सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

हुडदंग...!

              
             उस दिन सड़क मार्ग से गुजरते हुए...आँखें बंद किए...मैं सोचता जा रहा था...आज...घर जल्दी पहुँचना है... क्योंकि इधर कई दिनों से घर नहीं जा पाया था... अचानक...एक हल्के से... धक्के से... आँख खुल गयी... ड्राइवर से पूँछा,
               “क्या बात है भाई...गाड़ी क्यों रोक दिया..?”
                          “सर... आगे जाम लगा है..|” ड्राइवर ने स्थिति से अवगत कराते हुए कहा|
            तब-तक ड्राइवर कार से उतर चुका था...मैं..थोड़ा बेचैन सा हो गया था...क्योंकि यहाँ विलम्ब होने पर ट्रेन छूटने का डर था...और..अगर यह ट्रेन छूटी..तो फिर देर रात तक प्लेटफार्म का नजारा देखते रहना पड़ेगा...फिर...अगली सुबह ही घर पहुँच पायेंगे...हाँ...बेचैन होने का कारण यही था....ड्राइवर द्वारा कार के गेट खोलने की आवाज से सोचने का तारतम्य फिर टूटा..
             मैंने उससे पूँछा-
             “क्या हाल है.....?”
             “अरे..सर..! कुछ पूँछिये मत...बहुत लम्बा जाम है...इसे खुलने में काफी वक्त लगेगा..|” ड्राइवर ने मायूसी से कहा| 
     शायद उसे भी मेरी चिंता की चिंता थी | मैंने पलट कर अपनी गाड़ी के पीछे देखा... अब तक मेरी गाड़ी के पीछे भी कई गाड़ियाँ आ कर खड़ी हो चुकी थी..|
              “यार ये बताओ यह जाम-साम क्यों लगा है...|” मैंने थोड़ा तल्ख़ लहज़े में उससे पूँछा| हालांकि मेरी यह तल्खी ड्राइवर के ऊपर नहीं थी|
               “क्या बताएं सर...आजकल दुर्गापूजा जो नहीं चल रहा है...! वही...आगे मूर्ति विसर्जन का जुलूस चल रहा है...|” ड्राइवर ने बड़े शांत स्वर में जबाव दिया..|
               “ओह....! गए काम से...!” मेरे मुँह से निकला|
              “हाँ सा..ब एक घंटे से अधिक समय लग सकता है...लम्बा जुलूस है...|” गर्दन को थोड़ा ऊपर उठाकर आगे की ओर उचक कर देखते हुए उसने कमेंट्री करने के अंदाज में जानकारी दी|
                मन थोड़ा सा खिन्न हो चला था...पैर फ़ैलाने की कोशिश में कार की सीट पर अब तक पसर चुका था...| ड्राइवर भी अपनी सीट पर बैठ चुका था...लेकिन आराम और जाम खुलने के इंतजार की मुद्रा में!
              मुझे अब विश्वास हो चला था...मेरी ट्रेन छूट जाएगी...मैंने छाई चुप्पी को तोड़ते हुए कहा,
              “ये पूजा है कि हुडदंग है...!”
             “खाली-पीली किसी को कुछ काम तो है नहीं... अरे साब...यही नहीं इस जुलूस में लड़के शराब पी कर भी नाच रहे होंगे...पिछले साल ऐसे ही...” वह शायद किसी घटना का वर्णन करना चाह रहा था....लेकिन सोने की मुद्रा में...मेरी आँखों को बंद देख चुप हो गया|
                याद आया..अभी पिछली गर्मियों में जब परिवार के साथ घर जा रहा था तब स्वयं गाड़ी चला रहा था...एक कस्बे में प्रवेश करने ही वाला था...आगे पुलिस वाला रास्ता रोके हुए खड़ा था...मुझे रुकने का इशारा कर दिया...हाँ ताजिए का जुलूस निकल रहा था...पौन घंटे बाद ताजिया गुजरने के बाद जाने दिया गया था...|
             तभी ड्राइवर ने कार का हार्न बजाया... तन्द्रा भंग हुई...उत्सुकता वश सारथी से पूँछा,
              “क्या जाम खुल गया...?” अभी भी ट्रेन पकड़ लेने की क्षीण सी आशा बची थी|
           “नहीं साहब...शायद नहीं...|” अनमने ढंग से उसने कहा| शायद उसे कुछ गलतफहमी हुई थी|
             अब मैं निराश हो गया था...अपने तनाव को कम करने के प्रयास में ड्राइवर से बतियाने लगा...
            “पहले तो यह त्यौहार इस रूप में तो नही मनाया जाता था..!” मैंने बात बढ़ाई|
           “हाँ..सर...हम लोगों के समय तो रामलीला का ही हर जगह चलन था...| मेरे अनुमान को सही ठहराते हुए उसने कहा|
             लेकिन मेरा ध्यान उसका कभी मुझे ‘साहब’ और कभी ‘सर’ कहने पर था...इस बार उसका ‘सर’ कहना मुझे अच्छा लगा...विश्वविद्यालयी दिनों में सीनियर छात्रों को हम लोग 'सर' ही सम्बोधित करते थे...लेकिन कोई मुझे ‘साहब’ बोले यह पसंद नहीं...! यह शब्द सुनते ही बचपन में पढ़ा कबीर का यह दोहा बरबस याद आ जाता है-
                     साहब से सब होत हैं, बन्दे ते कछु नाहिं
                     राई  ते  पर्वत  करे , पर्वत राई  माहिं
             हाँ....इस दोहे के याद आ जाने के बाद “साहब” शब्द का संबोधन मुझे व्यंग्य जैसा प्रतीत होने लगता है..!
             “अब तो रामलीला भी दशहरा मेले में रावण-दहन कार्यक्रम तक ही सीमित हो गया है...और...सर...रावण-दहन भी टीवी लाइव हो गया है...|’’ ड्राइवर के इस वाक्य से मैं वर्तमान में आ गया..मोबाइल में समय देखते हुए झल्लाहट भरे स्वर में बोला-
               “पता नहीं.. क्यों लोग...बेचारे रावण को ही बार-बार जलाते हैं...अपने को क्यों नहीं जला डालते....सब रेटिंग का खेल है!” कह मैं चुप हो गया| वह बेचारा मेरा मुँह ताकने लगा था..!
              “अरे..सर बस जाम खुलने ही वाला है....” मेरी परेशानी को भांपते हुए उसने कहा|
              कार अब बढ़ चुकी थी... देर होना था...सो हो चुका था...| प्लेट फार्म पर पहुंचा तो ट्रेन जा चुकी थी...अगली ट्रेन की प्रतीक्षा के अलावा कोई चारा नहीं था.....कुछ घंटे प्लेटफार्म पर अकेले बिताने थे...| मैंने ड्राइवर को विदा कर दिया था...प्लेटफार्म पर भीड़ कम थी एक बेंच खोज कर मैं अर्ध-निमीलित आँखें ले...उस पर बैठ चुका था...तभी एक ट्रेन दूसरे प्लेटफार्म पर आ कर रूकी उस पर चढ़ते-उतरते यात्रियों को ध्यान से देखने लगा....काश...! मैं भी समय पर पहुँच गया होता तो....!
               उस ट्रेन के गुजर जाने के बाद प्लेटफार्म खाली हो चुका था....सन्नाटा पसरा...बस रह-रह कर कबूतरों की गुटरगूं...जो प्लेटफार्म की छत के एंगिल पर बैठे हुए थे...ही सुनाई दे रहा था...एक कुत्ता कही से...आराम से चलते हुए...मेरे सामने ही आकर बैठ गया था...मैंने सोचा वास्तव में यदि मानव का कोई सच्चा साथी है तो वह कुत्ता ही है... द्वापर में पांडवों के साथ यह हिमालय के पहाड़ों तक चला गया था...! और आज कलियुग में भी उसकी यह आदत नहीं छूटी है...अंतर है तो बस यात्राओं का..! यह भी बड़ा विचित्र जीव होता है..! पता नहीं मानव जैसे जीव से इसकी इतनी क्यों पटती है...! वह कुत्ता धीरे से उठा...और मुझे अकेला छोड़...वहां से चल दिया...शायद मेरे मन की बातों को ताड़ वह परेशान सा हो गया हो...!
              मन ही मन...मैं रह-रह कर उस क्षण को कोस रहा था जब मूर्ति-विसर्जन का वह जुलूस सामने आ गया था.... क्या धर्म भी प्रदर्शन की चीज है...! हमारे बचपन में तो ऐसा कुछ भी न था...हाँ जब पहली बार कस्बे में दुर्गा की मूर्ति स्थापित हुई थी तो उसे बड़े ही कौतूहल से देखा था....भरे बाजार में स्थापित मूर्ति को देखकर इसे स्थापित किए जाने का कारण भी पूंछा था...नवरात्रि में माँ की पूजा...हाँ..यही कारण बताया गया था उसे....तब इस मौसम में वह रामलीला को ही जनता था...इसे देखने के लिए कितना उल्लसित होता था...! सांझ ढलने के पहले ही हम सारे बच्चे अपनी-अपनी जगह पक्की करने के लिए टाट बिछा आते थे...रावण का हँसना उसे अब भी याद है...लक्ष्मण-शक्ति पर बड़े भाई राम के विलाप का बेसब्री से इन्तजार रहता था...! अरे हाँ...धनुष-यज्ञ में भी तो बड़ा मजा आता था...! और तो और किसी दृश्य के प्रारंभ या विशेष प्रसंग के समय गाए जाने वाले ढोल-मजीरों और हारमोनियम के बीच चौपाई का वह राग उसे अब भी याद आता है....बचपन में यह सब कितना सम्मोहक था...!
             बचपन में यह सब देख वह कितना प्रेरित होता था...! धनुष-बाण बना कर सारे बच्चे मिल कर आपस में खूब खेला करते थे...उसे आज भी याद है...रामलीला से ही प्रेरणा लेकर जब एक बार उसने कुछ बच्चों के साथ मिल एक नाटक खेला था...! हाँ उस नाटक में एक महिला पात्र की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण थी...लेकिन शर्म के मारे कोई उस महिला पात्र की भूमिका नहीं निभाना चाहता था...कारण... हम बच्चों द्वारा खेले जा रहे उस नाटक को घर के बड़े लोग भी देखना चाह रहे थे...एक समय ऐसा भी आया था जब उस महिला पात्र के लिए हम बच्चों के बीच से कोई तैयार नहीं हो रहा था तो नाटक न खेलने का निर्णय कर लिया गया था...तब आचानक स्वयं आगे आ कर उसके लिए मैं तैयार हो गया था... बाद में इसके लिए उसे सराहना भी मिली थी..खैर उस समय हम ग्रामीण बच्चों के लिए रामलीला प्रेरणादायी भी सिद्ध होता था....
               ....लेकिन आज....! बाजारों में... और यहाँ तक कि गावों में भी स्थापित होने वाली दुर्गा-मूर्तियों के झरोखे मात्र सजे हुए दुकान की तरह ग्राहकों के आने की प्रतीक्षा करते प्रतीत होते हैं... आखिर यह तमाशा क्यों किया जाता है...जैसे...सब आस्था का मजाक उड़ाते प्रतीत होते हैं...! या यह कहीं हमारी उस आदिम मानसिकता को तो नहीं प्रदर्शित करता...जिसमें किसी देवता को स्थापित कर आदिवासी समूह नाचते-गाते नृत्य करता हुआ दिखाई देता है...फिल्मों में ऐसे दृश्य तब लिए जाते हैं जब हीरो या हिरोईन किसी आदिवासी समूह के बीच पड़ जाते हैं और उस आदिवासी समूह का मुखिया अपने देवता के सामने उन्हें बलि देने की तैयारी करता है.... फिल्मों में ऐसे दृश्यों को हम हिकारत से देखते हैं......! तो फिर... आज के इस सभ्य समाज में हम उसी आदिवासी मानसिकता का आचरण करते दिखाई क्यों देते हैं...? जहाँ हमारा व्यर्थ का जूनून ही हम पर चढ़ा दिखाई देता है.... और...पता नहीं कितने लोगों को हम अपने इस आदिम मानसिकता वाले तमाशे में बंदी बना उन्हें उनके गंतव्य तक पहुँचने से रोक देते हैं...! हमारे देश में विभिन्न धार्मिक मतावलंबी रहते हैं समाज में धार्मिक आडम्बरों का बढ़ता यह चलन कहीं एक दूसरे को अपनी-अपनी शक्तियों का अहसास कराना तो नहीं होता...! तभी तो मेरे ड्राइवर ने कहा था,
            “अरे..साहब सभी तो अपने-अपने त्योहारों में रोड घेरे रहते हैं...|” जुलूस के प्रति मेरे गुस्से को शांत करने के अंदाज में उसने कहा था|
            “टिंग...टांग...टुंग...यात्रीगण कृपया ध्यान दें...फला जगह से चलकर फला जगह को जाने वाली ट्रेन नंबर........ प्लेटफार्म नम्बर...पर थोड़ी ही देर में आने वाली है...” सुनाई दिया...!
             लेकिन मन अब राग-द्वेष रहित हो चुका था...कारण मन परिस्थिति को स्वीकार कर चुका था...ट्रेन आने की सूचना पर मन किसी प्रतिक्रिया में नहीं पड़ा क्योंकि देर होना था हो चुका था....हाँ जब समान समेट मैं खड़ा हुआ तो प्लेटफार्म पर ही मुझे कई तरह के वाक्य लिखे झंडे उठाये हुए सैकड़ों लोगों का एक और जुलूस दिखाई दिया....सब लोग मिलकर समवेत स्वर में कोई नारा लगा रहे थे...नारा किसी जाति-समूह के जिंदाबाद से सम्बंधित था....मैंने उनके द्वारा उठाए हुए बैनरों पर लिखे वाक्यों को पढ़ने की कोशिश की....हाँ उस पर किसी जाति के जिंदाबाद और संघर्ष करने की बात लिखी थी...पढ़ते-पढ़ते मैं भी अपना समान समेट उनके साथ हो लिया क्योंकि वे सब भी उसी प्लेटफार्म पर जा रहे थे जिस पर मेरी ट्रेन आ रही थी....हालाकि मुझे उन सब को देख कर मन में यह भय होने लगा था कि कहीं ये सब ट्रेन की सीटें न कब्ज़ा लें....खैर उस जातीय जुलूस में शामिल एक गरीब बुजुर्ग जो सबसे पीछे चल रहा था...शायद उसके उम्र का यही तकाजा था....उससे मैंने पूँछा,
             “क्यों बाबा कहाँ जा रहे हैं...”
             “राजधानी...” उसने उत्तर दिया|
             “का समस्या अहै बाबा...” मैंने अपनी जिज्ञसा जाहिर की|
             “हमका नाहीं पता बेटवा...सब कहें हमहूँ चला आवा..हमारे जाति का सम्मेलन अहै...|” उस भोले-भाले वृद्ध ग्रामीण ने उत्तर दिया|
             लेकिन उस जुलूस में शामिल अन्य युवा ऐसे चिल्ला रहे थे जैसे उस जाति पर कोई संकट आ खड़ा हो गया हो...मैंने गौर किया जैसे ही वह जुलूस अन्य यात्रियों के पास पहुंचता वैसे-वैसे नारों का स्वर तेज़ हो जाता...सोचा..शायद...इस प्रहसन के लिए भी दर्शक की आवश्यकता हो...! मैंने इन सारे नारों-जुलूसों-जाम को देख कर सोचा...
              आखिर...हमारा संविधान क्या कर रहा है..? कहीं वह भी एक धार्मिक ग्रन्थ बन पंडितों-मौलवियों और यजमानों का इन्तजार तो नहीं कर रहा..!             
              धीरे-धीरे...ट्रेन आती हुई दिखाई दी...सारे लोग अब लगभग शांत हो चुके थे...शायद अब...उन्हें अपना गंतव्य स्पष्ट दिखाई देने लगा था...ट्रेन में चढ़ने की आपाधापी में सब व्यस्त हो गए...!

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा

               स्कूल से आते ही विशाल ने अपने बस्ते को ड्राइंगरूम में पटका और कमरे में जा कर गुमसुम बैठ गया... उसकी मम्मी ने कई बार उसे नाश्ता करने के लिए पुकारा लेकिन उसने अनसुनी कर दी... कमरे में अकेले बैठे हुए विशाल को काफी देर हो गया था... तभी उसके कानों में उसके डैडी की आवाज पड़ी,
               "क्यों... विशाल नहीं दिखाई दे रहा है? ....वह कहाँ है...?" डैडी शायद मम्मी से उसी के बारे में पूंछ रहे थे|
               "इस बार परीक्षा में कम नम्बर आए हैं..शायद इसी लिए परेशान हैं..|" मम्मी उसी के बारे में कह रहीं थी|
               'हाँ....बात तो सही है... उसे इस बार की परीक्षा में कम नम्बर मिले हैं...कक्षा का तो वह सबसे तेज़ विद्यार्थी माना जाता था...! अनुराग और विभव जैसे छात्र जो सदैव कम नम्बर पाते रहे हैं वे भी इस बार उससे अधिक नम्बर ले आए...! उसकी कितनी बेइज्जती हुई इस बार...! और तो और उसकी टीचर ने भी तो कहा कि तुमसे ऐसी आशा नहीं थी... अब तक वह यही प्रयास करता आया है कि कक्षा में उसे सबसे अधिक इज्जत मिले...लेकिन परीक्षा में आए उसके अंक उसकी इज्जत को मिट्टी में मिला दिए...|' विशाल यह सब सोच ही रहा था कि उसके डैड के हाथ उसके कंधे पर पड़े...उन्होंने धीरे से उससे पूंछा,
                 "क्या बात है...क्यों परेशान हो..?"
                  "मेरे नम्बर कम आए हैं.... मेरी बेइज्जती हुई.....|" विशाल ने कहा|
                 "नम्बर कम आने पर क्यों चिंतित होते हो..? ...हाँ तुमने इस बार अच्छा नहीं किया...इसीलिए नम्बर कम आया...तुमने अच्छा नहीं किया..! तुमको इसपर सोचना चाहिए...!" डैड ने उसे थोडा समझाने के अंदाज में कहा।
                  "तुम्हें इस बारे में इज्जत के लिए परेशान होने की जरुरत नहीं....बल्कि तुम्हें इस बात पर परेशान होना चाहिए कि तुम सबसे अधिक ज्ञानी बनो बाकी चीजें अपने-आप ठीक हो जाएंगी..।" विशाल के डैड ने उसे समझाया।
                 उपरोक्त बातें हो सकता है बहुत साधारण स्तर की हो जिससे कोई विशेष अर्थ न निकलता हो...लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है| विशाल और उसके डैड के बीच के वार्तालाप से यह स्पष्ट होता है कि विशाल को परीक्षा में कम अंक आने की की उतनी चिंता नहीं थी जितनी इससे होने वाली अपनी बेइज्जती की...शायद बेइज्जती न हो तो नम्बर कम आने की चिन्ता भी न हो..!
                 कई वर्षों पूर्व किसी लेख में आया शब्द "प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा" ने ध्यान आकृष्ट किया था, यह शब्द उस लेख में प्रसंगवश आया था, इस शब्द की कोई व्याख्या उस लेख में नहीं था....लेकिन इस शब्द से मैं काफी प्रभावित था...तभी तो पढ़ने के कई वर्षों के बाद भी यह शब्द बार-बार याद आता रहता है....और मै अपने तरीके से इसकी व्याख्या करता रहता हूँ.... उक्त वार्तालाप के क्रम में "प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा" शब्द मुझे फिर याद आ गया.....इसका शाब्दिक अर्थ मैंने यही निकाला है...प्रतिष्ठा सूअर की विष्ठा अर्थात सूअर के मल के समान होता है..... अर्थात मात्र सम्मान पाने के दृष्टिकोण से किया गया काम सूअर के मल के समान होता है | इस प्रकार 'प्रतिष्ठा' की आकांक्षा से किया गया कार्य अपने आप में व्यर्थ और अपवित्र परिणाममूलक होता है...|  'विकिपीडिया' में इस शब्द की कोई व्याख्या न मिलने पर मैंने अपनी यही व्याख्या उसमें भी डाल दी है...|               ...खैर... जो भी हो विशाल भी कक्षा में सम्मान पाने का आकांक्षी है..वह कक्षा में सबसे अधिक अंक प्राप्त कर इस सम्मान को पाना चाहता है... लेकिन यहाँ एक पेंच है...विशाल का मुख्य उद्देश्य ज्ञानार्जन या पढ़ाई में औव्व्ल आना हो सकता है... लेकिन उसने 'प्रतिष्ठा' को भी अपने इस उद्देश्य के साथ जोड़ लिया है... जो उसके कहे इस वाक्य से प्रमाणित होता है,  "मेरे नम्बर कम आए हैं.... मेरी बेइज्जती हुई.....|"  यहीं पर उसके मूल उद्देश्य 'ज्ञानार्जन' के साथ उसकी एक मनोवैज्ञानिक समस्या उत्पन्न हो जाती है... और वह यह कि.. उसकी 'ज्ञानार्जन की आकांक्षा' कक्षा में 'प्रतिष्ठा पाने की आकांक्षा' के समानांतर हो जाती है... इस प्रकार कक्षा में विशाल की आकांक्षा के ये दोनों तत्व एक दूसरे की सीमा निर्धारित करने लगते हैं....अर्थात..प्रतिष्ठा से संतुष्ट होने की सीमा को ही वह ज्ञानार्जन की सीमा मान सकता है... जो विद्यार्थी होने के मूल उद्देश्य से उसे भटका सकती है... क्योंकि वह उतना ही पढ़ेगा जितने से उसकी प्रतिष्ठा बनी रहे....! अर्थात उसने पढ़ाई या ज्ञानार्जन हेतु अपनी एक सीमा निर्धारित कर लिया... शायद यहीं पर प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा बन जाती है...! ...प्रतिष्ठा की इसी 'विष्ठा' को समझते हुए विशाल के डैड ने उससे कहा था, "तुम्हें इस बारे में इज्जत के लिए परेशान होने की जरुरत नहीं....बल्कि तुम्हें इस बात पर परेशान होना चाहिए कि तुम सबसे अधिक ज्ञानी बनो बाकी चीजें अपने-आप ठीक हो जाएंगी..।" और यहाँ पर एक उल्लेखनीय बात और हो सकती है, प्रतिष्ठा की आकांक्षा उसकी ज्ञानार्जन की आकांक्षा पर भारी होने से वह परीक्षा में अधिक अंक पाने के लिए नकल की भी सहायता ले सकता है...! और अंत में ज्ञानार्जन के अपने मूल उद्देश्य से भटक सकता है...!
            विद्यार्थी और उसके डैड के बीच के उपरोक्त वार्तालाप से हम  "प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा" के अर्थ को समझने का प्रयास कर सकते हैं.... लेकिन क्या यह सत्य नहीं है कि समाज में प्रतिष्ठा पाने की हमारी लालसा ने हमें अपने पथ से भटका कर ऐसे कार्य करने पर हमें विवश कर देती है जिससे तमाम सामाजिक विद्रूपताओं के जन्म के साथ ही हम अपने मूल उद्देश्य से ही भटक जाते हैं..!
              वास्तव में 'प्रतिष्ठा' जैसे किसी तत्व का कोई अस्तित्व नहीं.. और अगर अस्तित्व है भी तो हमारे कर्मों का...! प्रतिष्ठा को केन्द्र्विंदु मानकर किया गया किसी भी कार्य का परिणाम अंततः दुखदायी हो सकता है... हम दैनिक जीवन की घटनाओं से इसे प्रमाणित कर सकते हैं...