बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

सहित्यकारिता को जीना भी पड़ता है

          बचपन में जब कभी बेमतलब की घुमक्कड़ी कर रहे होते तो घर के बड़े लोग उठाईगीरी करने का तमगा दे दिया करते थे। इस उठाईगीरी में गैरजिम्मेदारी और आवारगी का भाव मिलाजुला होता है। आज जब हम नौकरी में हैं तो स्वयं उठाईगीरी करने जैसा भाव मन में कभी-कभी आने लगता है। खैर, इसकी व्याख्या में हम नहीं जाना चाहते क्योंकि तब बेमतलब का बखेड़ा खड़ा करना माना जाएगा एक तो यही कि जैसे सरकारी पुरस्कार हमनें क्यों ग्रहण किया?

        इधर नौकरी की व्यस्तता में इतना खो गए कि हमें पारिवारिक दायित्व ही विस्मृत से हो गए। लेकिन नौकरी से बचे समय में घर की बात भूल लेखक या साहित्यकार बनने का चस्का पाल लिये। अब मेरी लगातार पोस्टों को देखकर मेरे घर में यह विश्वास ही नहीं हो रहा कि मैं इन दिनों नौकरी में व्यस्त हूँ।

          उस दिन श्रीमती जी ने काफी नाराजगी व्यक्त किया और यह कहते हुए कि "अपने घर के प्रति गैरजिम्मेदार, आवारा और उठाईगीर ही लेखक या साहित्यकार बनते हैं" और फोन काट दिया था। वास्तव में उनका यह कथन मुझे अन्दर तक हिला गया। मुझे श्रीमती जी का कथन प्रामाणिक सिद्ध होता प्रतीत हुआ।  क्योंकि जो व्यक्ति अपने परिवार को ही नहीं गढ़ सकता वह साहित्यकार क्या बन पाएगा? और मुझे लगा ऐसे ही उठाईगीरी में ही लोग लेखक बन पाते होंगे। केवल चन्द शब्द गढ़ देना ही साहित्यकारिता नहीं होती उसके कथ्य को जीना भी पड़ता है।

          संयोग से उसी दिन मैंने एक साहित्यकार को किसी विवाद पर अपने साहित्यिक पुरस्कार लौटाते हुए देखा। मुझे साहित्यकारों का यह काम बहुत अच्छा लगने लगा। मुझे प्रतीत हुआ कि बेमानी के पुरस्कारों के साथ इन लोगों ने अब जाकर न्याय किया। वास्तव में उठाईगीरी का लेखन पुरस्कार के योग्य हो ही नहीं सकता। गाँधी भी गाँधी इसीलिए बने कि वे जैसा कहते वैसा ही जीते भी थे। केवल लफ्फाजी असरकारी नहीं होता यदि ऐसा होता तो इन साहित्यकारों को पुरस्कार लौटाने की नौबत ही न आती।
      

           अन्त में श्रीमती जी का गुस्से में ही सही कहा गया वह कथन मुझे बड़ा मौजू लगा इसीलिए पत्नी के कथन को हू-ब-हू पोस्ट कर दिया था।

कृपया मुझे मतदाता ही बने रहने दें

किसी भी व्यक्ति की एक राजनीतिक विचारधारा हो सकती है लेकिन यह जरूरी नहीं कि इसके लिए वह किसी एक खास राजनीतिक दल से स्वयं को सम्बद्ध करे। राजनीतिक विचारधारा के क्रियान्वयन के लिए जरूरी नहीं कि राजनीतिक कार्यकर्ता ही बना जाए। राजनीतिक दल सत्तावादी विचारधारा के होते हैं और इनके कार्यकर्ता भी सत्ता के आकांक्षी होते हैं। ऐसी स्थिति में सत्ता की आकांक्षा में राजनीतिक उद्देश्य विश्रृंखलित हो सकते हैं।
                वैसे भारतीय संविधान स्वयं में एक राजनीतिक विचारधारा ही है। यदि इसे सफलतापूर्वक क्रियान्वित कर सकें तो शायद हम अपने राजनीतिक विचारधारा के उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं। इससे इतर कोई निजी राजनीतिक विचारधारा लेकर चलना एक तरह से अलोकतांत्रिक हो सकता है। वैसे हम एक आम वोटर हैं दलीय कार्यकर्ता नहीं और यदि हम एक जागरूक मतदाता हैं तो राजनीतिक दलों के प्रति हमारी निष्ठाएँ भी बदलती रह सकती हैं क्योंकि अपने नागरिकों के लिए एक राष्ट्र की जरूरतें भी देश-काल और तमाम परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं। तथा एक तटस्थ मतदाता ही विश्रृंखलित राजनीतिक उद्देश्यों को राष्ट्रहित में संतुलित कर सकता है।


             अतः कृपया मुझे मतदाता ही बने रहने दें। देश को एक राजनीतिक कार्यकर्ता से अधिक एक जागरूक मतदाता की आवश्यकता है। 

ये शरारते और चटखारे लेते लोग

          सड़क मार्ग से गुजरते हुए दूरी बताने वाले पत्थर पर मेरी निगाह जा पड़ी उस मील के पत्थर पर लिखा था "गदहा" मतलब गदहा इतने किमी। वाकई इसे "मौदहा" लिखा होना चाहिए। लेकिन किसी शरारती ने मजा लेने के लिए इसमें "ौ" को मिटाकर तथा "म" को संशोधित कर "ग" बनाकर इसे "गदहा" कर दिया था। निश्चित रूप से उसे इस काम में मजा आया होगा।

          इसके बाद आगे चलते हुए मैंने देखा हाईवे के किनारे के एक स्कूल का संकेतक चुनावी पोस्टर से ढका दिखाई दिया। थोड़ा और आगे उस जेब्रा क्रासिंग के संकेतक पर भी एक चुनावी पोस्टर चस्पा कर उसे भी ढक दिया गया था जिस पर सड़क पार करते एक नन्हें बच्चे का चिह्न बच्चों की सड़क पार करने की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही लगाया गया होता है। इसके आगे के कस्बे का तो मैं नाम ही नहीं जान पाया क्योंकि उस कस्बे के नाम के बड़े संकेतक बोर्ड पर किसी हाथ जोड़े नेता का चित्र चिपकाया गया था। इसी तरह किसी -किसी मोड़ के संकेतकों पर भी ऐसे पोस्टर चिपके हुए दिखाई दिए जिनके कारण सड़क किधर मुड़ रही है यह पता ही नहीं चल पाता था। रात में ड्राइवर बेचारों का क्या हाल होता होगा?
         एक बार तो मन हुआ कि इन सब की तस्वीरें लेते चलें लेकिन यह सोचते हुए कि कोई पत्रकार तो हूँ नहीं और नहीं लिया।

        निश्चित रूप से ये वे शरारतें हैं जो कानून का उल्लंघन तो करते ही हैं लेकिन इससे नागरिकों का जीवन भी खतरे में पड़ सकता है। अब ऐसी शरारतें जिससे कानून का उल्लंघन होता हो लोग कैसे कर जाते हैं? वास्तव में यही ऐसे छोटे-छोटे कारण हैं जो हमारे समाज के जाहिलपने के साथ हमारी कानूनी व्यवस्थाओं की भी पोल खोलते हैं और लोग शरारतें करने के लिए प्रोत्साहित होते रहते हैं।

             हमें उस संकेतक पर चुनावी प्रचार में हाथ जोड़े नेता का का पोस्टर देखकर टी.एन. शेषन की याद हो आई। मतलब यदि कानून का चाबुक चलने लगे तो कैसे बड़े-बड़े चुनावी प्रचार का जलसा भी एक सन्नाटे में बदल जाता था। शरारतों पर कोई कानून कैसे प्रभावी होता है यह शेषन से सीखा जा सकता है। लेकिन आज हम करते क्या हैं? केवल चिढ़ने-चिढ़ाने के खेल में मस्त हैं।

              आज हमारे समाज में ऐसी ही शरारतें हो रही हैं और हम शरारतों पर चटखारे लेते हैं! "मौदहा" का "गदहा" बन जाने का मजा लेते हैं। हम बोलते भी हैं तो एक दूसरे को चिढ़ाने के लिए और केवल अपनी टीआरपी रेटिंग बढ़ाने के लिए! और जब किसी शेषन के चुनने की नौबत आती है तो हम उसे हरा देते हैं।

             हमारी सोशल मीडिया के लोग इस चिढ़ने-चिढ़ाने के खेल में सबसे आगे है। ऐसे खेल स्वयं में शरारती होते हैं शायद इसी खेल में लिप्त रहने के कारण हम कानून कैसे काम करे इस बात को नेपथ्य में फेंककर एक और नेता का हाथ जोड़ा हुआ चुनावी पोस्टर किसी कानून के संकेतक पर फिर से चस्पा कर देने का अवसर प्रदान कर देते हैं।

        यहाँ बस इतना ही कहना है कि किसी की शरारतों पर चिढ़ने-चिढ़ाने वाले लोगों तुम भी इतिहास के किसी कूड़ेदान में फेंक दिए जाओगे। टीआरपी के खेल में मत उलझो। "कानून अपना काम करेगा" यह जुमला जिस दिन चल गया उस दिन न शरारतें होगी और न शरारती। समझे!


शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

आखिर इनको किस तरह की कानूनी सहायता दी जाए...



           आज 10 अक्टूबर है यानी “विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस” इस अवसर पर जिला विधिक सेवा प्राधिकरण महोबा द्वारा जिला चिकित्सालय परिसर में मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के सहायतार्थ विधिक जागरूकता गोष्ठी का आयोजन किया गया|
         
                विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम १९८७ की धारा १२ (डी) के अंतर्गत मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति निःशुल्क विधिक सहायता के अधिकारी हैं|वे स्वयं अथवा उनकी तरफ से उनके रिश्तेदार अथवा संरक्षक निःशुल्क विधिक सहायता के लिए प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत कर सकते हैं|
         
                   इस गोष्ठी में मुझे भी जाने का अवसर मिला| गोष्ठी में विभिन्न वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किए-
       
                डाक्टर गुप्ता ने सर्वप्रथम मानसिक स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रकाश डाला उनहोंने मेडिकल साइंस में प्रचलित रोगों के नाम का उल्लेख करते हुए इस पर प्रकाश डाला| लेकिन उनके वक्तव्य की एक बात मुझे याद रही| तीन प्रकार के स्वास्थ्य (1)मानसिक स्वास्थ्य, (2)शारीरिक स्वास्थ्य और (3)सामाजिक स्वास्थ्य बताते हुए कहा कि शारीरिक स्वास्थ्य तो दवाओं से ठीक हो सकता है लेकिन मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए सामाजिक स्वास्थ्य को भी ठीक रखना होगा| डाक्टर साहब के कथन का आशय यह भी था कि एक खराब समाज भी व्यक्ति को मानसिक रोगी बना देता है|

              इसके बाद ए.एस.पी. साहब ने बताया कि जब हम निर्णय नहीं ले पाते तब हमारा मानसिक स्वास्थ्य खराब माना जाता है|
        
          मुझे भी इस गोष्ठी के अवसर पर कुछ बातें रखने के लिए कहा गया| मैंने भी कहा कि हमें ऐसे व्यक्तियों की पहचान करते हुए उनके साथ अपने व्यवहार को संवेदनशील बनाएं रखें क्योंकि कभी-कभी हमारा व्यवहार ऐसे व्यक्तियों को खराब मानसिक स्वास्थ्य से उबरने का मौका प्रदान करता है और फिर उनमें भी निर्णय लेने की क्षमता आ जाती है| मैंने उदाहरण के रूप में अपने बचपन की यह घटना सुनाई –एक बार हम तीन-चार बच्चे आपस में कुश्ती की प्रतियोगिता का खेल खेलने का निश्चय किए इस क्रम में एक बच्चा एक दूसरे बच्चे को बार-बार पटकनी दे रहा था लेकिन वह अपनी हार मानने के लिए तैयार नहीं हो रहा था और पुनः लड़ने के लिए तैयार हो जाता...फिर हमने उस बच्चे से हारना तय किया..और वह मिली इस जीत से खुश गया था| मैंने अपने वक्तव्य में यह भी बताया कि मानसिक रूप से कमजोर व्यक्तियों के भी विधिक अधिकार प्राप्त होते हैं तथा लोगों को मानसिक समस्या से पीड़ित व्यक्तियों के कानूनी और संवैधानिक अधिकारों का हनन न हो पाए इसके लिए जागरूक रहना चाहिए तथा आगे बढ़कर सहायता करनी चाहिए|  

               सी.एम.ओ. साहब ने कहा कि पागल किसी को नहीं कहना चाहिए| व्यक्ति की कुछ मानसिक समस्या हो सकती है, इसे समझना चाहिए|

              ए डी. जे. साहब ने भी इस गोष्ठी के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए उन व्यवस्थाओं की चर्चा की जिनसे ऐसे व्यक्तियों को मदद मिल सकती है| उन्होंने यह भी बताया कि वास्तव में कभी-कभी मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति के लिए समस्या बन जाती है ऐसी स्थिति में व्यक्ति कुछ समझने के लिए तैयार ही नहीं होता इस सम्बन्ध में एक कहानी सुनाई...एक बार एक व्यक्ति ने कहा कि मैं मर गया हूँ, उसे लोग बार-बार समझाने का प्रयास कर रहे थे कि नहीं तुम जीवित हो लेकिन वह मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था...तब किसी ने कहा कि तुम्हारा शरीर गर्म है तुम जीवित हो इस पर वह बोला मेरा शरीर गर्म है तब तो मैं मर चुका हूँ..फिर किसी ने उसे सूई चुभो कर निकलते खून को दिखाते हुए कहा कि देखो जीवित के ही खून निकल सकता है इसलिए तुम जीवित हो इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि मुझे खून निकल रहा है इसलिए मैं मर चुका हूँ...आशय यह कि वह किसी भी रूप में दूसरों की बात मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था ऐसे व्यक्तियों को समझाना भी कठिन होता है...


           गोष्ठी समाप्त हुई... मुझे लगा “मर चुके हैं” माननेवाले जैसे लोग अब अपने देश में बढ़ते जा रहे हैं उनपर किसी बात का असर नहीं होता यह सोचते ही मुझे अपने देश के सामजिक स्वास्थ्य की चिंता होने लगी..और अब तो राजनीतिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ हो गया है...आखिर  इन सब इन सब का स्वास्थ्य कैसे सुधरे..? इनको किस तरह की कानूनी सहायता दी जाए..?