कल दीपावली थी...हमने दीये बनाए । इन दीयों को हम लोगों ने घर के अंदर और बाहर जला दिए । सुबह मैं उठा...बाहर दीयों पर मेरी दृष्टि गयी ...बाती जल कर राख हो चुकी थी ....मैंने सोचा ....बेचारी यह बाती ...रात भर जली होगी ...! रात भर इसने रोशनी बिखेरी होगी ...! अँधेरे से लड़ती रही होगी...! मैं आहिस्ता-आहिस्ता झुका और...बाती की राख को माथे से लगा लिया...सोचा...बाती...! तुम तो रोशनी बन आँखों में उतर गई हो...! तभी तो माँ बचपन में... तुम्हारी राख से काजल बनाती और आँख में लगा देती...कहती आज तो काजल जरुर लगवाना चाहिए....आज पत्नी ने भी यही बात दोहराई थी... दीपावली की बधाई हो बाती...
दीपक की लौ में बाती की क़ुरबानी थी,
अँधेरे से लड़ती वह बाती बलिदानी थी|
दीपक की लौ में बाती की क़ुरबानी थी,
अँधेरे से लड़ती वह बाती बलिदानी थी|
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