मंगलवार, 15 मार्च 2022

अब 'फार्च्यूनर' की नहीं, आम आदमी की राजनीति

              10 मार्च की तारीख थी, पांच राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव परिणाम आ रहे थे। मैं गौर से इन परिणामों का अध्ययन कर रहा था। हालांकि ये परिणाम कुछ-कुछ वैसे ही थे, जैसा कि मैंने अपने कुछ साथियों से हुई निजी बातचीत में अनुमान लगाया था और ये मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं थे। लेकिन इन परिणामों में छिपी हुई कुछ बातें ऐसी थी जो बरबस मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। लगभग उन्हीं बातों को अरविंद केजरीवाल जी ने उसी दिन मतदाताओं के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने संबोधन में कहा था। मैंने उनका पूरा भाषण ध्यान से सुना। उन्होंने उस संबोधन में एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर रेखांकित किया, जैसे कि पंजाब में जिन बड़े दिग्गजों की हार हुई है, उन्हें हराने वाले एकदम से आम आदमी थे। इसके बाद शाम को मैंने प्रधानमंत्री जी का दिल्ली के पार्टी कार्यालय में हुए संबोधन को सुना।

            अपने इस संबोधन में प्रधानमंत्री जी ने दो महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इंगित किया। प्रथमत: उन्होंने भ्रष्टाचार और उसकी जांचों को लेकर बहुत कुछ कहा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांचों को राजनीतिक रंग देने वाले या इसे भेदभावपूर्ण बताने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों पर तंज कसा। वहीं दूसरी ओर उन्होंने देश से परिवारवादी राजनीति का अंत होने जा रहा है, की बात कही।  प्रधानमंत्री जी की इन दो बातों पर मेरा ध्यान विशेष रूप से गया, ये बातें बेहद महत्वपूर्ण थी और जो उनकी आगे की राजनीतिक रणनीति की ओर संकेत भी दे रही थी। मुझे प्रधानमंत्री जी का उक्त संबोधन प्रकारांतर से केजरीवाल जी के पूर्व के संबोधन का ही विस्तार जान पड़ा। वहां केजरीवाल जी आम आदमी के जीतने की बात कर रहे थे और यहां प्रधानमंत्री जी परिवारवाद के अंत की बात कर रहे थे। उनके इस भाषण को सुनकर ऐसा लगा जैसे पंजाब के चुनाव परिणामों में मिली आम आदमी पार्टी की सफलता से भविष्य में मिलने जा रही चुनौतियों का उन्हें अहसास हो गया होगा। 

          खैर, मैंने इन चुनाव परिणामों में जीत कर आ रहे उम्मीदवारों पर गौर किया। इनमें से ज्यादातर साधारण "नाक-नक्श" वाले और सामान्य पृष्ठभूमि के प्रतीत हुए और जिनमें "इलीट" वर्ग का होने का लक्षण नहीं दिखाई दे रहा था। जब किसी राजनीतिक दल से ऐसे उम्मीदवार जीतते हैं, तो इससे उस दल की सर्वस्वीकार्यता और उसके साथ जुड़ी जनता की आकांक्षा का भी आभास होता है। भारत जैसे देश में जब किसी राजनीतिक दल में "कुलीन वर्ग" और "कुलीन चेहरों" की बहुतायत होने लगती है तो ऐसे दल का पतन भी प्रारंभ होना शुरू हो जाता है। यह "कुलीन वर्ग" और "कुलीन चेहरे" परिवारवाद का भी एक लक्षण है। प्रधानमंत्री जी ने अपने उस संबोधन में अप्रत्यक्षत: इसी के अंत होने की ओर संकेत किया था। इस संदेश में यह बात भी छिपा था कि राजनीतिक दलों के लिए अब यह महत्वपूर्ण हो चला है कि "जनप्रतिनिधित्व" जैसे गुण को किसी "परिवार की बपौती" भी न बनने दें। 

          एक बात तय है जब कानून का शासन होता है, तो आम जनता अपना त्राण सरकार की व्यवस्था में ही खोजती है। इस परिस्थिति में "राबिनहुडीय" छवि वाले नेताओं, परिवारों और माफियाओं का वर्चस्व धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है, क्योंकि आम जनता अपनी समस्याओं को लेकर किसी विधायक या अपने क्षेत्र के माफिया के पास जाना पसंद नहीं करती, बल्कि सीधे सरकार के अंगों, नीतियों से अपनी समस्याओं को सुलझाने की अपेक्षा करती है‌। इसीलिए जो राजनीतिक दल साफ-सुथरे और स्वच्छ प्रशासन देने का विश्वास जनता में जगा देते हैं, जनता उनकी ओर अवश्य आकर्षित होती है। पंजाब में आम आदमी पार्टी का सत्ता में आना और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार का पुनः पदस्थापित होना इसी बात का प्रमाण है। यहां इस ओर भी ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि सुशासन में विधायकों की भूमिका मात्र कानून बनाने तक ही सीमित रह जाती है, उनके लिए प्रशासन में हस्तक्षेप करने का अवसर नहीं होता है। अतः ऐसे किसी सुशासन देने वाली सरकार में "जनप्रतिनिधियों" की न सुनी जाने वाली जैसी शिकायतें या बातों का कोई महत्त्व नहीं होता। दरअसल विधायकों या जनप्रतिनिधियों का महत्व उन्हीं सरकारों में ज्यादा होता है जो सरकारें स्वच्छ और कानून का शासन स्थापित कर पाने में असफल रहती हैं। 

        इन विधानसभाओं के चुनाव परिणामों से भविष्य में देश की राजनीति की दिशा क्या होगी, इसका भी संकेत मिलता है। लोकतंत्र जब कानून और जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की दिशा में सफल होता दिखाई पड़े तो शायद उसी को जीवंत लोकतंत्र कहा जा सकता है। तो देश में भावी राजनीति इसी जीवंत लोकतंत्र की ओर जाते हुए दिखाई दे रहा है, और आम जनता भी इसके लिए जैसे पलक पांवड़े बिछाए हुए है। जिसमें अब जाति, धर्म और चुनाव जिताने की गणित जैसी बातें बेमानी होने जा रहीं हैं।

          लेकिन जनता की इन आकांक्षाओं के बीच सफल हुए राजनीतिक दलों को और भी सजग और सावधान रहना होगा। यह जनता है जो कि सब जानती है। क्योंकि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण और कानून के शासन का सबसे ज्यादा प्रभाव कमजोर वर्गों पर ही पड़ता है। इस व्यवस्था में ही उन्हें सम्मान और सुरक्षा का अहसास होता है । ऐसी व्यवस्था देने में जो राजनीतिक दल जितना सफल होगा सत्ता भी उसके उतने ही करीब होगी और अब जनप्रतिनिधियों की 'फार्च्यूनर' वाली राजनीति सफल नहीं होने जा रही।
                            *****

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें