोग बीमार जैसे दिखाई दे रहे हैं, कभी आपने इन्हें समझाया है कि अपने आसपास और स्वयं को साफ-सुथरा रखो? नहीं समझाया है न! तो आपके माथे के इस तिलक का कोई मतलब नहीं!" और वहां से चल दिया था।
         दरअसल यह सब मैंने झटके में बोल दिया था जिसके दो कारण थे। पहला, मंदिर में चढ़ावे के लिए मेरे जेब में प्रर्याप्त 'आजादी' नहीं थी, इसलिए मंदिर तक नहीं गया। दूसरे मुझे इस गांव में फुल आजादी का दर्शन नहीं हुआ। लेकिन पुजारी जी इसके बावजूद मुझे सुनकर मुस्कुरा रहे थे! उनकी इस मुस्कुराहट को मैंने उनके 'धर्म' का बड़प्पन माना जो मेरे प्रति 'क्रूर' नहीं हुआ।
       अरे हां! लबादे की बात पर मैं एक बात भूला ही जा रहा था, वह है स्वतंन्त्रता का लबादा! इस लबादे को बौद्धिकों के संम्प्रदाय के लोग ज़्यादा पसंद करते हैं! ये लोग क्रूरता में भी लोकतंत्र तलाशते हैं, तो गरीबी को आजादी का प्रतीक मानते हैं। यह बौद्धिक संम्प्रदाय जबरदस्त मानवीय होता है। इसमें लेखक, पत्रकार, मानवाधिकारवादी और स्वतंन्त्रता की चाह रखने वाले न जाने कौन-कौन से लोग शामिल हो जाते हैं और ये सुबह-शाम हुँहुँवाते रहते हैं। मुझे लगता है जब इनके जेब में 'आजादी' की कमी होती है, तभी हुँवा-हुँवा करते हैं अन्यथा घिस‌इया जैसों से, जो सत्तर साल से यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देता रहता है, ये कोई मतलब नहीं रखते। हां, बात की खाल निकालना ये खूब जानते हैं, लेकिन किसी समस्या का हल इनके पास नहीं होता! आजादी का ठेका न मिल पाने पर ये अकसर आजादी के 'कस्टोडियनों' के उठने-बैठने और उनकी हरकतों पर ही फोकस्ड होकर उसमें अपनी 'आजादी' ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन ये बौद्धिक संम्प्रदाय के लोग शेर के सामने मिमियाते हैं। अपनी आजादी का ये ऐसे ही प्रयोग करते हैं।
      खैर, उस गाँव से लौटते ही मुझे अपनी 'आजादी' की फ़िक्र हुई तथा मैं घिस‌इया और उसके गाँव को भूल गया, क्योंकि घिस‌ई या उसके गांव की आजादी में वृद्धि से मेरी आजादी कम होती। वैसे भी इस देश में दो लोगों की आजादी में परस्पर समानांतर रेखाओं जैसा नहीं, तिर्यक रेखाओं जैसा संबंध होता है। इसलिए इनको भूलकर केवल लिखने और भाषण देने के लिए मैंने उसे और उसके गांव को अपनी यादों में सुरक्षित कर लिया।

क्या बेवकूफी की बातें हैं!

         ऊपरवाला बड़ा करामाती होता है, नीचे वालों को नचाता रहता है। यह नीचे वाला बाकायदे बाजे-गाजे के साथ नाचता है। हालांकि यह ऊपरवाला कहीं नजर नहीं आता, इसके ऊपर होने का यही प्रमाण है कि हम इसे मानते हैं कि यह ऊपर है। कभी-कभी लोग हममें-तुममें सबमें इसके होने को प्रमाणित करते हैं, मतलब यह ऊपरवाला ऊपर-नीचे सबमें है। ऐसा हम इसे स्वप्रमाणित भी मानते हैं, हाँ इसके होने के लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं, सोच लेने भर से यह सिद्ध हो जाता है, नहीं तो ऐसा हम सोचते ही न, कि यह है। इसीलिए इस जगती का प्रत्येक चिंतनशील प्राणी अपने तर्कों को अपना परम सत्य मानकर स्वीकार किए बैठा है। ये अंतहीन लत्तेरे की-धत्तेरे की बहसें, इसी ओर संकेत करती है कि मेरी बात मेरे दिमाग से निकली है, तो जरूर मेरी बात का अस्तित्व है, बाकी, सारा डिबेट बेवकूफ बनाने के लिए होता है। 
       
         अब होना और करामाती होना दो चीजें हैं, किसी के होने से ही वह करामाती सिद्ध नहीं होता। ऐसे तो सभी हैं, तो क्या सब करामाती हैं? नहीं हैं न ! तो करामाती होने के लिए ऊपर होना जरूरी है, ऊपरवाला ही करामाती हो सकता है। यह ऊपरवाला ही है, जो नीचे वालों को अपनी अंगुलियों पर नचाता है, भले ही उसकी अंगुलियाँ किसी ने न देखी हो। दरअसल नीचे वालों को तमाम व्याधियों से बचे रहने के लिए, ऊपरवाले की अनदेखी-अंगुलियों के इशारे पर नाचना ही होता है। एक बात है इस ऊपरवाले के चक्कर में ये नीचे वाले ऐसे झूमते-गाते हैं जैसे मनोरोगी!
       
         यह ऊपरवाला वाकई करामाती है, और नहीं तो इसकी माया के वशीभूत हम नाचते न। यह मनोरोग नहीं, मायामय हो जाना है, इसी से ऊपरवाले का अस्तित्व पहचान में आता है !! इस ऊपर वाले के चक्कर में एक बात कहना है, ऊपरवाले और नीचे वाले के बीच इस मनोरोग या यूँ कह लें माया का ही संबंध है। यह संबंध हमें वहां तक ले जाता है कि प्रत्येक ऊपरी चीज हमें इस ऊपरवाले से कम प्रिय नहीं होती। यही कारण है, सब इसके लिए नाचते हैं और इसको पाने के लिए ऊपरवाले का संरक्षण चाहते हैं, जो अदृश्य होते हुए भी अपने नीचे वालों को संरक्षित किए रहता है।
       
        कभी-कभी हमें यह भी आश्चर्य होता है कि जिसके लिए हम इतना कूदते-फांदते हैं, रोते-गाते-हँसते हैं, छीना-झपटी पर भी उतरते हैं , वह तो सिद्ध-असिद्ध से ऊपर की चीज है। वैसे भी ऊपर की चीजें सिद्ध-असिद्ध के पचड़े में नहीं लाई जा सकती। बस इसपर केवल नाचा या कूदा-फांदा जा सकता है, और इसे देखकर ही ऊपरी-तत्त्व के अस्तित्व का अनुमान किया जा सकता है, क्योंकि ऊपर की हवा जिसे लग जाती है, उसकी हालत विचित्र हो जाती है।

           आजकल सकल हिन्दुस्तान को ऊपर की हवा लगी हुई है। सभी को दिव्य अनुभूति प्राप्त हो रही है, सब नाच-गा और कूद-फांद रहे हैं। बड़ी विचित्रता है अपने हिन्दुस्तान में !  एक अजीब सा आध्यात्मिक भाव पसर आया है हिन्दुस्तान में !! हां बड़ा शोर है यहां, कुछ भी पकड़ में नहीं।

मंगलवार, 3 सितंबर 2019

जीडीपी में परिवर्तन

       आजकल इस देश में जीडीपी के गिरने पर खूब हो-हल्ला मचा है, देश पीछे जा रहा है। अब जब देश पीछे जाएगा, तो कहाँ जाएगा? अगर इस ग्लोब पर देखोगे तो, अमेरिका और भारत भी आपस में आगे-पीछे होते रहते हैं ! चूँकि मामला अर्थव्यवस्था से जुड़ता है, इसलिए पीछे जाने का मतलब आज की अपेक्षा गरीब होने से लगाना यथोचित जान पड़ता है। अब जब देश गरीब होगा तो निश्चित ही इसका समय पीछे की ओर जाएगा। जो पाषाण युग तक देश को पीछे ले जा सकता है, क्यों है न? 
      तो हम मानते हैं, जीडीपी का गिरना इस देश को बाईसवीं सदी की बजाय एक बार फिर पीछे की ओर बीसवीं शताब्दी में ढकेल देगा और निनिहाते भारत का एक बार फिर दर्शन सर्वसुलभ होगा। आखिर क्यों नहीं होगा ? जब अर्थव्यवस्था डाउन होगी तो यही होगा। कुल मिलाकर समय परिवर्तन होगा ही और जीडीपी के गिरने के अनुपात में होगा। जितना यह गिरता जाएगा उतना देश का समय पीछे की ओर खिसकता जाएगा।
          अब अगर ऐसे ही जीडीपी का गिरना जारी रहा तो बीसवीं के बाद अट्ठरहवीं से उन्नीसवीं और फिर सत्रहवीं शताब्दी होते हुए देश की अर्थव्यवस्था मुगलकाल में पहुँच जाएगी। ऐसे में यहाँ एक बात ध्यातव्य है, आज इसके गिरने पर जो फूले नहीं समा रहे हैं, तब यही लोग गिरते-गिरते मुगलकाल की अवस्था तक आई जीडीपी को यहाँ से और नहीं गिरने देना चाहेंगे। तब धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर जीडीपी के स्थिर हो जाने की ये प्रार्थना करेंगे! मतलब धर्मनिरपेक्ष अर्थशास्त्रियों को आज की रेट की तुलना में मुग़ल काल तक ले जाने वाले जीडीपी का रेट स्वीकार होगा। लेकिन तब भक्त टाइप के अर्थशास्त्रियों को यहाँ भिनभिनाने का अवसर मिल जाएगा ! और ये बेचारे जो आज इसके गिरने से तमाम लानत-मलामत तथा ताने झेलकर चिंतित हुए जा रहे हैं, तब जीडीपी के गिरावट को भारत की सेहत के लिए रामबाण औषधि घोषित कर देंगे, क्योंकि वे नहीं चाहेंगे कि भारत की अर्थव्यवस्था मुग़लकाल में स्टे करे।
            मुगलकाल तक पहुंचकर स्थिर हुई जीडीपी के स्तर से दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री खुश होने से रहे। यहाँ आकर जीडीपी की छीछालेदर एक बार फिर तय मानिए। इसकी ऐसी खींचतान शुरू होगी कि दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री इसके गिरने के स्तर को, मुगलकाल से और नीचे ले जाकर भारत के सोने की चिड़िया होने वाले युग में पहुँचाना चाहेंगे। लेकिन वहीं वामपंथी अर्थशास्त्रियों को यह स्थिति नागवार गुजरेगी, क्योंकि इनके अनुसार इससे भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के साथ यहां आजादी और लोकतंत्र को भी खतरा पहुँचेगा। वहीं लगे दाहिने हाथ, दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री जीडीपी को और न गिरने देने की वकालत करने वालों को राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर देंगे, इनके अनुसार आखिर क्यों न पहुँचे भारत अपने सोने की चिड़िया वाले युग में! 
           अब जरा कल्पना करिए कि युगों से इस देश के जीडीपी की कितनी उठक-बैठक हुई होगी ! लेकिन पहले यह मसला दक्षिणपंथी और वामपंथी अर्थशास्त्रियों के बीच का नहीं रहा होगा। गरीब बेचारा अपनी गरीबी से संतुष्ट रहा होगा, इसीलिए इतिहास में इसपर इतना हो-हल्ला मचने की जानकारी दर्ज नहीं है। लेकिन इधर जब से विकास को राजनीति का हथियार बनाया जाने लगा है तब से अर्थव्यवस्था के आँकड़ो को गरीबों को दिखाना जरूरी हो चला है कि देखो इस सरकार ने तुम्हारी स्थिति सुधारी कि बिगाड़ी है। लेकिन इन आँकड़ों को देख सुनकर गरीब यह नहीं समझ पाते कि इसे लेकर वे हँसें कि रोयें। यहीं पर आकर मुझे इस बात की चिंता होती है कि इस पर मचे हो-हल्ले से, यदि कहीं इस देश का गरीब जाग गया तो वह जीडीपी को मनरेगा जैसी कोई योजना न समझ बैठें !
          खैर, मुझे जीडीपी और अर्थव्यवस्था पर पड़ते इसके प्रभाव का ज्ञान नहीं है। लेकिन मैं भी, जब से लोग जीडीपी-जीडीपी चिल्लाने लगे हैं, तब से इसे मनरेगा जैसी कोई योजना ही समझने लगा हूँ। साधारण भाषा में इसे हम इस तरह समझा सकते हैं कि भारत जैसे देश में जीडीपी के बढ़ने या घटने से केवल गरीबों के पतरी (पत्तल) चाटने पर असर पड़ता है। अगर बढ़ गई, तो चाटने को कुछ ज्यादा मिल सकता है और घट गई तो चाटने भर को भी कुछ नहीं बचेगा, क्योंकि यहां जो गरीब नहीं होता उसका पेट बहुत बड़ा होता है, और सारी जीडीपी उसी के पेट में जाती है, जैसे मनरेगा की मजदूरी! इसीलिए गरीब बेचारे जीडीपी से मतलब नहीं रखते। इस पर ज़्यादा चर्चा करना दक्षिणपंथी और वामपंथी अर्थशास्त्रियों के खेल को शह देना भर है, जो राजनीति करते हों वही शह-मात का खेल खेलें।