एक अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर मैंने राष्ट्रीय न्यायिक
नियुक्ति आयोग अधिनियम २०१४ के सम्बन्ध
में पढ़ा जो संविधान संशोधन १२१ के माध्यम से पारित किया गया। इसके लिए संविधान के
अनुच्छेद 124 और 217 में संशोधन किए गए। उक्त संविधान संशोधनों के द्वारा उच्चतम
न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के नियुक्ति के प्रावधान हैं। इस आयोग
में छह सदस्य होंगे- भारत के प्रधान न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ
जज, केन्द्रीय विधि व न्याय मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति। इनका चयन प्रधान
न्यायाधीश, प्रधान मंत्री एवं लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता की एक समिति करेगी। सुधांशु
रंजन के लेख में उपरोक्त जानकारी देते हुए अदालत में इस अधिनियम के विरोध
में दायर याचिका, जिनमें कहा गया है कि इससे न्याय पालिका की स्वायत्तता पर आघात
पहुँचेगा, की चर्चा करते हुए कुछ प्रश्न भी उठाये हैं। लेख के अंत में लेखक ने
अपने विचार दिए है कि सरकार को आयोग में दो विशिष्ट व्यक्तियों में कम से कम एक
सिविल सोसायटी से लेना चाहिए। लेकिन निम्नलिखित प्रश्न लेखक ने नहीं उठाए।
प्रश्न यह नहीं है कि यह आयोग कैसे काम करेगा या इससे न्यायपालिका की
स्वायत्तता पर आघात पंहुचेगा या नहीं। मेरे
लिए प्रश्न यही है कि इस अधिनियम में आयोग के लिए दो प्रतिष्ठित सदस्यों के चयन की
जो व्यवस्था है कहीं वह संविधान के मूल ढाचे के विरुद्ध तो नहीं है, जिसके कारण
न्यायपालिका की स्वायत्तता पर चोट पहुँच सकती है, क्योंकि संविधान के अनुसार
संवैधानिक संस्थाओं में पदाभिहित व्यक्ति ही अपने पद की सीमाओं में विशेषाधिकार
संपन्न या विशिष्ट व्यक्ति माने जाते हैं तथा भारत के शेष अन्य सामान्य नागरिक उन्हें
संविधान प्रदत्त समानता संबंधी संवैधानिक मूलाधिकार प्राप्त है। तो फिर प्रश्न यही है कि
क्या संविधानेतर किसी भी व्यक्ति को विशिष्ट या प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जा सकता
है? यदि हम ऐसा मानते हैं तो क्या यह संविधान प्रदत्त नागरिकों के समानता के मूल
अधिकार का उल्लंघन नहीं है? और यदि ऐसा है तो स्वयं में यह आयोग ही संविधान की
मूलभावना के विरुद्ध है तथा न्यायपालिका की स्वायत्तता का भी अतिक्रमण करेगा।
चलिए हम
यदि यह भी मान लें कि सिविल सोसायटी से विशिष्ट व्यक्तियों का चयन कर लें तो फिर
वही प्रश्न उठता है कि आखिर क्या सिविल सोसायटी कोई संवैधानिक संस्था है? अन्ना का
आंदोलन भी तो सिविल सोसायटी का आंदोलन माना गया था, लेकिन एक एक कर उसके सदस्य
राजनीतिक दलों के सदस्य बनते गए। यदि ऐसे लोग विशिष्ट माने जाएँ तो भी इनकी
निष्पक्षता की क्या गारंटी होगी? मानते हैं कि संविधान में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों
के विशिष्ट व्यक्तियों को राज्य सभा में सदस्य नामित किये जाने का प्रावधान है
लेकिन वह दूसरे अर्थों में है। उसकी तुलना हम इस आयोग के सदस्यों से नहीं कर सकते। इन
सब बातों पर ध्यान देने की जरुरत है।
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