बुधवार, 19 दिसंबर 2012

दर्दनाक सहमति !


          हाल ही में आई एक फिल्म उस दिन टेलीविजन पर देख रहा था। शुरू-शुरू में तो अन्यमनस्क सा कुछ भी देखने के उद्देश्य से देख रहा था लेकिन धीरे-धीरे फिल्म की कहानी में रूचि पैदा हो गई।खासकर कहानी का अंत कैसा होगा इस पर सोचने लगा। इस बारे में अपने छोटे पुत्र से बात करने लगा और उससे फिल्म की कहानी के अंत के बारे में यह सोचकर पूंछा कि उसने यह फिल्म देखी होगी। मेरा अनुमान सही था, उसने बताया कि फिल्म के अंत में नायक और नायिका दोनों मर जाते हैं। इस कहानी का अंत दुखांत होगा जानकर मुझे अच्छा नहीं लगा इस पर मैंने कहा कि अपने देश की कहानियां तो सुखांत ही होती हैं लेकिन इस फिल्म में नायक और नायिका के मर जाने से इसका अंत तो दुखांत होगा। तब वह समझाते हुए से मुझसे बोला कि पहले की बात कुछ और थी अब कहानी वास्तविकता पर आधारित होती है। मुझे प्रतीत हुआ कि हम या तो वास्तविकता का सामना ही करना नहीं जानते या फिर अपने बनाए आदर्श में इतना खो जाते थे कि हमें वास्तविकता का ज्ञान ही नहीं हो पाता था तथा हम सब कुछ अच्छा ही अच्छा चाहते थे।
            खैर यहाँ विषयांतर हो रहा है पुन: फिल्म पर लौटते हैं, वह फिल्म थी,जिसे मैं देख रहा था- ''इश्कजादे'' दो भिन्न धर्मावलम्बियों के लड़के-लड़कियों की प्रेम कहानी। दोनों परिवार राजनीतिक और दबंग थे,दोनों यह स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि उनके बच्चे किसी दूसरे धर्म के बच्चे से विवाह करे क्योंकि इससे उनके अपने समाज में बदनामी और राजनीतिक नुकसान होने की उन्हें सम्भावना थी। इसलिए दोनों अपने बच्चों को किसी भी कीमत पर स्वीकार न कर उन्हें मार देना चाहते थे। इस स्थिति से घबड़ाकर दोनों बच्चे फिल्म की कहानी में आत्महत्या कर लेते है। मैं सोचने लगा यदि फिल्म के निर्देशक ने दोनों बच्चों के प्रेम संबंधों को स्वीकार कर उन्हें वैवाहिक संबंधों में दिखाकर कहानी को एक खूबसूरत मोड़ देने की कोशिश करता तो शायद दोनों धार्मिक समाज इसे सहज रूप से अंगीकार न कर पाता और एक विवाद की स्थिति पैदा हो जाती या यह भी हो सकता था फिल्म धार्मिक भावनावों को ठेस पहुँचाने का आरोप झेल रही होती। इसीलिए फिल्म के अंत में निर्देशक ने बड़ी चतुराई से दोनों समुदायों के नेतृत्वकर्ता उनके परिवारों के बीच उन बच्चों को मारने की सहमति दिखाता है।मुझे लगा यह सहमति केवल फिल्म की कहानी में ही नहीं है बल्कि हमारे समाज के स्तर पर भी है तभी तो कहानी के ऐसे अंत को लेकर हम कोई बखेड़ा नहीं करते, लेकिन यह सहमति है बड़ी दर्दनाक ! 
                

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

दुआ

                  उस दिन सुबह-सुबह उठा पता चला...कसाब को फांसी दे दी गई ! इस खबर को पढ़ कर अपने मन की प्रतिक्रिया को जानने की कोशिश की....मन ने तो कोई प्रतिक्रिया नहीं की....बल्कि वह थोडा सा उद्विग्न , थोडा सा उदास हो गया...इसका कारण क्या था समझ में नहीं आया...हाँ वही कसाब... जो कुछ वर्षों से चाहे वह ख़बरों के माध्यम से ही सही,,, हम लोंगों के बीच था...अब वह नहीं रहा शायद यही भाव मन को उद्विग्न और उदास कर गया हो....इसके बाद पता चला देश के लोगों ने ख़ुशी मनाई....लेकिन मौत तो मौत होती है....चाहे वह मुंबई के निर्दोष नागरिकों की हो या फिर फांसी पर लटका कसाब...मौत पर मौन ही अच्छा ...! वास्तव में कसाब एक जुनूनी था जिसके जूनून का दुरूपयोग कुछ लोगों ने कर उसे इस अंजाम तक पहुंचा दिया...हमारे समाज में ऐसे भयंकर सामाजिक अपराधी आज भी घूमते पाए जा सकते हैं जिनका अपराध किसी कसाब से कम नहीं हो सकता...माफियावाद, आर्थिक अपराध आदि से जुडी आपराधिक घटनाये देश में आम है....हमें ऐसी मानसिकता और उस जूनून को भी फांसी के फंदे तक पहुंचाना होगा जिसके कारण मुंबई की घटना, कसाब एवं अन्य आपराधिक घटनाओं का जन्म होता है...तभी हमें जश्न मनाने का आधिकार है, अन्यथा हमें कसाब की फांसी को देश की न्यायायिक और प्रशासनिक व्यवस्था की एक सामान्य और सहज घटना मानते हुए शांत मन से स्वीकार कर लेना चाहिए....साथ ही इसे राष्ट्रवाद के खांचे में फिट कर एक और व्यर्थ के जूनून को प्रकट नहीं करना चाहिए...आओ हम दुआ करें मानव जीवन को हानि पहुँचाने वाली कोई भी घटना न हो.... 

बुधवार, 14 नवंबर 2012

दीपावली की बधाई...!

                 कल दीपावली थी...हमने दीये बनाए । इन दीयों को हम लोगों ने घर के अंदर और बाहर जला दिए । सुबह मैं उठा...बाहर दीयों पर मेरी दृष्टि गयी ...बाती जल कर राख हो चुकी थी ....मैंने सोचा ....बेचारी यह बाती  ...रात भर जली होगी ...! रात भर इसने रोशनी बिखेरी होगी ...! अँधेरे से लड़ती रही होगी...! मैं आहिस्ता-आहिस्ता झुका और...बाती की राख को माथे से लगा लिया...सोचा...बाती...! तुम तो रोशनी बन आँखों में उतर गई हो...! तभी तो माँ बचपन में... तुम्हारी राख से काजल बनाती और आँख में लगा देती...कहती आज तो काजल जरुर लगवाना चाहिए....आज पत्नी ने भी यही बात दोहराई थी... दीपावली की बधाई हो बाती...
                                        दीपक की लौ में बाती की क़ुरबानी थी, 
                            अँधेरे से लड़ती वह बाती बलिदानी थी|     
              

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

दशहरे की बधाई !

         आज दशहरा है सोचा अपने परिचितों मित्रों को दशहरे की बधाईयाँ दे दूँ .अपनी सोचने की आदत से परेशान सोचा आखिर किस बात की बधाई दूँ? असत्य पर सत्य की जीत की ख़ुशी की बधाई दें  लेकिन किस बात की ख़ुशी ? असत्य तो फिर अगले साल कहीं इससे ज्यादा विकराल रूप में खड़ा हो जाएगा !फिर बधाई देने की ज़हमत उठानी पड़ेगी! यह सोचकर असत्य पर सत्य की जीत की ख़ुशी काफूर हो गई सोचा इस बधाई के झंझट में न पड़ा जाए तो अच्छा है  फिर दिमाग घूम गया चलो एक दशहरा हमने और देख लिया इस बात की बधाई दें! कुछ तसल्ली हुई चलो बधाई देने का कारण तो मिल गया ! यही सोचते सोचते घर से बाहर निकला तो देखा मुहल्ले के बच्चे अपने अपने घर के सामने छोटे छोटे रावण के पुतले के दहन की तैयारी कर रहे थे . उनकी ख़ुशी देख मन प्रसन्न हो गया ! लेकिन हाय ! इस ख़ुशी को भी मैं कायम नहीं रख सका . अपनी सोचने की आदत से मजबूर फिर सोचने लगा -- हम हिन्दुस्तानी लोग प्रतीकों में जीने वाले लोग हैं शायद इसीलिए हर वर्ष जलाने के लिए रावण के पुतले की आवश्यकता पड़ती है और इन्हीं प्रतीकों में हम ख़ुशी तलाश लेते हैं... तभी  पत्नी बगल के किसी पार्क में बच्चों के साथ जहाँ हर साल रावण के पुतले का दहन होता था वहाँ से चेहरे पर निराशा और उदासी का आवरण ओढ़े लौटी...मैं अचकचा कर उन्हें देखने लगा... सोचा.. क्या हो गया...?     सत्य की पराजय तो नहीं देख लिया...! तभी कानों में उनकी आवाज पड़ी, अरे...! इस बार तो वहाँ पुतला दहन हुआ ही नहीं...'' यह सुनते ही मुझे संतोष हुआ कि चलो जो बात मैं सोच रहा था वह बात नहीं और सत्य सुरक्षित है..... फिर मैं तसल्ली देते हुए सा पत्नी से बोला, ''अरे... किसी दूसरे पार्क में हो सकता है इस बार जलाया गया हो...'' इसे अनसुनी कर वह अपने किसी काम में लग गईं. लेकिन मुझे चिंता हो आई और सोचने लगा...क्या प्रतीकों में रावण का जलना भी हम नहीं देख पाएंगे...इस सोच के चक्कर में कम से कम प्रतीकों में ही सही असत्य के पराजय की खुशी में बधाई देने के विकल्पों के तलाश में मिला वह प्यारा सा विकल्प भी दिमाग से मिस कर गया और बधाई देने से चूक गया ! अगले वर्ष तक इंतजार करना होगा हमारे सभी शुभ चिन्तक हमें क्षमा करेंगे . 

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

चेतना का स्तर




       कभी-कभी दैनिक जीवन में घटने वाली कुछ घटनाओं को हम नजरअंदाज कर आगे बढ़ जाते हैं...छोटी ही सही लेकिन वे हमें कुछ सोचने पर विवश कर देती हैं... ऐसी ही एक घटना मुझे तब याद आई जब मैंने एक अख़बार में इस दुखद खबर को पढ़ा ''सड़क पार करते एक सांप को बचाने में ट्रैक्टर पलटने से उसके ड्राइवर समेत दो लोग मारे गए^^ इसे पढ़ याद आने वाली घटना कुछ इस प्रकार थी....एक बार मैं किसी सड़क से गुजर रहा था... मैंने देखा सड़क के किनारे की खंती से निकल कर एक नेवला उसके पक्के किनारे तक बड़ी तेजी से आया.... और किनारे पर ही रुक गया... फिर अपने पिछले दोनों पैरों के सहारे खड़ा हो सिर को दायें बाएं घुमा कर ऐसे देखा जैसे वह आने जाने वाले वाहनों का जायजा ले रहा हो... इसके तत्काल बाद बड़ी तेजी से सड़क पार कर गया....

अखबार में खबर पढ़ने के बाद उक्त देखी घटना के याद आने से मैं कुछ सोचने पर विवश हो गया.... जो जीवन का सम्मान करते हैं हमें उनका दिल से सम्मान करना चाहिए... हमारी चेतना हमारी संवेदनशीलता की गहराई पर निर्भर करती है.... नेवले का सड़क पर आती जाती गाड़ियों को देखते हुए उससे बच कर निकलने की संवेदनशीलता और सांप को सड़क पार करते हुए देख कर उसे बचाने की ट्रैक्टर ड्राइवर की संवेदनशीलता... दोनों सम्मान के विषय हैं... सृष्टि का उद्देश्य चेतना के इसी स्तर को पाना है|