रविवार, 8 नवंबर 2020

तंत्रवाद में कारण-दर्शन

            उस दिन सुबह पाँच बजे घर से निकला। सोचा था कि तीन या चार घंटे में ड्यूटी-स्थल पर पहुँचकर ड्यूटियाने लगेंगे। हाईवे पर डेढ़ घंटे की यात्रा भी पूरी हो चुकी थी। अचानक मेरे सामने चल रहे वाहन एक-एक कर रुकते दिखाई दिए। मुझे भी कार रोकनी पड़ी। यहाँ वाहन क्यों रुक रहे, कार से उतर कर इस बात का जायजा लेना चाहा। प्रथम दृष्टया कुछ समझ में न आने पर एक स्थानीय टाइप के व्यक्ति से वाहनों के रुकने का कारण पूँछा। उसने बताया कि पुलिस वालों की वसूली से बचने के लिए ट्रक ड्राइवर अपने ट्रकों को आड़े-तिरछे निकालने के चक्कर में जाम लगा बैठे हैं। यह सुनते ही मैंने स्वगतालाप किया, लो गई भैंस पानी में ! पता नहीं कितनी देर इस जाम में फंसना पड़े। वैसे इस मुहावरे से मेरा पुराना परिचय है। गाँव में बिजली जाते ही दादा जी के मुँह से यही मुहावरा निकल पड़ता था। मतलब जाम के शीघ्र खुलने का कोई आसार दिखाई नहीं पड़ा। आज हमें कार्यालय पहुँचने में बिलंब होगा, यह सोचते हुए हमारी अकुलाहट बढ़ने लगी। अब मेरी मनःस्थिति वैसी ही हो रही थी जैसे ट्रेन का समय हो चुका है और टिकट के लिए मैं लाइन में खड़ा हूँ कि टिकट बांटने वाला बाबू अचानक काउंटर से उठकर चाय पीने चला जाए और मुझे ट्रेन छूटने की चिंता सताने लगे! उस टिकट बाबू को कोसने की तरह ही मैंने जाम और उसके पीछे के समस्त कारणों को मन ही मन कोस रहा था। 
           
          मैंने सोचा 'तो जाम लगने के कारणों में वसूली भी एक महती कारण है अपने देश में!' मैंने ध्यान दिया इसमें ट्रक, बस, कार जैसे वाहन तो फंसे ही पड़े हैं, दोपहिया वाहनों के भी निकलने की कोई जगह नहीं बच रही है। यही नहीं, हाईवे से मिल रही सड़कों पर भी मोटर गाड़ियों की कतारें लग चुकी थी। दृश्य कुछ ऐसा था जैसे नदी बांध देने से यह उफनाकर आसपास के क्षेत्र को चपेटे में ले रही हो। जाम में फंसे वाहनों के सैलाब से मुझे अपने देश में जबर्दस्त ढंग से विद्यमान पोटैंशियलता का आभास हुआ। लेकिन मैं दुखी सा हो उठा, क्योंकि मुझे प्रतीत हुआ कि अपने देश में विभिन्न कारणों से जगह-जगह लगने वाले जाम में यह पोटैंशियलता ऐसे ही फंसी पड़ी होगी। इस आँखों देखी के बाद भी, 'नाहक ही पुलिस वालों को टारगेट बनाया जाता है' सोचकर मैंने उस व्यक्ति की बातों पर उतना विश्वास नहीं किया जितना कि उस समय कर लेना चाहिए था।  
         
            खैर आधे घंटे बाद मेरे आगे खड़े ट्रक का चक्का ढीलियाता जान पड़ा और धीरे-धीरे ही सही जब यह घूमना शुरू हुआ तो उसी अनुपात में मैंने भी कार को एक्सीलरेट करना आरंभ किया। इसी समय तेज गति से एक अन्य ट्रक मेरे दायीं ओर से आकर मेरी कार और सामने चल रहे ट्रक के बीच के थोड़े से गैप में घुसने का प्रयास किया। उसकी इस कवायद से सामने से आते वाहनों का रास्ता तो अवरुद्ध हुआ ही और मुझे भी थोड़ा भय लगा ! क्या किया जा सकता है, दूसरे को धकियाकर और उनका रास्ता अवरूद्ध कर लेने के बाद ही देशज लोग अपना रास्ता बनाते हैं। थोड़ी खिसियाहट के साथ उस ट्रक वाले को टोकते हुए मैंने कहा “ट्रक को स्कूटी बना लिए हो का..!” इस पर खींसे निपोरकर मुस्कुराते हुए ही सही, “थोड़ा आगे बढ़ा लें..जाम लग रहा है” वह ऐसे बोला जैसे मैंने ही कोई गलती की हो। खैर मैंने भी करे कोई और भरे कोई टाइप वाली स्वराष्ट्रीय रीति के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए कार को आगे बढ़ा लिया। लेकिन इसके साथ ही जाम के मूल कारण-स्थल पर दृष्टिपात करने की तीव्र इच्छा भी मेरे मन में जाग उठी थी। 
      
           वैसे अपने देश की दार्शनिक मान्यताओं में कार्य कारण सिद्धांत बड़ी शिद्दत के साथ आया है। लेकिन ये ॠषि-मुनि बड़े व्यावहारिक नजरिए वाले होते हैं। इसीलिए षडदर्शनों में कारण का अस्तित्व अदृश्यात्मक भाव वाला और अव्याख्येय टाइप का ही रखा गया है, जबकि ज्यादा फोकस कर्म करने पर है। इसका लाभ यह हुआ है कि कार्य के पीछे के कारण की खोज की हमारी प्रैक्टिस ढंग से नहीं हो पाई। फलस्वरूप इस प्राचीन राष्ट्र की अर्वाचीन जाँच एजेंसियाँ किसी घटित कार्य के पीछे वाले कारण का ढंग से पता नहीं लगा पाती और हाथ खड़े कर क्लोजर रिपोर्ट लगा देती हैं। ऐसी रिपोर्टों के पीछे 'बी प्रैक्टिकल' का संदेश भी छिपा होता है। आजकल इससे बढ़कर कोई दूसरा नीति वाक्य नहीं हो सकता। इसके अक्षरशः पालन से व्यक्ति का करैक्टर चमक-दमक वाला और शुद्ध होता चला जाता है। सरकारें भी देश को चमकाने के लिए इसी नीति पर भरोसा करती हैं और इसके तंत्र में जो जितना 'बी प्रैक्टिकल वाला' होता है वह उतनी ही निश्चिंतता के साथ अपने कार्यों को अंजाम तक पहुँचा पाता है। 
       
             एक दिन मुझे ऐसे ही तंत्र के एक छोटे-मोटे मुखिया पदधारक से मिलना हुआ था। उनके क्रांतिकारी विचारों से बड़े से बड़े लोग झटके पर झटके खाते आ रहे थे। कुछ पहुँचे हुए लोगों को लगा कि वे देश की चमक-दमक और उसके विकास में अपना प्रॉपर योगदान नहीं दे पा रहे हैं। अतः वही हुआ जो होता आया है। हायर लेबल से यह सुनिश्चित किया गया कि ये छोटे-मोटे मुखिया महाशय "बी प्रैक्टिकल" जैसे नीति वाक्य को फॉलो नहीं कर पाते, अतः मुखिया बनने के काबिल नहीं और उन्हें दूसरी जगह भेज दिया गया। हाँ उन्हीं से सिम्पैथी जताने गया था मैं। खैर बातों बातों में अपनी यह भावना जताते हुए मैंने उनकी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी की प्रशंसा की। लेकिन मेरे इस भावना प्रकटन पर ज्यादा फोकस न होते हुए उनने जैसे आर्त्र स्वर में अपनी चिंता जाहिर की और कहा,
       
             "ऐसे स्थानान्तरणों से मुझे चिंता नहीं होती.." 

             फिर उनने एक और बात कही कि - 
        
            "कहीं मेरा प्रमोशन न रुक जाए?"
        
            इसे सुनते ही मेरा मुँह अचानक कुछ फटा टाइप सा हो गया था, लेकिन तभी उन्होंने आगे कहा,
      
              "दरअसल वे मेरी एसीआर खराब कर सकते हैं।"  
     
             अब तो मेरे पूर्णतया हक्का-बक्का होने की बारी थी! और इस अवस्था में आकर मैंने सोचा कि - 
      
             "क्या किसी की ईमानदारी ही उसकी एन्युअल कांफिडेंशल रिपोर्ट खराब कर सकती है?" फिर चिंतातुर होते हुए उनकी ओर देखकर मैंने केवल यही सोचा -
       
             "एक अजीब सी प्रणाली में फंसकर बेचारी यह कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी कितनी निरीह और असहाय हो जाती है।" 
         
            लेकिन इस बीच अचानक उनका यह स्वर सुनकर कि "मुझे अपने सामान की पैकेजिंग करानी है" मैं भी उठ खड़ा हुआ और उनसे विदा ली।
        
            वहाँ से निकलकर मैं यही सोच रहा था कि कोई भी तंत्र हो, वह इसी सिद्धांत पर चलता है, या तो उसे तांत्रिक का गुलाम होना पड़ता है या फिर स्वयं तांत्रिक ही तंत्र का गुलाम बने। बिना इस गुलामी के तंत्र सही ढंग से काम नहीं कर सकता। तंत्रवालों ने इसीलिए तंत्र में गुलामी की प्रथा डाल रखी है और इसकी सुदृढ़ता के लिए ही अपने बीच में वार्षिक गोपनीय प्रवृष्टियों का प्रावधान किया हुआ है। 
          
             वाकई में, आखिर जाँच एजेंसियाँ भी तो इसी तंत्र का हिस्सा हैं ! इस तंत्रवाद से परे वे भी नहीं रह सकती। तो, दूसरी ओर इस महान राष्ट् का कारण-दर्शन भी ऐसा है कि ऐसी एजेंसियां करें भी तो क्या करें? कारण खोजने बैठो तो कारण का कारण करते-करते हजार कारण मिल जाते हैं, ऐसे में दृष्टव्य कार्य के पीछे कौन सा कारण उत्तरदायी है तय करना मुश्किल हो जाता है, फिर तो मजबूरी में उन्हें क्लोजर रिपोर्ट लगाना ही पड़ता है। वैसे यह भी तो मानना ही चाहिए कि ऐसी रिपोर्टों से ही व्यवहार जगत का सत्य संवर्धित होता है और इससे व्यावहारिक जगत को बहुत लाभ है तथा तंत्र भी बखूबी काम करता रह सकता है।
         
             खैर जामीय-चाल से मेरी कार उस स्थल पर पहुँची, जिसे जाम का संभावित कारण-स्थल होना चाहिए था। लेकिन वहाँ मुझे किसी कारण के दर्शन नहीं हुए! बल्कि वसूली जैसे पूर्व घटित कार्य की संभावना के सुराग स्वरूप दो पुलिस वाले जरूर दिखाई दिए, लेकिन वे भी जाम खुलवाने में ही व्यस्त थे। इधर सड़क खुलता देखकर मुझे इस शास्त्रीय ज्ञान का स्मरण हुआ कि कारण के हट जाने पर कार्य का स्वतः ही विघटन हो जाता है, और मैंने अब जाम लगने के कारण पर माथापच्ची करना व्यर्थ समझ लिया। दरअसल यहाँ समस्या यह भी थी, कि कहीं कारण खोजते-खोजते बात उपादान कारण से लेकर निमित्त कारण पर न चली जाए! मतलब घड़े का कारण स्वयं मिट्टी है या फिर घड़ा बनाने वाला कुम्हार टाइप से। हलांकि इस जाम के उपादान कारण यानि घड़े के मिट्टी के रूप में हम जैसे, कार, बस, ट्रक वाले तो होंगे ही, लेकिन ये पुलिस वाले? शायद ये भी उपादान कारण के रूप में यूज हुए हों और अब इसी उपादान कारण का विघटन होता दिखाई पड़ रहा है। लेकिन इसे मानने पर निमित्त कारण भी मानना पड़ेगा, और फिर बात इन पुलिसवालों से ऊपर वालों पर जाएगी। क्योंकि किसी निमित्त कारण यानि कि ऊपरवाले के मातहत होकर ही ये अपने काम को अंजाम दे रहे होंगे, जिसके कारण यह जाम लगा होगा !! लेकिन सुराग के हाथ में डंडा देख, मैंने उससे निमित्त कारण अर्थात कुम्हार के बारे में पूँछना उचित नहीं समझा और कारण-कार्य दर्शन का चैप्टर यहीं बंद कर देने में ही अपनी भलाई समझा। 
        
          वैसे जाम के कारण का मुझसे साक्षीकरण नहीं हुआ लेकिन अनुमान से इसका मुझे जो प्रत्यक्षीकरण हुआ वह कारण के रूप नहीं बल्कि कार्य के रूप में था। दर्शनशास्त्र में अनुमान से प्राप्त होने वाले ज्ञान को भी प्रामाणिक और सत्य माना गया है। इसलिए अनुमान से मैंने जान लिया कि, किसी कार्य के पीछे कोई कारण-फारण जैसी चीज नहीं होती, बल्कि कार्य के पीछे केवल कार्य ही होता है। अगर कोई वसूली हो भी रही थी तो वह भी तंत्र द्वारा किया जा रहा एक कार्य ही था, इन्हीं जैसे चिरस्थायी कार्यों से इस महान राष्ट्र का निर्माण होता आया है और बड़े-बड़े कार्य सृजित किए जाते हैं। इसलिए शायद तंत्रवाद भी कार्य करने में ही विश्वास रखता है, कारण तलाशने में नहीं। आखिर इसी से पूरी व्यवस्था गतिमान जो रहती है।  
            
           इस जाम में फंसे होने से मुझे अब गर्व होने लगा था, क्योंकि देश की व्यवस्थाओं को गतिमान रखने में इसमें फंसे-फंसे मैंने भी एक नन्हीं सी भूमिका अदा की थी। इस प्रकार उस दिन आॅफिस में देर से पहुँचे थे। इस देर से पहुँचने की अपनी सफाई में मैंने बताया था कि, क्या करें देश में चल रही व्यवस्थाओं को गतिमान रखने के लिए आयोजित एक जरूरी कार्य के बीच में मैं फंस गया था। मेरी बात सुन लेने के पश्चात आफिसवालों ने भी धार्मिक भाव से मेरी ओर देखा था। अंततः मुझे राम की गिलहरी समझकर मेरे बताए कार्य को एक महान राष्ट्र के निर्माण में इसे मेरा योगदान माना तथा कार्यालय में मेरे विलंबित आगमन को अपराध के रूप में ग्रहण नहीं किया।   
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(एक संवर्धित पुरानी पोस्ट )

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

मुखपत्र लेखन

         कई दिन से कुछ भी नहीं लिख पाया हूँ और आज भी लिखने का मन नहीं था। लेकिन मेरा खाली-खाली फेसबुक वाल जैसे मुँह चिढ़ाता हुआ जान पड़ा ! तो सोचा इसे जवाब देना जरूरी है। लेकिन लिखना किस बात पर हो ? वैसे सभी की अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं, कुछ लिखने वाले अपनी इन्हीं समस्याओं को नमक-मिर्च लगाकार साहित्य रच डालते हैं, ऐसा लेखन, जिनमें साधारणीकरण का गुण सर्वाधिक होता है, उच्चकोटि की साहित्यिक श्रेणी में आ जाता है, अन्यथा यह लेखन भी 'व्यक्तिगत रोना'  जैसा बनकर रह जाता है। इसीलिए प्राय: देखा जाता है, किसी महान लेखक की एक या दो कृति ही उन्हें इस महानता की श्रेणी में खड़ा करने के लिए उत्तरदायी है, जिसमें उनका भोगा हुआ यथार्थ ही होता है । अपने भोगे हुए यथार्थ के अलावा जो लिखा जाता है उसमें 'सायासपन' की मात्रा कुछ अधिक ही आती है, जिसमें 'जबर्दस्तीपन' या फिर 'व्यवसायपन' की झलक मिलती है।

       

         सच तो यह है, साहित्य समाज को दिशा भी तभी दे सकता है, जब वह भोगे हुए यथार्थ को लेकर चलता है! मेरा तो इस क्रम में, यह भी मानना है कि रचना में अलंकारिकता रचना को जनविरोधी बनाता है, साहित्येतिहास में ऐसी रचनाएँ बहुत दिनों तक याद नहीं की जाती और न ही इनसे समाज प्रभावित होता है, ये पुरस्कृत चाहे भले हो जाएँ! हलांकि कुछ लोग बिना नमक-मिर्च काव्य-सौन्दर्य विहीन लेखन को सपाटबयानी कहकर खारिज करने की कोशिश भी करते हैं। लेकिन व्यंग्येतिहास में श्रेष्ठ घोषित व्यंग्यकारों की श्रेष्ठ व्यंग्यरचनाएँ सपाटबयानी जैसी ही होती हैं, जो बारीकी के साथ 'अन्योक्ति' में कहे गए होते हैं, बस इनमें कहानीपन होता है। लेकिन आज अधिकांशतया रचनाकार 'सपाटबयानी' से बचने के लिए जबर्दस्ती की वक्रोक्तियों का प्रयोग करते देखे जाते हैं, जिसमें कहानीपन न होकर मात्र कुछ कथनों के संग्रह होते हैं! दरअसल इसे अखबारी लेखन कहा जा सकता है। ऐसे अखबारी लेखन, लेखक की भावनाओं को चिरंजीवी नहीं बना सकते। 

         

           इतना तय है कि जैसे फेसबुक की पोस्टों पर 'लाइकवाद' हॉवी है वैसे कागजी लेखन पर 'बाजारवाद' है। इन दोनों प्रवृत्तियों के बीच पाठक बेचारे की पाठकीय खुराक पूरी नहीं होती और जैसे भूखे को थाली दिखाकर फिर उसके सामने से थाली खींच ली जाए, कुछ ऐसी ही हालत पाठक की बना दी जाती है। इस सब के बीच पाठक भी लेखको से खुन्नस पालता जाता है, लेकिन मजे की बात यह है कि इस 'खुन्नस' को ही लेखक अपनी उपलब्धि के रूप में गिनता है।

           

          कुलमिलाकर मेरी इस फेसबुक पोस्ट का मतलब लेखकों को हतोत्साहित करने का नहीं है, क्योंकि लिखी हुई हर चीज साहित्य ही होती है। खासकर आजकल व्यंग्यविधा पर बड़ा जोर है और इस विधा में यथार्थ लेखन की गुंजाइश भी कम है! तो, बस अगर कोई लेखक की उपाधि पाना चाहता है तो "मुखपत्र" बनकर न लिखे! 

       

         वैसे मेरी इस पोस्ट से कोई पाठक मुझसे खुन्नस न पाले! यह मैंने मजे के लिए और अपने फेसबुक वाल का मुँह बंद करने के लिए लिखा है।

विकास के स्टेकहोल्डर

        विकास एक बहुत बड़ा इश्यू बन चुका है, वैसे तो विकास एक प्रक्रियात्मक चीज है, इसे जानने की कोशिश में पूरा विकास-क्रम परत-दर-परत उघड़ आता है!! लेकिन भगवान की तो भगवान ही जाने, पता नहीं उनके यहाँ सृष्टि के विकास क्रम से संबंधित फाइलें बनती हैं भी या नहीं। लेकिन यहाँ आर्यावर्त का आदमी अपनी सरकारों से पत्रावलियों के माध्यम से विकास कार्यक्रम संपन्न कराता है और इस विकास को जानना, समझना या प्रमाणित करना हो तो सर्वप्रथम इन्हीं पत्रावलियों का अवलोकन करना होता है। हाँ, जितने भी टाइप के विकास दिखाई पड़ते हैं उन सब की फाइलें होती हैं! विकास अपनी इन्हीं फाइलों पर आरूढ़ होकर गतिमान होता है। लेकिन कई बार विकास के लिए लालायित लोग यह भी कहते सुने जाते हैं कि विकास फाइलों में ही कैद होकर रह गया है, या फाइलों में गुम है, तो मामला पेंचीदा हो उठता है! और जाँच का विषय बनता है। फिर जाँच से ही पता चलता है कि विकास हुआ या कि पैदा किया गया। दरअसल विकास के संदर्भ  में 'हुआ' और 'पैदा किया गया' के अलग-अलग मायने हो सकते हैं! 

         लेकिन यह जाँच कार्य, पहले मुर्गी या अंडा वाले प्रश्न की तरह विचित्र धर्मसंकट में ढकेलने वाला होता है। आजकल जमाने पर विकासवाद हॉवी है, ऐसे में विकास और उसकी पत्रावली दोनों ही गड्डमगड्ड हो चुके हैं, इनमें से कौन पहले पैदा हुआ इसे सिद्ध करने का प्रयास करना आफत को गले लगाने से कम नहीं! लेकिन इस पेंचीदे और रहस्यमयी प्रश्न का उत्तर आध्यात्मिक ज्ञानी दूसरे रूप में ढूँढ़ते हैं। ये विकास और उसकी पत्रावली के बीच के संबंध की व्याख्या उसे व्यवहारिक जगत और पारमार्थिक जगत मानकर करते हैं। बस उसी टाइप से कि चाहे भगवान को संसार या संसार को ही भगवान मान लो! सब माया का खेल!! फाइल में, से, के द्वारा, ही विकास है या फिर विकास से, के कारण ही फाइल है, आशय यह कि विकास हो या उसकी फाइल दोनों ही मायावी हैं! माया के खेल को समझ चुके लोग अवसरानुकूल विकास और उसकी फाइल के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कर लेते हैं!

     जैसाकि सब जानते हैं, विकास के लिए धमाचौकड़ी तो मची ही रहती है, ऐसे में ये वाला, वो वाला, इस पत्रावली वाला, उस पत्रावली वाला, मने सभी वाला विकास, इसके स्टेकहोल्डरों को गड्डमगड्ड दिखाई पड़ता है और ये विकास में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कराने के लिए आपस में पिल पड़ते है। मामला गंभीर होने पर विवाद के निपटान हेतु जाँच समितियां गठित की जाती है, और इन्हें निर्देशित किया जाता है कि जाओ पत्रावली और विकास के बीच के 'नेक्सस' को परिभाषित करो, जिससे इसके स्टेकहोल्डर संतुष्ट हो सकें। लेकिन जाँच समितियों का किसी निष्कर्ष पर पहुँचना दुश्वार हो जाता है, क्योंकि ये समितियाँ भी अकसर पत्रावली की मायावी चाल में उलझ जाती हैं। 

       ऐसी ही एक जाँच समिति के सदस्यगण विकास कार्य की किसी फाइल में उलझे हुए थे! और इसकी नोटशीट से लेकर इसका एक-एक प्रपत्र बारीकी से खंगाल रहे थे! इस कमेटी के एक मेंबर ने किसी कागज को देखकर कहा कि विकास हुआ है, तो जाँच समिति के अध्यक्ष जी ने तपाक से कह दिया कि चलो मान लेते हैं कि काम हुआ! लेकिन वहीं जब दूसरे मेंबर ने यह कहा कि इस कागज से काम होना सिद्ध नहीं होता, तो वही अध्यक्ष जी पलटी मारते हुए बोले कि कोई बात नहीं, यही मान लेते हैं कि काम नहीं हुआ! लेकिन तीसरे मेंबर के यह कहने पर कि ऐसे कैसे यह माना जाए? साइट पर तो काम मिला! तब अध्यक्ष महोदय झल्लाकर बोले, तो उसे और पत्रावली पर हुए काम को को-रिलेट करो।" अन्ततः जाँच समिति बिना कोई निष्कर्ष स्थापित किए ही उठ गई। वैसे अगर कमेटी किसी निष्कर्ष पर पहुँचती भी है तो इसके बाद की गठित एक दूसरी रिव्यू कमेटी इस निष्कर्ष को पलट भी सकती है! खैर।

        ऐसेे ही फाइलों से पैदा किया गया विकास अपने स्टेकहोल्डरों के मध्य ही, उनकी चमक-दमक बढ़ाए बिंदास भाव से घूमता रहता है और उसे जहाँ होना चाहिए वहाँ वह नहीं होता। इन स्टेकहोल्डरों को विकास की परत-दर-परत हिस्ट्रीशीट पता होती है! विकास को सही जगह पहुँचाने के लिए किसी पत्रावली की बजाय ऐसे स्टेकहोल्डरों की हिस्ट्रीशीट खंगालनी चाहिए।   

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

विभाजक रेखाओं का खोखलापन

दुनिया को एक न एक दिन इस महामारी से अवश्य मुक्ति मिलेगी| लेकिन इस बीमारी के जाते-जाते विकास का खोखलापन उजागर हो चुका होगा, वही विकास जिसे इस महामारी से पार पाने में नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं| एक दिन यह होना ही था, आखिर धरती पर इंसानों की गतिविधियों की कोई न कोई सीमा तो होनी ही चाहिए, लेकिन इस सीमा पर हमने कभी सोचने की जरूरत ही नहीं समझी! कहते हैं जंगल के भी अपने कानून होते हैं, और यह कानून प्रत्येक जानवर के लिए एक क्षेत्र निर्धारित करता है और यदि यह क्षेत्र अतिक्रमित होता है, चाहे किसी भी जानवर द्वारा हो, तो इन वन्य जन्तुओं के अस्तित्व पर संकट मँडराने लगता है| लेकिन क्या मनुष्य ने अपने लिए ऐसी कोई सीमा निर्धारित की हुई है? दरअसल आधुनिक मानव ने अब तक अपने लिए किसी सुरक्षित जोन का निर्धारण ही नहीं किया और अगर कुछ किया भी तो राजनीति, धर्म-सम्प्रदाय, जाति आदि जैसी मानवता को दरकिनार करके चलने वाली विभाजक रेखाएं ही उसने खींची| उसकी खींची ये सारी विभाजक रेखाएं उसके बाजारवादी विकास के माडल में कोढ़ में खाज जैसी ही सिद्ध हुई हैं!   
       खैर, अगर उसने अपने लिए किसी जोन का निर्धारण किया भी है तो वह है विकास का जोन! आधुनिक युग में मनुष्य अपना मूल्यांकन इस जोन के लिए अपने द्वारा निर्धारित किए गए मानदंडों के अनुसार ही करता है| लेकिन ये मानदंड अब छिन्न-भिन्न होते दिखाई दे रहे हैं|  ऐसा हो भी क्यों न! दरअसल उसने विकास को अपने लिए नहीं गढ़ा, बल्कि स्वयं को ही विकास के लिए गढ़ने लगा और उसके हवाले हो लिया| विकास के जोन मेें खड़े मनुष्य की अन्तश्चेतना से प्रकृति लुप्त होने लगी| दरअसल इस जोन में खड़ा प्रकृति से उपजा प्रकृति का यह श्रेष्ठतम जीव, स्वयं अप्राकृतिक हो उठा! और यही पैमाना हो गया उसके विकास का तथा इस पैमाने पर इतराने भी लगा|
     यह बड़े आश्चर्य का विषय है कि अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी तक महामारियों, व्याधियों से लड़ता आया इंसान कैसे यह सब भूल गया! क्या विकास के उसके गढ़े हुए मानदंड से जीवन बहिष्कृत होता गया है? वास्तव में अट्ठारहवीं- उन्नीसवीं शताब्दी के बाद हुई वैज्ञानिक प्रगति और उसकी खोजों से यह दुनियां जितनी सुंदर और सुरक्षित होनी चाहिए थी क्या ऐसा ही हो पाया है? शायद नहीं, अन्यथा एक महामारी के समक्ष हम निरुपाय से असहाय खड़े हुए बिलबिला न रहे होते! सच तो यह है, हमने रचा बहुत कुछ है, लेकिन इस रचे हुए को बाजार के हवाले कर दिया तथा जीवन ही नहीं मृत्यु को भी हम बेचने लगे| कोई आश्चर्य नहीं कि कोरोना वायरस भी इस बाजार की ही देन हो और इसके द्वारा उत्पन्न किया| 
       बाजार और विकास के चक्कर में हमने अपनी प्यारी धरती को कितना झुठलाया है, यह समझने की बात है! लेकिन यह विडंबना ही है कि कोरोना महामारी के खूनी जबड़े में आज मनुष्य के साथ-साथ उसका यह बाजार और विकास फँसा पड़ा कराह रहा है| आज  कोरोना के समक्ष मनुष्य के गढ़े हुए उसके सुरक्षित जोन, यथा उसकी गढ़ी हुई राजनीति, उसके धर्म, सम्प्रदाय, उसके भगवान, उसका ऊपरवाला सब असहाय हैं| मनुष्य द्वारा निर्मित सारी विभाजक रेखाएं इस कोरोना के सामने अब बेमानी हो रही हैं|

खैर अभी ग़नीमत है कि हम अपने शहरों, सड़कों और गलियों के सूनेपन को देख पा रहे हैं, लेकिन कहीं ऐसा भी दिन न आ जाए जब इस सूनेपन के बीच ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं के कंगूरे ढह रहे हों और इन्हें देखने वाला कोई न हो!! 

रविवार, 15 मार्च 2020

लिल्लीघोड़ी पर सवार कौवा

          "आपके लेखन में साहित्यिकता नहीं है!"  लेखकीय मन से जुड़ने की कोशिश में मेरे सामाजिक सरोकार वाले मन ने मुझसे कहा। 
        "रात-दिन तुम्हारी चिंता में रहता हूँ और इसी कारण लेखकीय कर्म में निरत हूँ, फिर यह कैसे कह सकते हो?" मेरे अंदर का लेखक बोला। 
         "इसलिए कि आपका लेखन मुझे मान्यता दिलाने में असफल है.." मेरे सामाजिक सरोकार ने जैसे रूँआंसेपन से कहा। 
       "सरोकार महोदय! तुम्हें मान्यता की इतनी चिंता हो रही है! क्या बिना मान्यता मिले तुम सरोकार और मैं लेखक नहीं?" मुझे अपने सरोकारी भाव से चिढ़ टाइप हुई।
        "नहीं मैं सरोकार हूँ और रहुंगा, दरअसल तुम मुझसे सीधे आ जुड़ते हो, जबकि तुम्हें साहित्यकार बनना है न कि समाजसेवक! इसलिए साहित्यिक भाव से मुझसे सरोकार रखो, जिससे मूर्धन्य साहित्यकार तुम्हारे लेखन को व्याख्यायित कर अपनी मूर्धन्यता के साथ मुझे भी महिमामंडित कर सकें! क्यों क्या बात है, तुम खामोश क्यों हो गए?" मुझे हाँ-हूँ करते न देख मेरे सामाजिक सरोकार ने मुझे टोका।
       धीर-गंभीर मन:स्थिति में मैंने कहना चाहा, "देखो, एक तो मुझे तुम्हारी बात समझ में नहीं आई, दूजे मेरे लिखे से कोई महिमामंडित हो, इस बात से मेरा कोई सरोकार नहीं, समझे?"
        लेकिन वह, मतलब मेरे सामाजिक सरोकार ने, मुझे चिढ़ाने से बाज नहीं आया और कुटिल मुस्कान लिए बोला, "चलो मान लिया, तुम्हें अपने ही सरोकार से कोई सरोकार नहीं, लेकिन इसमें तुम्हारा नहीं तुम्हारे परिवेश और संस्कारों का दोष है। इस देश की माटी ही ऐसी है कि यहाँ लोग अपने नहीं दूसरे के सरोकार पर हाथ साफ करते फिरते है! और जो तुम ये कह रहे हो कि तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आई तो सुनो..
        ...वो क्या है कि! तुम सब समझते हो, नहीं तो तुम अपनी किताब का नाम "लिल्लीघोड़ी पर सवार कौवा" न रखते! भला किसी पुस्तक का यह भी कोई नाम हुआ!"
        मैं समझ गया कि मेरा लेखकीय सरोकार लथेड़ने की मंशा से आज मुझे कोंचने का अवसर छोड़ना नहीं चाहता। फिर भी मैंने सहज भाव से उसे समझाने की कोशिश की, "देखो जी, हम जो लिखते हैं वही साहित्यिक हो जाता है, रही बात शीर्षक की, तो साहित्यिक कर्म में प्रकाशक का भी हाथ होता है, इसलिए उसका भी कहा मानना जरूरी है! अन्यथा अपनी किताब का कोई दूसरा सरोकारी नाम देता!"
          "गुड..गुड..! तुम मुझसे सरोकार रखो, लेकिन वाया साहित्यिक-भाव से! अब देखना, तुम्हारी इस पुस्तक में लिल्लीघोड़ी पर सवार कौवे का मिलना भले ही असंभव हो लेकिन यह साहित्यिक टाइप का शीर्षक इस किताब का बिजनेस करवा ही देगी! यही मैं समझाना चाह रहा था कि लेखन भी इस शीर्षक जैसा ही होना चाहिए! जिसे पाठक नहीं साहित्यकार ही समझ पाएं! इसी में मुझ जैसे सरोकार और तुम जैसे लेखक की महत्ता है! इतनी छोटी बात तुम्हारा प्रकाशक समझ रहा है और तुम नहीं! यह घोर आश्चर्य का विषय है! लानत है तुम्हारे लेखन पर।" 
        बाप रे ! इसके साथ ही मेरे सरोकारी मन ने मेरे लेखक-मन को झिंझोड़कर रख दिया!! और मैंने लिल्लीघोड़ी पर कौवा की सवारी कराने की जैसे ठान भी लिया! उंगलियों में कलम फँसाए, अरे नही, इसे की-बोर्ड पर रखे हुए, साहित्यिक टाइप का भाव जगाने हेतु चिंतनरत हो गया।   

शुक्रवार, 6 मार्च 2020

आरे में आरा

          टहल-वहल कर आया और झाड़ू-वाड़ू भी लगाया क्योंकि बाहर की खर-पतवार पर क‌ई बार निगाह-सिगाह पड़ चुकी थी। अब चाय-वाय पी लेने के बाद इत्मीनान से बैठ गया हूं। फेसबुक पर कुछ पोस्ट करने के लिए मन कुलबुलाने लगा, जैसे अखाड़े को देख पहलवानी सूझे! तो सोचा आओ इस पर कुछ लिखें-फिखें ही। क्या लिखना है और क्या लिखते जा रहा हूं, बिना यह तय-फय किए और साथ ही लिखने के किसी दांव-पेंच पर भी विचार-फिचार किए बिना लिखना शुरू कर दिया।

          

           हां चाय-फाय पीते समय अखबार जरूर पढ़ रहा था। अखबार के पन्ने-सन्ने पलटते-फलटते संपादक महोदय द्वारा इसमें प्रकाशित 'खेद प्रकाश' पर निगाह पड़ गई, और मजे की बात यह कि खेद प्रकाश भी किस पर ? इस पर कि बीते दिन के अंक में "एक वाक्य के अंश के रूप में 'अच्छाई पर बुराई की जीत' छप गया है, जबकि इसके स्थान पर 'बुराई पर अच्छाई की जीत' होना चाहिए था।" और संपादक महोदय आगे कहते हैं 'इस गलती का हमें खेद है।' तो भ‌इया संपादक महोदय! इसपर खेद-फेद जताने की कोई जरूरत-फरूरत नहीं आपको। यही होता आया है इस देश में, पहले अच्छाई पर बुराई ही जीतती है फिर बुराई पर अच्छाई के जीतने की नौबत आती है! आप ध्यान नहीं दिए, अापके इस अखबार में आज यह जो समाचार छपा है न, कि "आरे में पेड़ों की कटाई पर रोक" इस बात का ठोस प्रमाण है। यानी कि मतलब भर के पेड़ों पर आरा चल जाने के बाद ही कटाई पर रोक लगी। देखा ! जरूरत के हिसाब से व्यवस्थित तरीके से बुराई को जीतने दिया जाता है, इसके बाद ही अच्छाई का नंबर आता है!! फिर काहे का खेद !!!

        

            संपादक जी आप नहीं समझते अच्छाई और बुराई के इस पटकी-पटका खेल को! हाँ यह खेल ही है क्योंकि यहां दोनों के लिए ताली बजाने वाले लोग हैं। जरा इस पर भी विचारिए, आरे में मतलब भर के पेड़ों पर आरा चल जाने से विकास वाले जरूर खुशी में ताली बजाए होंगे। वैसे तो आप संपादक हैं सब जानते ही होंगे, आपको भी अखबार बेंचना है, इसलिए अच्छाई या बुराई दोनों को जिताने का हुनर आपको पता होगा ही! अब यहीं देखिए, आपके अखबार के पन्ने पलटते समय आपकी प्रस्तुति "आरती संग्रह" वाली पत्रिका अखबार से फिसलकर जमीन पर गिर पड़ी। मेरी भक्ति भावना को जैसे ठेस लगी और मैंने बिना देर किए झटापट श्रद्धाभाव से जमीन पर पड़ी पत्रिका को उठा लिया और इसके पन्ने पलटने लगा। खैर, इसमें आरती तो इतने बारीक अक्षरों में लिखा था कि आंख गड़ाकर भी पढ़ने में मुश्किल !! लेकिन वहीं उसी पत्रिका में छपे तमाम विज्ञापनों को कोई चाहे तो एक फर्लांग की दूरी से भी पढ़ ले। 

            

            तो समझिए! जैसे भक्ति के कवर पेज के साथ बड़े कौशल से आप दुनियादारी बेच रहे हो न, उसी तरह से अच्छाई के विजय का डंका भी बुराई को चुपचाप अपना काम करते रहने देने के लिए  बजाया जाता है, है न ? सच तो यह है, 'अच्छाई' ने ही बड़ी चालाकी से आरे में काम भर के पेड़ काटने दिए, और बुराई का यह काम हो जाने के बाद जब आई भी तो इस वाहवाही के साथ, कि देखो यह हुई न बुराई पर अच्छाई की जीत!! हां कि अच्छाई की इस जीत पर अब ढोल पीटो और दशहरा मनाओ। लेकिन इस खुशी में यह नहीं समझ में आता कि बुराई हार कर भी कैसे जीत जाती है और अच्छाई जीत कर भी कैसे हार जाती है, कि सीता को अन्तत: वनवास भोगना ही पड़ता है।

        

            तो, मेरे समझ से अच्छाई और बुराई के इस नूराकुश्ती पर इनमें से किसी की भी हार या जीत को कैजुअली-फैजुअली टाइप से ही लेना चाहिए। इनकी जीत या हार पर खेद-फेद या खुशी-फुशी मनाने की जरूरत नहीं। लेकिन बाजार और विकास इन दो जुड़वा भाईयों के बीच हम फंसे पड़े हैं, ये जिस पर चाहें रुलाएं या हंसाएं!! इधर आरे में आरा ऐसे ही चलता रहेगा।

शपथ के मोड में!

            एक गाना मुझे बहुत पसंद है वह कि "भगवान...सुन दर्द भरे मेरे नाले" शायद संविधान में जनता के इसी 'नाले' को सुनने की व्यवस्था की गई है, जिसके तहत शासकों को पद और गोपनीयता की शपथ खानी होती है और शपथ खाते शासकों पर मेरा ध्यान फोकस हो जाता है। आखिर ये देश की जनता के 'नाले' सुनने के लिए भगवान जो बन चुके होते हैं! ऐसे शपथी अकसर खानदानी टाइप के ही होते हैं। वैसे भी अपने देश में खानदानियों का ही जलवा रहता आया है। ये, येन-केन-प्रकारेण पद्धति वाली अपनी शक्ति के प्रयोग से, पीढ़ी दर पीढ़ी शपथ खाने से लेकर खिलाने तक की शक्ति रखते हैं और घुमा-फिराकर इसे खाने का जुगाड़ भी फिट कर लेते हैं। इस देश में क्या नेता, क्या जनता! सभी जुगाड़ से काम चलाते हैं। 


          लेकिन यहाँ की बेचारी जनता को जुगाड़ का भी उतना शऊर नहीं ! उसे अपने भक्ति-भाव पर ही ज्यादा भरोसा होता है, तभी तो भगवान को प्रसन्न करने के लिए वह हजारों वर्ष तपस्या कर सकती है। दूसरे, भगवान से वरदान पाने की यदि ज्यादा जल्दी हो, तो वह मनमाफिक भगवान भी खोज सकती है, मतलब "जाकी रही भावना जैसी हरि मूरत देखी तिन्ह तैसी' टाइप से। खैर, इस जमाने में राजाओं वाला 'राजत्व-गुण' खानदानियों में ही पाया जाता है। और, जनता भी अपने भक्ति-भाव संम्पृक्त सांस्कृतिक-दयालुता के वशीभूत खानदानियों को राजत्व-विहीन नहीं देख पाती तथा पुनि-पुनि सिंहासनारूढ़ कराती रहती है। वैसे भी यह जनता करे भी तो क्या करे? खानदानी टाइप के राजनीतिक लोग तो पैदाइशी मुँह में सोने का चम्मच लिए जैसे शपथ खाए धरती पर अवतरित हुए रहते हैं, शपथ खाना इनके लिए औपचारिकता भर होता है! बिना इसका डोज लिए हुए भी ये काम चला लेते हैं।

         

          यदि किसी गैर-खान‌दानी ने, जनता को धता बताकर या भूले-भटके शपथ खा भी लिया हो तो, वह भी अपनी सात पुश्तों को खानदानी बना जाता है! क्योंकि खानदानीपन शक्ति के साथ राजत्व गुण मापने का भी पैमाना है और जिसके सामने जनता सिर झुकाती है।  इस शक्ति को जनता कम न आंके, इसलिए शपथ अकेले में नहीं, खानदानी-खानदानी मिलकर स्टेज पर बाकायदे समारोह पूर्वक शपथ खा और खिलाकर अपने राजत्व गुण का प्रदर्शन करते हैं, आखिर उन्हें भी यह पता होता है कि जंगल में मोर नाचा किसने देखा! दरअसल जनता को और कुछ पता हो या ना हो, उसे यह तो पता ही होता है कि कोई ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा नहीं, यही बड़े खानदानी लोग उसकी समस्या हल कर सकते है। क्या है कि जनता इन खानदानियों को समस्याओं से दुनियां को सजाते हुए देख चुकी होती है, खैर।

     

           यहाँ उल्लेखनीय है भारत जैसे देश में 'किरपा' का बड़ा महत्व है, और घुरहू-कतवारू में किरपा बरसाने का गुण नहीं हो सकता, यह गुण राजा महाराजाओं से लेकर खानदानियों में ही रहा है। भारत की महती सभ्यता में माना गया है कि भगवान टाइप के लोग ही किरपा बरसा सकते हैं। इस प्रकार जो शपथ खा रहे होते हैं, मान लीजिए कि वे समस्याओं पर मुस्तैदी के साथ किरपा बरसाने जा रहे हैं और इनके शपथोपरांत सारी समस्याएं ठिकाने लग जएंगी। इसीलिए देशहित में समस्याओं के हलार्थ ये इतने चिंतित रहते हैं कि साल के तीन सौ पैंसठ दिन गुणे चौबीसों घंटे शपथ खाने के ही मोड में रहते हैं। मतलब बिना इसकी चिंता किए कि, हड़बड़-तड़बड़ में खाई गई चीज पचेगी भी या नहीं? ये आनन-फानन में भी शपथ खा लेते हैं। शपथ खाने के बाद जनता को राजत्व का बोध कराना और आसान हो जाता है। 

        

          अंत में इस बात पर और ध्यान फोकस कराना चाहता हूँ, जिसे मैं बचपन से ग्रहण करते हुए चला हूँ, यह कि कसम टूटने पर विद्या माई के प्रकोप से बचने के लिए स्कूली बस्ते को माथे से छुआ कर हम कहते जय विद्यामाई की। वैसे ही आज के लोकतांत्रिक भगवान 'भारत माता की जय' या फिर 'मंदिर गिरता फिर बन जाता' टाइप से बोलकर जनता के बीच उसके प्रकोप से बचते हुए अपने प्रति उसका आस जगाए रखते हैं।