शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

खोए गणतन्त्र का गौरव गान....

             एक के बाद एक कतार में..., साहब..! हमार नाली नाहीं बनइ देत हैं..., हमार पेड़ कट लिए..., हम गरीब हैं हमका राशनकार्ड नाहीं मिला..., हमार राशन-कार्ड काट दिहेन..., हमें मनरेगा में काम नहीं मिला..., हमरे जमीन पर कब्जा कर लिए है..., हमका आवास चाहे..., साहब हमका मरा देखाई दिहेन..., जमीन हड़प लिए..., हमका मारेन हैं..., साहब समस्यई-समस्या है..., हाँ...यही सब तो सुनने को मिलता है...राज्य-दिवसों में..!
        और साहबों की समस्या क्या है..? वह यह कि लोगों की इन समस्याओं का निदान होना चाहिए...लेकिन जैसा कि एक साहब के शब्दों में.. “समस्याओं का हल होना तो जरुरी है लेकिन हमारे अस्तित्व के लिए कुछ न कुछ समस्याओं का बना रहना भी जरुरी है...” सही बात है...समस्याओं के इस खेल में रोजी-रोटी भी छिपी हुई है...नहीं तो...बिन समस्याओं के हम भूंखे रह जायेंगे...बेरोजगार हो जाएंगे...! और यह राज्य-व्यवस्था...! हाँ...यह भी तो इस समस्या के खेल की ही उपज है...न हम समस्या उत्पन्न करते..न इसके नियमन की और न राज्य की...जरुरत पड़ती...फिर सबका खेल ठप होता...
        अंग्रेजों से लड़ाई...स्वाधीनता....और फिर....हमारा यह गणतन्त्र...! मतलब हमारी समस्या से दूसरे क्यों खेलें...? फिर तो इसे खेलने के लिए हम ही पर्याप्त हैं...समस्याओं की छीना-झपटी...चलो हमारा स्वतंत्रता आन्दोलन हमें समस्याओं के साम्राज्यवाद से समस्याओं के राज्य-वाद पर आकर टिका दिया...एक साम्राज्यवादी तत्व से छीन कर हम अपनी समस्याएं निकाल लाए...और...अब समस्याएं केवल हमारी थी...लेकिन फिर भी ये बनी रहीं..! अब आया गणतंत्र का राज्य-वाद...! क्या इस अवधारणा को बनाए रखना होगा...और...यह गणतंत्र हमारा...क्या समस्याओं के नियमन की व्यवस्था भर है...?
       तो...क्या व्यक्ति व्यपहरित है...? किसके द्वारा...? क्या साम्राज्यवादियों द्वारा...? क्योंकि समस्याओं की कतार बनी हुई है...समस्याओं से रोजी रोटी है...समस्याओं का महत्त्व है...इसका अंत नहीं होना है...फिर तो...इन समस्याओं ने ही व्यक्ति को व्यपहरित कर लिया है...मतलब राज्य ने व्यक्ति को व्यपहरित किया है...क्योंकि समस्याओं से राज्य..! नहीं...नहीं...व्यक्ति से उसका राज्य चूस लिया गया है...अब तुम व्यक्ति भी नहीं रह गए हो...बस मात्र समस्या भर हो...क्या यही राज्य-व्यपहरण का सिद्धांत है...? या हम मान लें अब हम साम्राज्यवादी होते जा रहे हैं..,व्यक्ति से उसका राज्य छीनते जा रहे है...और...साम्राज्यवादियों से हर तरफ से अतिक्रमित यह व्यक्ति समस्या भर है...साहब भी साम्राज्यवादी और उनसे भी बड़े तमाम तरह के साम्राज्यवादी...! फिर गणतंत्र काहे का....किस राज्य के लिए...! 
        क्या हमने गणतंत्र को इसीलिए हासिल किया था की साम्राज्यवादी-समस्या से छुटकारा पा जाएँ...और...राज्यवादी-समस्या बना उसका नियमन अपने हाथ में कर ले बस..!! और यह कतार अब भी हमारे लिए यूँ ही बनी रहे..? फिर वह आजादी...और...लालकिले का गणतंत्र...! ये सब इन्हीं समस्याओं में साम्राज्यवादियों के चंगुल में खो से गए है...!
        वास्तव में....व्यक्ति..! तुम अपने राज्य के नियम-विधायक सदस्य नहीं हो..., मान लो..! तुम व्यपहरित हो समस्याओं से.., किसी रोजी-रोटी वाले साम्राज्यवाद से...!! क्योंकि उनके जाने के बाद इस राज्य ने अपने साम्राज्यवादी पैदा कर लिए हैं...! तुम्हें तो स्वयं राज्य होना था...जिसके तुम स्वयं ही नियम विधायक सदस्य बनते...तुम खुद अपना गणतंत्र होते...!! लेकिन हुआ क्या तुम्हारा स्वराज तो दूसरे के साम्राज्य में खो गया...और...खोने का यह खेल बढ़ता ही जा रहा है क्योंकि अब साम्राज्यवादी पैदा हो रहे है...कतार दर कतार...साम्राज्यवादी..! चलो किसी दिन यह कह कर हम चैन की बंसी बजा लेंगे देखो...हमारे यहाँ साम्राज्यवादियों की संख्या बढ़ गयी है हमारा उद्देश्य पूरा हुआ..हम प्रगति किए...गणतंत्र तो इस प्रगति में बाधक होता...!
         लेकिन हमारी तो रोजी-रोटी चलती रहेगी हमारे अपने साम्राज्य में.., और तुम.., तुम्हारा तो राज्य ही खो गया है तुम्हारी इन समस्याओं की कतार में.., जाओं अपना राज्य और अपना गणतन्त्र खोजो...छब्बीस जनवरी के दिन शायद झंडा फहराना हो..., लेकिन वह झंडा भी तुम नहीं फहरा पाओगे..वह गर्वाधिकार हमारे पास सुरक्षित है...क्योंकि तुम राज्य विहीन हो...!
         हाँ तुम्हारे हिस्से तुम्हारा वह कागज का टुकड़ा, जिसे तुम समस्याओं की कतार में से निकल कर हमें पकड़ा रहे थे...और मैं गर्वित अपने साम्राज्य के ऊंचे पायदान से तुम्हें फटेहाल अर्धविक्षिप्त समझ.., तुमसे उस कागज के टुकड़े को थाम लिया था..., उत्सुकतावश उस मुड़े-तुड़े कागज को जब खोला तो यह लिखा मिला जो शायद तुम्हारे द्वारा ही लिखा गया होगा...पढ़ा....
         “सामने से जो चिड़िया गुजरती है
         भारत माता की जय,जय वह भी कहती है
         समाज देश में
         देश संसार में
         और ऐ देशवासियों
         कोशिश करो
         राष्ट्रहित से भिन्न
         कोई काम न हो
राष्ट्रकवि - ********” (इन स्वघोषित राष्ट्रकवि का नाम न दे पाने के लिए क्षमाप्रार्थी क्योंकि मैंने उन्हें फटेहाल अर्ध-विक्षिप्त कहा है, अवमानना का दोषी बन सकता हूँ)   

            अब मैं समझ गया था तुम्हारे इस फटेहालपने का कारण..., पता नहीं तुम किस मन के अधिनायक हो...! जाओ समस्या के राज्य-वाद के विधाता बन लुटे-पिटे अपने भाग्य पर इतराओ..., यह झंडा तो हम साहबों के हाथ से ही फहरेगा...और तुम राष्ट्रकवि बन...झंडे को सलामी दे अपने खोए गणतन्त्र का यह गौरव-गान गुनगुनाओ...तुम्हारा राष्ट्रहित इसी में..., बेशक...! यही तुम्हारे हिल्ले...भारत माता की जय....       

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