बुधवार, 30 मार्च 2022

बदलता भारत

       अभी हाल ही में टीवी पर मैं भारत में प्रस्तावित और निर्माणाधीन आर्थिक गलियारे पर एक रिपोर्ट देख रहा था। इसे देखते हुए मैंने भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वरूप और विश्व में उसकी आर्थिक हैसियत की कल्पना कर रहा था। यहां इस आर्थिक गलियारे की चर्चा हम बाद में करेंगे पहले प्रधानमंत्री मोदी के 2019 में देखे उस विजन की बात करते हैं, जिसमें उन्होंने 2024-25 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर और विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की कल्पना की थी। लेकिन लगता है इसकी तैयारी उन्होंने 1 जनवरी 2015 से ही नीति आयोग (National Institution For Transforming) के गठन के साथ ही प्रारंभ कर दिया था। क्योंकि बदलते वैश्विक अर्थव्यवस्था में योजना आयोग की भूमिका कम हो रही थी। अब आवश्यकता एक ऐसे थिंक टैंक की थी जो मानव विकास के विभिन्न आयामों के साथ एक स्थिर विकास की आकांक्षा को पूरा करने के लिए नवीन अवधारणात्मक दृष्टिकोण देने के साथ उसे क्रियान्वित भी करा सके। नीति आयोग ने अपने गठन के साथ ही इसपर काम करना आरंभ कर दिया था। नीति आयोग का उद्देश्य राष्ट्रीय विकास की प्राथमिकताओं को तय करने के साथ ही वंचित समाज के कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान देने का था। इसके लिए आवश्यक था कि दीर्घावधि के लिए नीति तथा कार्यक्रम विकसित करने के साथ साथ एक न्यायसंगत विकास का ढांचा खड़ा करने पर काम किया जा‌ए। इस प्रकार नीति आयोग ने बदलते समय के अनुसार भारत के विकास एजेंडा का कायांतरण करने की भूमिका में आया।

        भारत के कायांतरण के लिए तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था से तालमेल और प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए आधारभूत ढांचे के विकास के साथ रोजगार के अवसर बढ़ाने और विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए अनुकूल औद्योगिक वातावरण तैयार किए जाने की आवश्यकता थी। इसके लिए आर्थिक गलियारा निर्माण की नीति अपनाई गई है। इस नीति के क्रियान्वयन से भविष्य में भारत को ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने और समग्र विकास का रास्ता प्रशस्त होगा तथा इससे कौशल विकास, रोजगार के अवसर बढ़ने के साथ ही साथ औद्योगिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा भी बढ़ेगी। 

       विश्व के कुछ प्रमुख औद्योगिक गलियारों पर यदि दृष्टि दौड़ाएं तो आर्थिक रूप से समृद्ध देशों में उनकी अर्थव्यवस्था में आर्थिक गलियारे का महत्वपूर्ण योगदान है। जैसे अमेरिका में 500 मील का बोस्टन-वाशिंगटन आर्थिक गलियारा दुनिया का सबसे लोकप्रिय आर्थिक गलियारा है। अकेले इस कॉरिडोर से कुल 3.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का आर्थिक उत्पादन होता है, जो जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद और संयुक्त राज्य अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद के 19-20% के बराबर है। यहां तक ​​​​कि संयुक्त राज्य अमेरिका में इस तरह के सबसे छोटे गलियारों में, 29-मील डेनवर-बोल्डर औद्योगिक गलियारा, आर्थिक उत्पादन में 256 बिलियन डॉलर का उत्पादन करता है। आज 13.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के आर्थिक उत्पादन पर, संयुक्त राज्य अमेरिका में बारह औद्योगिक गलियारे चीन के सकल घरेलू उत्पाद का 86.8% हिस्सा हैं। इसी तरह जापान में ओसाका और टोक्यो को जोड़ने वाला 1,200 किलोमीटर का कॉरिडोर अकेले जापान के सकल घरेलू उत्पाद का 80% हिस्सा है।

        कहा जाता है कि अर्थव्यवस्था में हर मील का पत्थर अतीत से उपजता है, अर्थात पूर्व की आर्थिक नीतियों की नींव पर बड़ा लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। भारत में औद्योगिक गलियारे की पृष्ठभूमि वर्ष 2007 में केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा अनुमोदित दिल्ली मुंबई औद्योगिक गलियारा परियोजना की स्वीकृति के साथ ही पड़ गई थी और यह परियोजना 2011 में प्रारभ हुई। लेकिन इस क्षेत्र में तेजी तब आई जब इसे एक नीतिगत विषय मानकर वर्ष 2016 में "राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा कार्यक्रम" के रूप में एक व्यापक योजना पर कार्य शुरू हुआ। औद्योगिक आर्थिक गलियारा एक आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र है जो परिवहन गलियारे के चारों ओर विकसित किया जाता है। इसके पीछे निवेश आकर्षित कर रोजगार के अवसर सृजित करना, सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र के योगदान को बढ़ाना, समान औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा देना तथा श्रम उत्पादकता और आय के स्तर में वृद्धि जैसे उद्देश्य थे। निश्चित रूप से, आर्थिक गलियारों के पूर्ण होने पर भारत में औद्योगीकरण और नियोजित शहरीकरण के साथ समावेशी विकास को बढ़ावा मिलेगा।  

          वर्तमान में, 11 औद्योगिक गलियारा परियोजनाएं हैं जिनमें से भारत सरकार ने पाँच औद्योगिक गलियारा परियोजनाओं के विकास को मंज़ूरी दे दी है, जिन्हें राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास और कार्यान्वयन ट्रस्ट (National Industrial Corridor Development and Implementation Trust- NICDIT) के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है। भारत के प्रमुख आर्थिक केंद्रों को जोड़ने वाले ये पांच प्रमुख आर्थिक गलियारे हैं, 1. दिल्ली मुंबई औद्योगिक गलियारा (डीएमआईसी 1504 किमी),। 2. चेन्नई बेंगलुरु औद्योगिक गलियारा (सीबीआईसी 560 किमी), 3. बेंगलुरु-मुंब‌ई आर्थिक गलियारा (1000 किमी), 4. विजाग- चेन्नई आर्थिक गलियारा (800 किमी), 5.अमृतसर कोलकाता औद्योगिक गलियारा (एकेआईसी 1839 किमी)। इन पर "राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा कार्यक्रम" योजना के रूप में समग्र स्वीकृत कोष 20,084 करोड़ में रु में से अब तक 6,115 करोड़ का उपयोग किया जा चुका है और इसके अतिरिक्त अन्य प्रस्तावित परियोजनाओं, हैदराबाद नागपुर औद्योगिक गलियारा (एचएनआईसी), हैदराबाद-बेंगलूरू औद्योगिक गलियारा, ओडिशा इकोनॉमिक कॉरिडोर,  दिल्ली नागपुर इंडस्ट्रियल कॉरिडोर को स्वीकृति प्रदान की गई है।

         यहां एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है, वर्तमान में उद्योगों और रोजगार के अवसर का संकेंन्द्रण कुछ विशेष क्षेत्रों या शहरों तक ही सीमित है तथा श्रमिक पलायन करने के लिए बाध्य होते हैं। लेकिन औद्योगिक कोरीडोर के पूर्ण और विकसित हो जाने पर देश के पिछड़े क्षेत्रों में भी विकास के साथ रोजगार के अवसर सृजित होंगे। इस प्रकार देश के आर्थिक प्रगति में क्षेत्रीय असमानता दूर होगी तथा भारत के सकल घरेलू उत्पाद में तेजी के साथ उछाल आएगा। आज कोविड काल जैसी विपरीत परिस्थितियों के बाद भी इसका अनुमान 8.3 प्रतिशत लगाया गया है, जो देश के आर्थिक विकास के लिए एक शुभ संकेत भी। लेकिन यहां हम यह भी कह सकते हैं कि आज भारत जी डी पी चाहे जो हो, यदि देश में आर्थिक गलियारे विकसित हो जाते हैं तो भारत की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर से भी कहीं अधिक बड़ी होगी।  
         
        किसी भी राष्ट्र को एक बड़ी अर्थव्यवस्था में बदलने के लिए, कृषि सुधार, भूमि और श्रम सुधार, रोजगार के अवसर और कौशल विकास के लिए रोड मैप बनाए जाने की भी आवश्यकता होती है। नीति आयोग इस एजेंडे पर रणनीति के साथ काम कर रहा है और ऐसा लगता है कि भारत एक ऊँची अर्थव्यवस्था में छलांग लगाने के लिए तैयार बैठा है। भारत के विमुद्रीकरण (नोटबंदी) की हम चाहे जितनी आलोचना करें लेकिन इसके बाद देश लगभग 1 अरब डेबिट/क्रेडिट कार्ड, 2.25 अरब पीपीआई (प्रीपेड पेमेंट इंस्ट्रूमेंट्स) और कई नए पेमेंट मोड के साथ सबसे बड़े और तेजी से बढ़ते डिजिटल पेमेंट बाजार में से एक होने वाला है। मोबाइल से दुकानों में पेमेंट करने के मामले में भारत 20.2 फीसदी के साथ दुनियां में छठे स्थान पर है जबकि अमेरिका सातवें नंबर पर है। यह हमारे कौशल विकास की एक बानगी भर है। 
      
        उस दिन संसद टी वी पर भारत में प्रस्तावित और निर्माणाधीन आर्थिक गलियारे पर डाक्यूमेंट्री देखकर मैं बदलते भारत के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त हो गया था। अंत में एक बात और कहना चाहता हूं, जातिवादी और साम्प्रदायिक शक्तियां अकसर आर्थिक रूप से विपन्न और कमजोर वर्गों का सहारा लेकर ही आगे बढ़ती है। लेकिन भविष्य में, देश में जिस आर्थिक वातावरण का सृजन होने जा रहा है, निश्चित ही ऐसी शक्तियों की धार कुंद होगी तथा आगे चलकर ऐसी विचारधाराएं औचित्यहीन हो जाएंगी।

              (इस लेख के कुछ अंश गूगल से प्राप्त जानकारी के आधार पर है)

मंगलवार, 15 मार्च 2022

अब 'फार्च्यूनर' की नहीं, आम आदमी की राजनीति

              10 मार्च की तारीख थी, पांच राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव परिणाम आ रहे थे। मैं गौर से इन परिणामों का अध्ययन कर रहा था। हालांकि ये परिणाम कुछ-कुछ वैसे ही थे, जैसा कि मैंने अपने कुछ साथियों से हुई निजी बातचीत में अनुमान लगाया था और ये मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं थे। लेकिन इन परिणामों में छिपी हुई कुछ बातें ऐसी थी जो बरबस मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। लगभग उन्हीं बातों को अरविंद केजरीवाल जी ने उसी दिन मतदाताओं के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने संबोधन में कहा था। मैंने उनका पूरा भाषण ध्यान से सुना। उन्होंने उस संबोधन में एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर रेखांकित किया, जैसे कि पंजाब में जिन बड़े दिग्गजों की हार हुई है, उन्हें हराने वाले एकदम से आम आदमी थे। इसके बाद शाम को मैंने प्रधानमंत्री जी का दिल्ली के पार्टी कार्यालय में हुए संबोधन को सुना।

            अपने इस संबोधन में प्रधानमंत्री जी ने दो महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इंगित किया। प्रथमत: उन्होंने भ्रष्टाचार और उसकी जांचों को लेकर बहुत कुछ कहा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांचों को राजनीतिक रंग देने वाले या इसे भेदभावपूर्ण बताने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों पर तंज कसा। वहीं दूसरी ओर उन्होंने देश से परिवारवादी राजनीति का अंत होने जा रहा है, की बात कही।  प्रधानमंत्री जी की इन दो बातों पर मेरा ध्यान विशेष रूप से गया, ये बातें बेहद महत्वपूर्ण थी और जो उनकी आगे की राजनीतिक रणनीति की ओर संकेत भी दे रही थी। मुझे प्रधानमंत्री जी का उक्त संबोधन प्रकारांतर से केजरीवाल जी के पूर्व के संबोधन का ही विस्तार जान पड़ा। वहां केजरीवाल जी आम आदमी के जीतने की बात कर रहे थे और यहां प्रधानमंत्री जी परिवारवाद के अंत की बात कर रहे थे। उनके इस भाषण को सुनकर ऐसा लगा जैसे पंजाब के चुनाव परिणामों में मिली आम आदमी पार्टी की सफलता से भविष्य में मिलने जा रही चुनौतियों का उन्हें अहसास हो गया होगा। 

          खैर, मैंने इन चुनाव परिणामों में जीत कर आ रहे उम्मीदवारों पर गौर किया। इनमें से ज्यादातर साधारण "नाक-नक्श" वाले और सामान्य पृष्ठभूमि के प्रतीत हुए और जिनमें "इलीट" वर्ग का होने का लक्षण नहीं दिखाई दे रहा था। जब किसी राजनीतिक दल से ऐसे उम्मीदवार जीतते हैं, तो इससे उस दल की सर्वस्वीकार्यता और उसके साथ जुड़ी जनता की आकांक्षा का भी आभास होता है। भारत जैसे देश में जब किसी राजनीतिक दल में "कुलीन वर्ग" और "कुलीन चेहरों" की बहुतायत होने लगती है तो ऐसे दल का पतन भी प्रारंभ होना शुरू हो जाता है। यह "कुलीन वर्ग" और "कुलीन चेहरे" परिवारवाद का भी एक लक्षण है। प्रधानमंत्री जी ने अपने उस संबोधन में अप्रत्यक्षत: इसी के अंत होने की ओर संकेत किया था। इस संदेश में यह बात भी छिपा था कि राजनीतिक दलों के लिए अब यह महत्वपूर्ण हो चला है कि "जनप्रतिनिधित्व" जैसे गुण को किसी "परिवार की बपौती" भी न बनने दें। 

          एक बात तय है जब कानून का शासन होता है, तो आम जनता अपना त्राण सरकार की व्यवस्था में ही खोजती है। इस परिस्थिति में "राबिनहुडीय" छवि वाले नेताओं, परिवारों और माफियाओं का वर्चस्व धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है, क्योंकि आम जनता अपनी समस्याओं को लेकर किसी विधायक या अपने क्षेत्र के माफिया के पास जाना पसंद नहीं करती, बल्कि सीधे सरकार के अंगों, नीतियों से अपनी समस्याओं को सुलझाने की अपेक्षा करती है‌। इसीलिए जो राजनीतिक दल साफ-सुथरे और स्वच्छ प्रशासन देने का विश्वास जनता में जगा देते हैं, जनता उनकी ओर अवश्य आकर्षित होती है। पंजाब में आम आदमी पार्टी का सत्ता में आना और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार का पुनः पदस्थापित होना इसी बात का प्रमाण है। यहां इस ओर भी ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि सुशासन में विधायकों की भूमिका मात्र कानून बनाने तक ही सीमित रह जाती है, उनके लिए प्रशासन में हस्तक्षेप करने का अवसर नहीं होता है। अतः ऐसे किसी सुशासन देने वाली सरकार में "जनप्रतिनिधियों" की न सुनी जाने वाली जैसी शिकायतें या बातों का कोई महत्त्व नहीं होता। दरअसल विधायकों या जनप्रतिनिधियों का महत्व उन्हीं सरकारों में ज्यादा होता है जो सरकारें स्वच्छ और कानून का शासन स्थापित कर पाने में असफल रहती हैं। 

        इन विधानसभाओं के चुनाव परिणामों से भविष्य में देश की राजनीति की दिशा क्या होगी, इसका भी संकेत मिलता है। लोकतंत्र जब कानून और जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की दिशा में सफल होता दिखाई पड़े तो शायद उसी को जीवंत लोकतंत्र कहा जा सकता है। तो देश में भावी राजनीति इसी जीवंत लोकतंत्र की ओर जाते हुए दिखाई दे रहा है, और आम जनता भी इसके लिए जैसे पलक पांवड़े बिछाए हुए है। जिसमें अब जाति, धर्म और चुनाव जिताने की गणित जैसी बातें बेमानी होने जा रहीं हैं।

          लेकिन जनता की इन आकांक्षाओं के बीच सफल हुए राजनीतिक दलों को और भी सजग और सावधान रहना होगा। यह जनता है जो कि सब जानती है। क्योंकि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण और कानून के शासन का सबसे ज्यादा प्रभाव कमजोर वर्गों पर ही पड़ता है। इस व्यवस्था में ही उन्हें सम्मान और सुरक्षा का अहसास होता है । ऐसी व्यवस्था देने में जो राजनीतिक दल जितना सफल होगा सत्ता भी उसके उतने ही करीब होगी और अब जनप्रतिनिधियों की 'फार्च्यूनर' वाली राजनीति सफल नहीं होने जा रही।
                            *****

रविवार, 30 जनवरी 2022

गांधी-मुद्रा पर कंन्फ्यूजन

सुबह-सुबह मुझे गांधी जी की पुण्यतिथि की याद आ गई, जो आज है। सुबह की टहलाई भूलकर मैं गांधी जी पर फोकस हो चुका था। सोच रहा था कि युग बदल रहा है, व्यक्ति की मान्यताएं और धारणाएं बदल रही हैं। लेकिन इधर बेचारे गांधी जी को लेकर बड़ा कंन्फ्यूजन उत्पन्न हो रहा है। पहले ये महात्मा हुए फिर राष्ट्रपिता हुए और जैसे-जैसे राजनीति परवान चढ़ी तो अवतार यानि कि ऊपरवाले की श्रेणी में भी आते ग‌ए। और इस श्रेणी में आते ही इन्हें लेकर विवाद होना शुरू हो गया। यह सही बात है कि ऊपरवाले को लेकर धरती पर और खासकर अपने देश में तो बहुत ही चकल्लस है! इन्हें रिलिजन, पंथ या मजहबी खांचे में फिट करके लोग खूब मेरा-तेरा करते हैं, पता नहीं इससे इनकी भद् पिटती है या रक्षा होती है यह तो वही जानें! लेकिन तेरा-मेरा करने वाले लोग अपने-अपने रसिकों के बीच खूब यश लूटते हैं और लोकतंत्र को परवान चढ़ाते हैं। वैसे तर्क करने के अधिकार का नाम ही लोकतंत्र है और कहते हैं कि तर्क से रौशन-ख़याली बढ़ती है, जिससे व्यक्ति का आत्मिक विकास होता है। लेकिन इस्मत चुगताई ने देश में बढ़ते रौशन-ख़याली को लेकर यह भी लिखा है "जितनी-जितनी मुल्क में रौशन-ख़याली बढ़ती जा रही थी, लोग शिद्दत से फ़िर्क़ापरस्त होते जा रहे थे।" तो क्या लोकतंत्र में फ़िर्कापरस्ती बढ़ती है? शायद बढ़ती भी हो, क्योंकि लोकतंत्र में आप्तवाक्यों का खूब चलन है। जितने प्रकार के महापुरुष हुए हैं उतने ही प्रकार के नेता हो ग‌ए हैं! तथा उतने ही प्रकार के आप्तवाक्यों के खांचे बनाकर लोकतंत्र को विकेंद्रित कर देश में लोकतंत्र को समृद्ध करने का कार्यक्रम चालू है! अब भला आप्तवाक्यों पर कोई तर्क कर सकता है, नहीं न। यही तर्कातीत होना ही तो फ़िर्कापरस्ती है।


         लेकिन मैं फ़िर्कापरस्ती की ज़हमत में नहीं पड़ना चाहता। मेरा कंन्फ्यूजन इस बात पर है कि गांधी जी की कौन सी मुद्रा स्वीकार करूं कि किसी विवाद में पड़े बिना इनका अनुयायी बनकर मैं भी देश के लोकतंत्र को समृद्ध कर इसके मजे ले सकूं! वैसे स्वतंत्रता के बाद महात्मा या राष्ट्रपिता वाली गांधी-मुद्रा का अब कोई अर्थ नहीं, इस रूप में ये महोदय अपनी सेवा समाप्त कर चुके हैं और खाली-पीली इनकी ऐसी अराधना से कोई लाभ भी नहीं, उल्टे लोग फ़िरकी भी ले सकते हैं कि देखो बड़ा गांधीवादी बना फिर रहा है! इस प्रकार इसमें लाभ की बजाय हानि ही ज्यादा है। रही बात गांधी के ऊपरवाले स्वरूप की तो इसमें भी फायदा नहीं! वैसे भी अपने देश में भगवान की वैरायटियों में क्या कोई कमी है, यहां तो प्रत्येक टाइप के संकट दूर करने वाले भगवान विराजमान हैं, यदि इनसे संकट दूर हो रहा होता तो यह देश संकट-मुक्त ही होता! वैसे आधुनिक युग में नाइंटी नाइन पर्सेंट संकटों को पैसे से दूर किया जा सकता है। इसलिए पैसे को खुदा मान लेने में कोई हर्ज नहीं। लेकिन यदि किसी चीज को खुदा मान लेने से कोई साम्प्रदायिक समस्या उत्पन्न होती है तो फिर यह बात तो मानी ही जा सकती है कि पैसा खुदा भले ही न हो, लेकिन संकट दूर करने में खुदा से कम भी नहीं। इस प्रकार मैं समझता हूं कि पैसे हों तो आदमी हंड्रेड परसेंट संकट से मुक्त हो सकता है। शायद यही कारण है कि आज के युग में पैसे का ही बोलबाला है, लोग गांधी पकड़ा कर काम निकलवाने की बात खुलेआम कहते सुने जाते हैं। शायद संकटों के दृष्टिगत ही चारों ओर केवल गांधी पकड़ाई का ही कार्यक्रम चलन में है।


        अरे वाह! वाकई में गांधी के सब रूपों से बढ़कर यह गांधी-मुद्रा ही तो है जो संकट में ऊपरवाले से भी बढ़कर मदद करती है! और यही गांधी-मुद्रा है जो सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक, सर्वस्वीकार्य है और जिसकी धर्मनिरपेक्षता निर्विवादित रूप से सिद्ध है! बस मुझे समझ आ गया कि इस गांधी-मुद्रा को स्वीकार करने में कोई हीलाहवाली नहीं करनी चाहिए!! बल्कि अपने ऊपर आने वाले संकट की मात्रा और उसके प्रकार की कल्पना कर इस गांधी-मुद्रा को सम्मान के साथ खांचों में संरक्षित करते जाना चाहिए! चाहे इसके लिए घर में बेसमेंट के साथ उसकी दीवारों, आलमारियों में ऐसे गोपनीय खांचे ही क्यों न बनवाने पड़े!! भला इससे बढ़कर गांधी जी के सम्मान और संकट से अपनी रक्षा करने का कोई दूसरा उपाय हो सकता है, नहीं न? 


      तो, जब अकर्मण्य और चुक चुके लोग हाल ही में एक व्यापारी के घर से बरामद बेशुमार गांधी-मुद्रा का उदाहरण देकर और उसके जेल की हवा खाने की बात बताकर कहें कि गांधी का ऐसा सम्मान करने में भी आफत है, तो उसकी बात हवा में उड़ाकर उसपर कान न धरा जाए! क्योंकि उसकी बातें राजनीति से प्रेरित हो सकती है, ऐसा राजनीतिपरस्त व्यक्ति आप और देश के लोकतंत्र, दोनों को हानि पहुंचाना चाहता है।


          इस निष्कर्ष की प्राप्ति के साथ आज की सुबह मुझे बेहद मानसिक शांति की अनुभूति हो रही है। बाहर हॉकर के द्वारा अखबार फेंके जाने की आवाज आई है। अखबार उठाने चल रहा हूं। #चलते_चलते मुझे गांधी के मान पर एक बात याद आई। गांधी के आग्रह पर एक बार गोपाल कृष्ण गोखले दक्षिण अफ्रीका ग‌ए। वहां से लौटते समय उन्होंने गांधी जी को समझाया था कि 'देखो, हम सब बूढ़े हो रहे हैं। हम लोगों का क्या ठिकाना, कब पके आम की तरह झर जाएं। तुम्हारी अपनी मातृभूमि के प्रति भी उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी यहाँ बसे भारतीय भाइयों के प्रति‌। देशभक्ति का किसी भी दूसरी भक्ति से कोई मुकाबला नहीं।... यह एक ऐसी लकीर है जो एक बार खिंच गई तो मृत्यु भी हार जाती है पर वह नहीं मिटती।' इसके बाद गांधी से बोले, 'मैं तुम्हारा इंतज़ार करुंगा। देश को तुम्हें सौंपे बिना नहीं मरुंगा।' और गांधी जी भारत लौटे भी थे। बाकी इतिहास आपको भी पता है, इससे सिद्ध होता है कि गांधी जी इस देश की गुलामी का संकट दूर करने के काम आए थे। इससे यह भी सिद्ध है कि गांधी जी संकट के समय काम आते हैं। 

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

स्वप्निल इंटरव्यू

इंटरव्यूकर्ता - जी, आप लेखक हो?

मैं - जी नहीं, मैं लेखक नहीं हूं।

इंटरव्यूकर्ता - लेकिन आप लिखते तो हो!

मैं - हां लिखता तो हूं।

इंटरव्यूकर्ता - तो आप कैसे लेखक नहीं हुए?

मैं - हां मैं वैसे ही लेखक नहीं हुआ।

इंटरव्यूकर्ता - वैसे ही कैसे?

मैं - ऐसे कि, वैसे मैं लिखने के लिए नहीं लिखता।

इंटरव्यूकर्ता - ऐसे कैसे हो सकता है? साहित्य तो लिखने के लिए लिखने से ही बनता है! 

मैं - तो मैं साहित्य कहां रच रहा हूं!  

इंटरव्यूकर्ता - तो क्या रच रहे हैं आप?

मैं - अरे भाई मैं अपना सुख रच रहा हूँ

इंटरव्यूकर्ता - वह कैसे?

मैं - ऐसे कि लिखने से मुझे सुखनुभूति होती है।

इंटरव्यूकर्ता - ओह! तो आप स्वान्त:सुखाय टाइप के रचनाकार हैं?

मैं - जी आपने सही पकड़ा!

इंटरव्यूकर्ता - फिर तो आप साहित्य के साथ अन्याय कर रहे हैं। ऐसे कि आप केवल अपने लिए लिखते हो और पाठक को उपेक्षित करते हो जबकि लेखक को पाठक की दरकार होती है, इस पर आप क्या कहेंगे?

मैं - वैसे आज पाठक की जरूरत ही कहां है, फेसबुक पर नहीं हैं क्या आप? क्या आप मानते हैं कि जो लिखने के लिए लिख रहे हैं, वे पाठक को दृष्टि में रखकर लिख रहे हैं? बल्कि वे इसलिए लिख रहे हैं कि वे बता सकें कि उन्होंने यह लिखा है या वह लिखा है या फिर वे लेखक हैं, यह बताने के लिए लिखते हैं।

इंटरव्यूकर्ता - आप उल्टा हमसे प्रश्न क्यों कर रहे हैं, इंटरव्यूकर्ता मैं हूं कि आप? 

मैं - आप ही हैं, लेकिन क्या आप गारंटी देते हैं कि लिखने के लिए लिखने वाले के पाठक होंगे ही?

इंटरव्यूकर्ता - क्यों नहीं होंगे, जरूर होंगे, अरे जब लिखा जा रहा है तो पढ़ा भी जा रहा होगा.. इसमें गारंटी देने की कौन सी बात है।

मैं - देखिए इंटरव्यूकर्ता महोदय! इसमें होगा..होंगे की बात नहीं है, फुल गारंटी देने की बात है! आप देते हो तो कहो हाँ और नहीं तो कहो नहीं!!

इंटरव्यूकर्ता - देखिए, गारंटी तो किसी बात की नहीं दी जा सकती।

मैं - लेकिन मैं दे सकता हूं! और वह भी डंके की चोट पर!!

इंटरव्यूकर्ता - क्या दे सकते हैं आप???

मैं - यही कि लिखने के लिए लिखने वाले का पाठक हो या न हो, लेकिन स्वान्त:सुखाय के लिए लिखने वाले का पाठक जरूर होता है!!

इंटरव्यूकर्ता - वाह महोदय! अपने मुंह मियां मिट्ठू मत बनिए! और यदि ऐसा है तो वह कैसे?

मैं - अरे महोदय, यह तो स्वत:सिद्ध है कि जब मैं स्वान्त:सुखाय के लिए लिख रहा हूं तो जरूर इस सुख की प्राप्ति के लिए मैं अपनी रचना छपवाता हूं, इस छपे को देखता हूं और इसे पढ़ता भी हूं! इसीलिए पहले ही मैंने कहा दिया है कि मैं अपने लिए सुख रचता हूं, साहित्य नहीं!!

इंटरव्यूकर्ता - अच्छा..इसका तात्पर्य यह है कि आप महान साहित्यकार बनने की दौड़ में शामिल नहीं हैं?

मैं - देखिए! यह दौड़-औड़ की बात मैं नहीं जानता, यह आपका मत हो सकता है मेरा नहीं। कौन महान बनेगा कौन नहीं यह भी भविष्य के गर्त में है।

इंटरव्यूकर्ता - आपके कहने का आशय है कि आप भविष्य में महानता की श्रेणी में जा सकते हैं?

मैं - अरे भाई क्यों नहीं! यदि पत्नी जाने दे!

इंटरव्यूकर्ता - इसमें बीच में पत्नी कहां से आ गई?

मैं - जैसे हुलसी और विद्योतमा आई थी। पत्नियां किसी को भी तुलसी या कालिदास बना सकती हैं।

इंटरव्यूकर्ता - अपने लिए यह संभावना आप कहां तक पाते हो?

मैं - देखिए, स्वान्त:सुखाय टाइप के लेखन में 'तुलसीत्व' के प्राप्ति की संभावना छिपी होती है। इस टाइप के लेखन से पत्नी भले चिढ़ती हो लेकिन ऐसे लेखन में महान बनने का भविष्य सुरक्षित है। इस संभावना को बरकरार रखने के लिए ही इस टाइप का मेरा लेखन है। 

इंटरव्यूकर्ता - ऐसा लगता है पत्नी की बात करके अपने निजी जीवन पर प्रश्न करने की छूट प्रदान की है, तो क्या मैं आप से पूँछ सकता हूं कि पत्नी से कोई आपका अनबन चल रहा है?

मैं - देखिए! हर पत्नी वाले का पत्नी से अनबन चलता रहता है, क्योंकि बिना उसकी अनुमति के आप एक पत्ता भी नहीं खड़का सकते! अब यही देखिए, पत्नी की उपस्थिति में मैं अपना यह स्वान्त:सुखाय वाला लेखन नहीं कर सकता, उसे देखते ही मैं चुपचाप मोबाइल को परे खिसका देता हूं!     

इंटरव्यूकर्ता - अच्छा अन्त में एक प्रश्न और वह यह कि साहित्य में पुरस्कार के बारे में आपकी अवधारणा क्या है?

मैं - देखिए स्वान्त:सुखाय के लेखन में पुरस्कार की अवधारणा फिट नहीं होती.. मैं यहां एक बार फिर कहुंगा कि इसके पीछे 'तुलसीत्व' की अवधारणा काम करती है। लेकिन फिर भी मैं आपको विश्वास दिलाता हूं पुरस्कार से सुखानुभूति की आवश्यकता पड़ने पर मंडली में शामिल होने से गुरेज नहीं! आज के जमाने में कहां नहीं सेंधमारी की जा सकती। फिर आजकल तो बड़े-बड़ों को फेसबुक पर गप्पें मारते इठलाते और इसपर मिलते आह या वाह पर मदमाते देखता हूं, यह किसी पुरस्कार से क्या कम है!! तो, फिलहाल मेरा इरादा अभी फेसबुकिया होने पर ही अधिक है।

इंटरव्यूकर्ता - (दर्शकों से) तो जैसा कि अभी आपने देखा और सुना, हम एक ऐसी शख्सियत से रुबरु हुए जो लिखने के लिए नहीं लिखता और न यह बताने के लिए ही लिखता है कि वह लेखक हैं, इसलिए वह अपने को पुरस्कारों की दौड़ में भी नहीं पाता। बल्कि वह इस बात की गारंटी देता है कि उसके लिखे का कोई दूसरा पाठक हो या न हो, लेकिन कम से कम वह स्वयं अपने लिखे का पाठक तो है ही.. जबकि आजकल किसी लेखन का पाठक खोजना कितना मुश्किल भरा काम है!! हम कह सकते हैं, इस शख्सियत में लेखन और पाठन दोनों तत्व मौजूद हैं, कोई विरला ही इनका समकालीन होगा!! इसलिए हम इनकी पत्नी से अपील करते हैं कि ऐसे महान संभावनाओं वाले लेखन को महानता की ओर ले जाने में, उनके साथ यदि हुलसी का नहीं तो कम से कम विद्योतमा वाला व्यवहार जरूर करें और मोबाइल पर लेखन करते समय इन पर व्यंग्योक्तियों का प्रहार न करें, क्योंकि इन महाशय में लेखन और पाठन की अद्भुत संगति है।

     इस इंटरव्यू के समाप्त होते ही नींद टूटी। मैं समझ गया कि स्वप्न ने हमें मूर्ख बनाया है। इधर पंखा भी तेजी से गतिमान था, इससे हमें ठंड लगने लगी थी। समय देखने के लिए मोबाइल टटोला तो वह तकिए के नीचे मिला। सुबह हो चुकी थी, फिर भी एक बार और चद्दर तान लिया था।

सिस्टमपंथी

       देश-भक्त ही देश की चिंता कर सकते हैं। मेरे इस कथन पर मुझे दक्षिणपंथी घोषित करते हुए उन्होंने कहा, "देशभक्त हुए बिना भी देशहित की चिंता की जा सकती है।" और फिर यह कहते हुए, "अरे हां भा‌ई! ये तंत्र-मंत्र शक्तिधारी ही देश-भक्त हैं...बाकी हमां-सुमां तो रियाया हैं..हम डाइरेक्ट देश के काम थोड़े ही न आ सकते हैं, देशभक्तों को अपनी पीठ पर ढोना ही हमारी देशभक्ति है! एक बात कहूं..! इस तंत्र-मंत्र ने देश का बेड़ा ग़र्क कर दिया है..दिखाते रहिए अपनी देशभक्ति.." कमरे से बाहर चले ग‌ए। मुझे अपनी देशभक्ति पर थोड़ी शर्मिंदगी जैसी फीलिंग आई। सोचा, आखिर कलाकार भी तो अपनी भावनानुरूप ही मूरत गढ़ता है, तो देशभक्त हुए बिना देश की मूरत कैसे गढ़ी जा सकती है? फिर तो देशभक्त होना भी एक कलाकारी ही है, चूंकि सरकारें देशभक्त होती हैं इसलिए छेनी-हथौड़ा से नहीं, अपने तंत्र से देश को गढ़वाती हैं। मुझे क्षोभ हुआ कि राष्ट्र की मूरत गढ़ने वाले इसी कलाकार-तंत्र को वे महाशय गाली देकर चले ग‌ए थे।

       उल्लेखनीय है कि मेरे ग्रेजुएशन के दिनों में राजनीतिक विषय के रूप में देशभक्ति की ख्याति नहीं थी। इसका ढिंढोरा भी नहीं पीटा जाता था और न ही इसमें कोई प्रतियोगिता थी। इसे मूर्खता का पर्याय भी नहीं माना जाता था। हाँ, खेती-किसानी की इज्जत न तब थी और न अब है। क्योंकि देशभक्तों की वैरायटी में मेहनतकशों की गणना न पहले थी और न आज है‌। लेकिन किसान देशद्रोही भी नहीं हुआ करते थे‌। इधर देश के स्टेनलेस स्टील फ्रेम जैसे तंत्र में जुड़ने वाले सफल अभ्यर्थियों के ऐसे वक्तव्यों से कि, इस फ्रेम से जुड़ने पर देश की अच्छे से सेवा करने का खूब अवसर मिलता है, मैने निष्कर्ष निकाला कि फावड़ा-कुदाल या खेती-किसानी में जिंदगी भर पसीना बहाने की बजाय देश की प्राॅपर तरीके से सेवा करने के लिए सरकारी-तंत्र के फ्रेम वाला प्लेटफार्म चाहिए। स्पष्ट था कि किसी ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे के वश में देशसेवा जैसा पवित्र कार्य नहीं, इसके लिए बड़ा बनना होता है। और बड़े लोग ही देशहित के पवित्रनुमा कार्यों को सिस्टमेटिक ढ़ग से सुगम और फलवान बनाकर निपटाते हैैं। फ़िलहाल मुझे देशभक्ति, देशसेवा और सिस्टम के अन्तर्सम्बन्धों द्वारा बड़ा बनने की प्रक्रिया समझ में आ गई थी। अंततः मैंने कम्पटीशन-वम्पटीशन फाइट करना शुरू किया और आयोग ने मुझे भी स्टील फ्रेम का एक छोटा पुर्जा बनाकार बड़ा बनाने वाले कामों को अमलीजामा पहनाने का अवसर प्रदान किया।

      लेकिन उन दिनों की अपनी भावुकता पर मुझे तरस आती है। संयोग से उस वक्त देश में सूखा भी पड़ा था। इथियोपिया से लेकर भारत तक सूखे से लोग बेहाल थे। शायद वह तस्वीर, जिसमें भूख से हड्डी की ठठरी बनी एक जीवित अफ्रीकी बच्ची को एक गिद्ध ताक रहा था, उन्हीं दिनों की है। आज भी जब-तब वायरल होती इस तस्वीर से वह गिद्ध-दृष्टि याद आती है। उस अकाल-काल में किसानों की पीड़ा देख मेरी भावनाएं द्रवित होकर बूंद की तरह सहसा उछल पड़ी थी। यह सच है, जब जोर की भावुकता आती है तो आदमी कविता करने की ओर भागता है और मैं भी उसी ओर भागा था। मैंने अपनी कविता में बादलों से बरसने का आह्वान किया, हे बादल आओ बरसो/ कुछ तो दे जाओ/ खेत हमारे और हम प्यासे हैं/ हलक सूख गया है/ यह पीड़ा है प्यासे इस तन-मन की। लेकिन मुझे यह सोचकर हँसी आती है, यदि मेरी कविता की भावुकता में बहक कर बादल बरस पड़ते तो सूखे की आपदा का क्या होता? जबकि आपदा में मिलने वाले बजटीय डोजों से उत्पन्न देशभक्ति में राहत के काम शुरू होते हैं, जिसके परिणाम देश ही नहीं विदेश में भी पहुंचते हैं। अखबार में छपे इस सर्वे कि लाॅकडाउन की अवधि में स्विटजरलैंड के खातों में भारतीयों ने खूब धन जमा किए जो दुनियां में सर्वश्रेष्ठ है, से इसकी पुष्टि होती है। इसीलिए मैं मानता हूँ कि अकाल-काल में उपजी मेरी वह कवित्व-भावना देशप्रेम नहीं, देशद्रोह वाली थी। जो सूखा खत्म कराके देशभक्तों को बूस्टर डोज जैसे उनके प्राप्तव्य से वंचित कराने जैसा था। खैर अब मुझे भावुकता पसंद नहीं, क्योंकि यह आदमी को अंधा बना देती है, इसमें पड़ा व्यक्ति नफा-नुकसान की नहीं सोच पाता।
 
        वैसे तो सिस्टममय सब जग जाना। लेकिन सरकारी सिस्टम की बात ही निराली है। इसके बगैर देश का बेड़ा ग़र्क हो जाए! इसमें आकर 'मदर इंडिया' का भगवान और शैतान के बीच वाला इंसान, आवश्यकतानुसार वह जो है वह न होने की और जो नहीं है वह हो जाने की अपनी क्षमता से सिस्टम के गुड-बुक में नाम दर्ज कराकर दोनों से भी उच्च कोटि का हो जाता है। जो भी हो, देश के काम आने वाली ऐसी तंत्रात्मक शख्सियतें दक्षिणपंथी ही मानी जाएंगी। यहां महत्वपूर्ण है, जो तंत्रात्मक नहीं वह देशभक्त भी नहीं, चाहे वह दक्षिणपंथी ही क्यों न हो! लेकिन लोकप्रियता की श्रेणी हांसिल कर चुके कुछ लोगों का अंदाज थोड़ा अनोखा है। जैसे कि एक लोकप्रिय महानुभाव ने तंत्र के हम जैसे कल-पुर्जों की एक गोपनीय बैठक में बहुत ही मीठी वाणी में सजेस्ट किया था, "वैसे तो आप लोग अपने हिसाब से काम करो, लेकिन जो करने के लिए हम कहते हैं उसे न मानने वाले से हम दूसरे तरीके से निपटते हैं।" शायद यह एक माफिया किस्म वाली देशभक्ति थी। जो घर बैठे अपने सिस्टम से लोक और तंत्र दोनों का काम अकेले निपटा सकती थी। फ़िलहाल अभी तक संवैधानिक दर्जा प्राप्त न होने से इसे वैधता हांसिल नहीं है, इसके लिए सिस्टम को निजी टाइप से अन्डरवर्ल्डात्मक होने की बजाय सरकारी टाइप का तंत्रात्मक होना चाहिए। इसके रहस्यमयी वातावरण को समझना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है, अन्यथा तंत्र में होते हुए भी वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति हो सकती है। 

        वैसे सिस्टम अदृश्य ही होता है, क्योंकि जो दिखाई पड़े वह सिस्टम ही क्या!! इसका कोई लेखा-जोखा या प्रमाण भी नहीं, बल्कि तंत्र में भाव और अभाव रूप में विद्यमान होकर उसे नियंत्रित और संचालित करता है जैसे ईश्वर सृष्टि को! इसकी अनुभूति सृष्टि में ईश्वर के जैसी इसमें डूबने पर ही होता है। कहते हैं ईश्वर ने सृष्टि को रचा और उसे विकसित होने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया है। लेकिन सिस्टमीय-तंत्र, दांत वाले छोटे-बड़े चक्कों के समूह जैसा है जो अपनी मर्जी से नहीं, आपस में फंसकर एक दूसरे को नचाता है। इसके पीछे मंत्राध्यक्ष का मंत्र-बल होता है। इसे ग्रहण कर तंत्राधीश अपने दंतबल से इस चक्कीय सिस्टम को नचाता है। लेकिन देशभक्ति के कृत्य का श्रेय मंत्राध्यक्ष को जाता है। उसका मंत्र-बल उसे ऋषि-मुनि की श्रेणी में खड़ा कर देता है। इसीलिए भारत को ऋषियों-मुनियों का देश कहा जाता है, इनके सहारे ही इस देश को उसका प्राप्तव्य प्राप्त होता आया है।

         खैर, शुकर हैं भारत माता के नक्शे और स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का! जिसके निरंतर अनुश्रवण से मेरे मन में देशभक्ति की तरंगे उठी और मुझे भी आनंदित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। क्योंकि देश सेवा वाले भाव के साथ बजटीय डोज की मिक्सिंग कर सिस्टमीय-तंत्र में जबर्दस्त पेराई होती है, इससे निकलते रस से सराबोर हुआ मन देश-सेवा के कृत्य से सुखी होकर आनंदित होता है। इस प्रकार तंत्राधीश के निर्देशन में तंत्रीय देशभक्त भी देश की मूरत गढ़ते-गढ़ते अपना प्राप्तव्य प्राप्त करता है। यही देशसेवा का सिस्टमेटिक ढंग है, इसमें विवेक, भावना और बुद्धि का कोई स्थान नहीं, बस घूमने के लिए दाँत से दाँत सटे हुए होने चाहिए। खैर, यहां आकर क्या दक्षिणपंथी और क्या वामपंथी! और क्या सिस्टमपंथी!! सबकी गति एक ही है, बाकी जनता को भरमाने की चीजें हैं।

माफिया और गुर्गे

          लिखने की प्रेरणा लेखक होने के पेशे से नहीं, लहू में आए उबाल से मिलती है। इसलिए लेखक डरता नहीं, बल्कि पेशा डराता है! पेशेवर बनकर ही इस डर से मुक्ति पाई जा सकती है। फिलहाल अपने लहू के उबाल से डरने वाले पेशेवर नहीं बन पाते। दो शूटर किसी बड़े सफेदपोश माफिया के लिए काम करते थे। हालांकि उन्हें अपने उस सुप्रीम आका का कभी दीदार नहीं हुआ था लेकिन वाया प्राप्त उसके निर्देशों के अनुसार वे अपने काम को अंजाम देते। एक बार दोनों को किसी बड़े व्यापारी से गुंडा टैक्स वसूलने का काम सौंपा गया। शायद उस व्यापारी ने तयशुदा खोखे की रकम पहुंचाने में देरी की थी। तो, दोनों गुर्गे‌ उसी की वसूली करने उसके घर पहुंचे। 
       इधर व्यापार में घाटे के साथ व्यापारी को अपनी बेटियों के विवाह की चिंता थी। जब वह पेटी लेकर जान छोड़ने के लिए गुर्गे से गिड़गिड़ा रहा था, तो एक गुर्गे की निगाह दरवाजे की ओट में खड़ी उसकी बेटियों पर पड़ी। डर से सहमे उनके भयाक्रांत चेहरे को देख उसे अपनी बेटियों का ध्यान आ गया। इधर उसका दूसरा साथी खोखा न देने पर व्यापारी को मौत की धमकी देता सुनाई पड़ा। स्थितियों का भान होते ही बेटियों के चेहरे में खोए गुर्गे की आंखों में आँसू छलकने को आ ग‌ए थे। उसकी ऐसी बदली हुई भाव-भंगिमा को देख जब उसके दूसरे साथी ने कठोर आवाज में कहा, ये क्या हो रहा है, तो वह गुर्गा सकपका गया और अपने डर से डर गया। वह दूसरा साथी कुछ समझ पाता इसके पहले ही उसकी कनपटी पर उसने गोली चला दी। 
           बड़े माफिया का अपने गुर्गों को निर्देश होता है कि यदि कोई गुर्गा टारगेट के प्रति नरमदिल दिखाए तो तत्काल दूसरा साथी उसे शूट कर दे। दरअसल व्यापारी की बेटियों को देखकर गुर्गे के हृदय में संवेदनशीलता जागी और वह किसी भी दशा में व्यापारी की हत्या नहीं होने देना चाहता था। ऐसी दशा में उसका दूसरा साथी उसे ही शूट कर देता, इसलिए बिना अवसर गंवाए उसने अपने दूसरे साथी को गोली मार दिया और पेशे से मुंह मोड़ पेशेवर बनने से बच गया। खैर यह तो हुई कहानी की बात।
         अमृता प्रीतम 'रसीदी टिकट' में एक जगह लिखती हैं कि "मुझे एक प्रकाशक की ओर से एक लंबा काव्य लिखने के लिए कहा गया था, पर मैंने मना कर दिया था। लिखती, तो वह काव्य मेरे लहू के उबाल में से उठा हुआ न होता।" खैर, मैं यह नहीं कहता कि प्रकाशक माफिया है और लेखक उसका गुर्गा। लेकिन यहां लेखिका जैसे पेशेवर होने से बचना चहती है। और चाहें भी क्यों न, क्योंकि संवेदनाओं में पेशेवराना अंदाज नहीं होता। वैसे भी पैसा और प्रसिद्धि की आकांक्षा लहू के उबाल को ठंडा कर देता है।

रिश्तों का डिजिटलाइजेशन

        नया साल आ गया। आधी रात से लेकर लगभग शाम तक शुभकामनाओं का रेलमपेल लगा रहा। वैसे बचपन में तो नहीं, लेकिन जब कालेज लगभग छोड़ चुका था, तब पता चला था कि न‌ए साल में ग्रीटिंग-कार्ड दिया जाता है। लेकिन वह जमाना भी कब का बीत चुका है। भ‌ई, एक बात यह भी है अब कोई जमाना ज्यादा समय तक ठहरता ही नहीं! जमाना आया नहीं कि गया। बल्कि मैं तो कहूं जमाना भी अब सरपट भाग रहा है जैसे कि आदमी भागता है! आखिर आदमी से ही तो जमाना है। पल-पल छिन-छिन बदलते आदमी का कोई ठिकाना नहीं तो जमाना ही अपना ठिकाना क्यों बनाए? इसीलिए जमाना भी आया नहीं कि सरपट भागते हुए 'क्या जमाना था' में बदल जाता है, खैर।

          तो ग्रीटिंग कार्ड सजाने-सजने का जमाना चला गया और आया मैसेज का! हां मैसेज का!! न रंग लगे न फिटकरी और रंग चोखा। वैसे मैं नहीं जानता कि फिटकरी का चोखे रंग के साथ क्या ताल्लुक है। लेकिन मुहावरा है सो इसे लिखने में यूज कर लिया। मतलब यही कि बढ़िया से बढ़िया मैसेज रेडीमेड मिल जाता है, इसके लिए बेचारे हृदय को परिश्रम करने की अब जरूरत नहीं होती और वैसे भी आजकल के लोगों का हृदय भी कमजोर होता है, इससे जितना कम से कम काम लिया जाए उतना ही स्वास्थ्यवर्धक है। जबकि पहले ग्रीटिंग-कार्डों की दुकान पर जाना उनमें से बढ़िया ग्रीटिंग छांटना और फिर संबंधित तक इसे पहुंचाने में पर्याप्त जहमत उठानी होती थी। आज प्रदूषण के जमाने में इतनी तिकड़म भी स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता। खैर फिर बेहतरीन आप्सन के रुप में आया मोबाईल मैसेज का जमाना। इसमें मैसेज लिखने के लिए दिल और दिमाग को एक बार यूज कर उसे बहुतेरे स्वजनों को एक साथ फारवर्ड कर देने की सुविधा भी मिली। तब ये मैसेज भी किसी को बासी नहीं लगता था और लगे क्यूं? क्योंकि इसमें 'फारवर्डेड' का पता नहीं चलता था। मैसेज पाने वाला बेचारा मात्र इसे अपने लिए भेजा हुआ मानकर प्रेषक के वर्जिनल प्रेम से अभिभूत हो जाया करता था।

           लेकिन वह क्या जमाना था! और आज व्हाट्सएप का जमाना आ गया है। अब तो रेडीमेड बने-बनाए संदेश के ऐप भी बन चुके हैं, बस थोड़ी मेहनत कीजिए एक से एक ब‌ढ़िया संदेश या कहें बात, नहीं तो विचार ही कह लीजिए, मिल जाएंगे और व्हाट्स ऐप पर कापी पेस्ट कर अपने मित्रों-सुहृदयों को भेजते जाइए! मतलब शुभकामनाएं और मंगलकामनाएं लिखने के झंझट से भी मुक्ति! कहने का आशय यह है कि आज के महान तकनीकी दौर में डिजिटलाइज्ड मंगलकामनाएं और शुभकामनाएं उपलब्ध हैं जो सुहृदों के हृदय को सुहृदय बनाने के काम आती हैं। गजब का यह संबंधों के डिजिटलाइजेशन का जमाना है। लेकिन इसमें एक ख़तरा बस यही है कि थोड़ी सावधानी की जरूरत होती है क्योंकि 'फारवर्डेड' से आपका कोई अति संवेदनशील साहित्यिक टाइप का इष्ट-मित्र आपके 'फारवर्डेड' संदेश को "प्रकृति के यौवन का श्रृंगार/ करेंगे कभी न बासी फूल" जैसे साहित्यिक भाव से ओवरलुक न कर दे। आखिर ताज़गी तो सबको चाहिए ही होती है।

         लेकिन आजकल के डिजिटलाइजेशन युग में संदेशों के आदान-प्रदान में परफेक्ट टाइमिंग का ख़्याल रखना चाहिए। मतलब किसी के डिजिटलाइज्ड सुख-दुख में तत्काल शरीक हो लेना चाहिए। ऐसा इसलिए कि एक बार मेरी नज़र एक फेसबुकीय फ्रेंड के पोस्ट पर पड़ी जिसमें किसी अतिप्रिय स्वजन के शोक में उनका इज़हार-ए-दुख कुछ ऐसा था कि उनके लिए यह पूरा संसार निरर्थक और बेमानी हो चला था। उनके दुख की इस घड़ी में साथ देने के लिए मैंने दुख में दुखी होने वाले एक सांत्वनापरक संदेश को गूगल से खोजकर कापी किया और उन दुःखी हृदय आत्मा के वाल पर पेस्ट करने ही जा रहा था कि मेरी दृष्टि उनके एक लेटेस्ट पोस्ट पर पड़ी, जिसमें वे डांस टाइप की मुद्रा में किसी पार्टी में मिले 'इंज्वॉय' का बखान करते हुए गौरवान्वित फील कर रहे थे। अब बताइए! मेरा हृदय कौन सी मुद्रा धारण करता? उन्हें सांत्वना देता या कि उनकी डांस मुद्रा के साथ मैं भी गौरवान्वित फील करता? कुछ डिसाइड न कर पाने की स्थिति में चुपचाप उनकी वाल से खिसक लेने में ही मैंने भलाई समझा। ठीक यही स्थिति डिजिटल प्लेटफार्म पर खुशी जाहिर करने वाले भी पैदा कर सकते है।  

           खैर, आजकल के क्षणजीवी इंसान के मनोभाव भी इस डिजिटल जमाने के साथ तालमेल बैठाने के लिए तैयार है। विकासवाद की सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट की थियरी एकदम फिट बैठ रही है, क्योंकि इस ज़माने में युगानुरूप आदमी का हृदय आटोमेटिकली डिजिटलाइज्ड हो चुका है! इसीलिए उसके मनोभाव भी  डिजिटली ढंग से प्रवाहित होते हुए कट-पेस्ट की सुविधा का लाभ ले रहा है।  

         लेकिन मोबाइलीकरण के इस ज़माने में आदमी को तकनीक और वह भी कम्प्यूटर का ज्ञान होना बेहद जरूरी है। अन्यथा मानवीय संबंधों के निर्वहन में वह फिसड्डी साबित होगा। फिर भी इस ज्ञान का प्रयोग सावधानी से करना चाहिए। नहीं तो टच-बोर्ड आपके संबंधों को दूसरा आयाम भी दे सकता है। क्या है कि मनोभावों के इमोजीकरण के दौर में एकबार एक सुहृद मित्र ने मेरे उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ मुझे एक बेहद खूबसूरत संदेश भेजा। उसे देखते ही मैं आह्लादित हो गया और आव देखा न ताव विनीत भाव से उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए उतावला हो उठा। इस उतावलेपन में धोखे से टचस्क्रीन पर अंगुली एक बेहद गुस्से से लाल चेहरे वाली इमोजी पर टच कर गया और वह इमोजी सेंट भी हो गई। उस समय बड़ी असहज स्थिति का सामना करना पड़ा था मुझे! तबसे उनसे अपने लिए खूबसूरत मैसेज पाने के लिए तरस गया हूँ। दूसरी बार ऐसी ही एक और गलती मैंने एक अन्य मित्र के साथ किया। उन बेचारे ने अपनी सफलता का बखान करते हुए एक संदेश डाला। उनके साथ अपने संबंधों को उच्च आयाम पर पहुंचाने के लिए उनकी इस सफलता पर उन्हें तत्काल बधाई संदेश भेजने की आवश्यकता को महसूसा, लेकिन जल्दबाजी में मोबाइल के टच-स्क्रीन को ऐसा टच किया कि उनके खुशी के इस अवसर पर जार-जार आंसू बहाने वाला इमोजी सेंट कर दिया। मुझे अपनी इस गलती का अहसास होता उसके पहले ही मेरी वह दुखी होने वाली इमोजी उनके द्वारा 'सीन' भी हो चुकी थी! मेरी एक चुटकी बेवकूफी से मित्रता दांव पर लग गई।  

           वैसे हर ज़माने के ख़तरे भी अपनी तरह के ही हैं। लेकिन इन खतरों के पार हमारे डिजिटलाइज्ड सोशल मीडियायी संबंध लाइव रहने चाहिए। हां इतना ज़रूर है कि नव वर्ष पर शुभकामना संदेशों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर इन्हें वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे कि साहित्यकार और उसमें भी व्यंग्यकार का संदेश, श्रेष्ठ-जनों या विशिष्ट-जनों का संदेश, साहब का मातहत के लिए या मातहत का साहब के लिए, मतलब निकालने वाला, दोस्ती जताने वाला, औपचारिक-अनौपचारिक आदि-आदि टाइप से! 

         इस लेख को पाठक-गण कृपया दिल पर न लें बल्कि संदेशों का आदान-प्रदान करते रहें और इनका मज़ा लें। यह दुनिया है जमाना तो बदलता ही रहेगा।