रविवार, 15 मार्च 2020

लिल्लीघोड़ी पर सवार कौवा

          "आपके लेखन में साहित्यिकता नहीं है!"  लेखकीय मन से जुड़ने की कोशिश में मेरे सामाजिक सरोकार वाले मन ने मुझसे कहा। 
        "रात-दिन तुम्हारी चिंता में रहता हूँ और इसी कारण लेखकीय कर्म में निरत हूँ, फिर यह कैसे कह सकते हो?" मेरे अंदर का लेखक बोला। 
         "इसलिए कि आपका लेखन मुझे मान्यता दिलाने में असफल है.." मेरे सामाजिक सरोकार ने जैसे रूँआंसेपन से कहा। 
       "सरोकार महोदय! तुम्हें मान्यता की इतनी चिंता हो रही है! क्या बिना मान्यता मिले तुम सरोकार और मैं लेखक नहीं?" मुझे अपने सरोकारी भाव से चिढ़ टाइप हुई।
        "नहीं मैं सरोकार हूँ और रहुंगा, दरअसल तुम मुझसे सीधे आ जुड़ते हो, जबकि तुम्हें साहित्यकार बनना है न कि समाजसेवक! इसलिए साहित्यिक भाव से मुझसे सरोकार रखो, जिससे मूर्धन्य साहित्यकार तुम्हारे लेखन को व्याख्यायित कर अपनी मूर्धन्यता के साथ मुझे भी महिमामंडित कर सकें! क्यों क्या बात है, तुम खामोश क्यों हो गए?" मुझे हाँ-हूँ करते न देख मेरे सामाजिक सरोकार ने मुझे टोका।
       धीर-गंभीर मन:स्थिति में मैंने कहना चाहा, "देखो, एक तो मुझे तुम्हारी बात समझ में नहीं आई, दूजे मेरे लिखे से कोई महिमामंडित हो, इस बात से मेरा कोई सरोकार नहीं, समझे?"
        लेकिन वह, मतलब मेरे सामाजिक सरोकार ने, मुझे चिढ़ाने से बाज नहीं आया और कुटिल मुस्कान लिए बोला, "चलो मान लिया, तुम्हें अपने ही सरोकार से कोई सरोकार नहीं, लेकिन इसमें तुम्हारा नहीं तुम्हारे परिवेश और संस्कारों का दोष है। इस देश की माटी ही ऐसी है कि यहाँ लोग अपने नहीं दूसरे के सरोकार पर हाथ साफ करते फिरते है! और जो तुम ये कह रहे हो कि तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आई तो सुनो..
        ...वो क्या है कि! तुम सब समझते हो, नहीं तो तुम अपनी किताब का नाम "लिल्लीघोड़ी पर सवार कौवा" न रखते! भला किसी पुस्तक का यह भी कोई नाम हुआ!"
        मैं समझ गया कि मेरा लेखकीय सरोकार लथेड़ने की मंशा से आज मुझे कोंचने का अवसर छोड़ना नहीं चाहता। फिर भी मैंने सहज भाव से उसे समझाने की कोशिश की, "देखो जी, हम जो लिखते हैं वही साहित्यिक हो जाता है, रही बात शीर्षक की, तो साहित्यिक कर्म में प्रकाशक का भी हाथ होता है, इसलिए उसका भी कहा मानना जरूरी है! अन्यथा अपनी किताब का कोई दूसरा सरोकारी नाम देता!"
          "गुड..गुड..! तुम मुझसे सरोकार रखो, लेकिन वाया साहित्यिक-भाव से! अब देखना, तुम्हारी इस पुस्तक में लिल्लीघोड़ी पर सवार कौवे का मिलना भले ही असंभव हो लेकिन यह साहित्यिक टाइप का शीर्षक इस किताब का बिजनेस करवा ही देगी! यही मैं समझाना चाह रहा था कि लेखन भी इस शीर्षक जैसा ही होना चाहिए! जिसे पाठक नहीं साहित्यकार ही समझ पाएं! इसी में मुझ जैसे सरोकार और तुम जैसे लेखक की महत्ता है! इतनी छोटी बात तुम्हारा प्रकाशक समझ रहा है और तुम नहीं! यह घोर आश्चर्य का विषय है! लानत है तुम्हारे लेखन पर।" 
        बाप रे ! इसके साथ ही मेरे सरोकारी मन ने मेरे लेखक-मन को झिंझोड़कर रख दिया!! और मैंने लिल्लीघोड़ी पर कौवा की सवारी कराने की जैसे ठान भी लिया! उंगलियों में कलम फँसाए, अरे नही, इसे की-बोर्ड पर रखे हुए, साहित्यिक टाइप का भाव जगाने हेतु चिंतनरत हो गया।   

शुक्रवार, 6 मार्च 2020

आरे में आरा

          टहल-वहल कर आया और झाड़ू-वाड़ू भी लगाया क्योंकि बाहर की खर-पतवार पर क‌ई बार निगाह-सिगाह पड़ चुकी थी। अब चाय-वाय पी लेने के बाद इत्मीनान से बैठ गया हूं। फेसबुक पर कुछ पोस्ट करने के लिए मन कुलबुलाने लगा, जैसे अखाड़े को देख पहलवानी सूझे! तो सोचा आओ इस पर कुछ लिखें-फिखें ही। क्या लिखना है और क्या लिखते जा रहा हूं, बिना यह तय-फय किए और साथ ही लिखने के किसी दांव-पेंच पर भी विचार-फिचार किए बिना लिखना शुरू कर दिया।

          

           हां चाय-फाय पीते समय अखबार जरूर पढ़ रहा था। अखबार के पन्ने-सन्ने पलटते-फलटते संपादक महोदय द्वारा इसमें प्रकाशित 'खेद प्रकाश' पर निगाह पड़ गई, और मजे की बात यह कि खेद प्रकाश भी किस पर ? इस पर कि बीते दिन के अंक में "एक वाक्य के अंश के रूप में 'अच्छाई पर बुराई की जीत' छप गया है, जबकि इसके स्थान पर 'बुराई पर अच्छाई की जीत' होना चाहिए था।" और संपादक महोदय आगे कहते हैं 'इस गलती का हमें खेद है।' तो भ‌इया संपादक महोदय! इसपर खेद-फेद जताने की कोई जरूरत-फरूरत नहीं आपको। यही होता आया है इस देश में, पहले अच्छाई पर बुराई ही जीतती है फिर बुराई पर अच्छाई के जीतने की नौबत आती है! आप ध्यान नहीं दिए, अापके इस अखबार में आज यह जो समाचार छपा है न, कि "आरे में पेड़ों की कटाई पर रोक" इस बात का ठोस प्रमाण है। यानी कि मतलब भर के पेड़ों पर आरा चल जाने के बाद ही कटाई पर रोक लगी। देखा ! जरूरत के हिसाब से व्यवस्थित तरीके से बुराई को जीतने दिया जाता है, इसके बाद ही अच्छाई का नंबर आता है!! फिर काहे का खेद !!!

        

            संपादक जी आप नहीं समझते अच्छाई और बुराई के इस पटकी-पटका खेल को! हाँ यह खेल ही है क्योंकि यहां दोनों के लिए ताली बजाने वाले लोग हैं। जरा इस पर भी विचारिए, आरे में मतलब भर के पेड़ों पर आरा चल जाने से विकास वाले जरूर खुशी में ताली बजाए होंगे। वैसे तो आप संपादक हैं सब जानते ही होंगे, आपको भी अखबार बेंचना है, इसलिए अच्छाई या बुराई दोनों को जिताने का हुनर आपको पता होगा ही! अब यहीं देखिए, आपके अखबार के पन्ने पलटते समय आपकी प्रस्तुति "आरती संग्रह" वाली पत्रिका अखबार से फिसलकर जमीन पर गिर पड़ी। मेरी भक्ति भावना को जैसे ठेस लगी और मैंने बिना देर किए झटापट श्रद्धाभाव से जमीन पर पड़ी पत्रिका को उठा लिया और इसके पन्ने पलटने लगा। खैर, इसमें आरती तो इतने बारीक अक्षरों में लिखा था कि आंख गड़ाकर भी पढ़ने में मुश्किल !! लेकिन वहीं उसी पत्रिका में छपे तमाम विज्ञापनों को कोई चाहे तो एक फर्लांग की दूरी से भी पढ़ ले। 

            

            तो समझिए! जैसे भक्ति के कवर पेज के साथ बड़े कौशल से आप दुनियादारी बेच रहे हो न, उसी तरह से अच्छाई के विजय का डंका भी बुराई को चुपचाप अपना काम करते रहने देने के लिए  बजाया जाता है, है न ? सच तो यह है, 'अच्छाई' ने ही बड़ी चालाकी से आरे में काम भर के पेड़ काटने दिए, और बुराई का यह काम हो जाने के बाद जब आई भी तो इस वाहवाही के साथ, कि देखो यह हुई न बुराई पर अच्छाई की जीत!! हां कि अच्छाई की इस जीत पर अब ढोल पीटो और दशहरा मनाओ। लेकिन इस खुशी में यह नहीं समझ में आता कि बुराई हार कर भी कैसे जीत जाती है और अच्छाई जीत कर भी कैसे हार जाती है, कि सीता को अन्तत: वनवास भोगना ही पड़ता है।

        

            तो, मेरे समझ से अच्छाई और बुराई के इस नूराकुश्ती पर इनमें से किसी की भी हार या जीत को कैजुअली-फैजुअली टाइप से ही लेना चाहिए। इनकी जीत या हार पर खेद-फेद या खुशी-फुशी मनाने की जरूरत नहीं। लेकिन बाजार और विकास इन दो जुड़वा भाईयों के बीच हम फंसे पड़े हैं, ये जिस पर चाहें रुलाएं या हंसाएं!! इधर आरे में आरा ऐसे ही चलता रहेगा।

शपथ के मोड में!

            एक गाना मुझे बहुत पसंद है वह कि "भगवान...सुन दर्द भरे मेरे नाले" शायद संविधान में जनता के इसी 'नाले' को सुनने की व्यवस्था की गई है, जिसके तहत शासकों को पद और गोपनीयता की शपथ खानी होती है और शपथ खाते शासकों पर मेरा ध्यान फोकस हो जाता है। आखिर ये देश की जनता के 'नाले' सुनने के लिए भगवान जो बन चुके होते हैं! ऐसे शपथी अकसर खानदानी टाइप के ही होते हैं। वैसे भी अपने देश में खानदानियों का ही जलवा रहता आया है। ये, येन-केन-प्रकारेण पद्धति वाली अपनी शक्ति के प्रयोग से, पीढ़ी दर पीढ़ी शपथ खाने से लेकर खिलाने तक की शक्ति रखते हैं और घुमा-फिराकर इसे खाने का जुगाड़ भी फिट कर लेते हैं। इस देश में क्या नेता, क्या जनता! सभी जुगाड़ से काम चलाते हैं। 


          लेकिन यहाँ की बेचारी जनता को जुगाड़ का भी उतना शऊर नहीं ! उसे अपने भक्ति-भाव पर ही ज्यादा भरोसा होता है, तभी तो भगवान को प्रसन्न करने के लिए वह हजारों वर्ष तपस्या कर सकती है। दूसरे, भगवान से वरदान पाने की यदि ज्यादा जल्दी हो, तो वह मनमाफिक भगवान भी खोज सकती है, मतलब "जाकी रही भावना जैसी हरि मूरत देखी तिन्ह तैसी' टाइप से। खैर, इस जमाने में राजाओं वाला 'राजत्व-गुण' खानदानियों में ही पाया जाता है। और, जनता भी अपने भक्ति-भाव संम्पृक्त सांस्कृतिक-दयालुता के वशीभूत खानदानियों को राजत्व-विहीन नहीं देख पाती तथा पुनि-पुनि सिंहासनारूढ़ कराती रहती है। वैसे भी यह जनता करे भी तो क्या करे? खानदानी टाइप के राजनीतिक लोग तो पैदाइशी मुँह में सोने का चम्मच लिए जैसे शपथ खाए धरती पर अवतरित हुए रहते हैं, शपथ खाना इनके लिए औपचारिकता भर होता है! बिना इसका डोज लिए हुए भी ये काम चला लेते हैं।

         

          यदि किसी गैर-खान‌दानी ने, जनता को धता बताकर या भूले-भटके शपथ खा भी लिया हो तो, वह भी अपनी सात पुश्तों को खानदानी बना जाता है! क्योंकि खानदानीपन शक्ति के साथ राजत्व गुण मापने का भी पैमाना है और जिसके सामने जनता सिर झुकाती है।  इस शक्ति को जनता कम न आंके, इसलिए शपथ अकेले में नहीं, खानदानी-खानदानी मिलकर स्टेज पर बाकायदे समारोह पूर्वक शपथ खा और खिलाकर अपने राजत्व गुण का प्रदर्शन करते हैं, आखिर उन्हें भी यह पता होता है कि जंगल में मोर नाचा किसने देखा! दरअसल जनता को और कुछ पता हो या ना हो, उसे यह तो पता ही होता है कि कोई ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा नहीं, यही बड़े खानदानी लोग उसकी समस्या हल कर सकते है। क्या है कि जनता इन खानदानियों को समस्याओं से दुनियां को सजाते हुए देख चुकी होती है, खैर।

     

           यहाँ उल्लेखनीय है भारत जैसे देश में 'किरपा' का बड़ा महत्व है, और घुरहू-कतवारू में किरपा बरसाने का गुण नहीं हो सकता, यह गुण राजा महाराजाओं से लेकर खानदानियों में ही रहा है। भारत की महती सभ्यता में माना गया है कि भगवान टाइप के लोग ही किरपा बरसा सकते हैं। इस प्रकार जो शपथ खा रहे होते हैं, मान लीजिए कि वे समस्याओं पर मुस्तैदी के साथ किरपा बरसाने जा रहे हैं और इनके शपथोपरांत सारी समस्याएं ठिकाने लग जएंगी। इसीलिए देशहित में समस्याओं के हलार्थ ये इतने चिंतित रहते हैं कि साल के तीन सौ पैंसठ दिन गुणे चौबीसों घंटे शपथ खाने के ही मोड में रहते हैं। मतलब बिना इसकी चिंता किए कि, हड़बड़-तड़बड़ में खाई गई चीज पचेगी भी या नहीं? ये आनन-फानन में भी शपथ खा लेते हैं। शपथ खाने के बाद जनता को राजत्व का बोध कराना और आसान हो जाता है। 

        

          अंत में इस बात पर और ध्यान फोकस कराना चाहता हूँ, जिसे मैं बचपन से ग्रहण करते हुए चला हूँ, यह कि कसम टूटने पर विद्या माई के प्रकोप से बचने के लिए स्कूली बस्ते को माथे से छुआ कर हम कहते जय विद्यामाई की। वैसे ही आज के लोकतांत्रिक भगवान 'भारत माता की जय' या फिर 'मंदिर गिरता फिर बन जाता' टाइप से बोलकर जनता के बीच उसके प्रकोप से बचते हुए अपने प्रति उसका आस जगाए रखते हैं।