मंगलवार, 26 सितंबर 2017

बांध-संस्कृति

        "बंधवा पर महवीर विराजै" बचपन में जब इसे सुना था तब तक बांध से परिचित भी नहीं हो पाया था! इसी दौरान उपमन्यु वाली कहानी जरूर पढ़ी थी और जाना था कि, छोटी सी कोई "बंधी" पानी रोकने के भी काम आती है और ऐसी बंधियों की कितनी जरूरत होती है इसका अहसास उपमन्यु की कथा पढ़कर हो गया था! वाकई!  तब ये छोटी-छोटी बंधियाँ एकदम समाजवाद टाइप की होती होंगी। 
          इसके बाद उस "महवीर" वाले "बँधवा" से परिचित हुआ था! वो क्या कि मैंने सुना था, सन अठहत्तर के बाढ़ में इलाहाबाद में गंगा के बढ़ते जलस्तर को देखकर किसी बड़े इंजिनियर ने इलाहाबाद के डी एम साहब को उसी बाँधवा को काटने का सलाह दिया था कि, इससे बाढ़ का पानी फैल जाएगा और जलस्तर घट जाएगा.. लेकिन डी एम साहब ने यह कहते हुए मना कर दिया था कि "भइ, अगर बाढ़ के कारण बाँध को कटना ही है तो वह वैसे भी कट जाएगा..इसे काटने की जरूरत नहीं.." खैर, इसके बाद गंगा का जलस्तर घटना शुरू हो गया था और "बँधवा" कटने से बच गया था..!  मतलब ऐसे होते हैं हमारे बड़े-बड़े इंजीनियर और इनकी सलाह!! इसी तरह की सलाहों से बड़े-बड़े बाँध बनाए जाते होंगे।
          हाँ, अब तक तो अच्छी तरह से बांधों से परिचित हो चुका हूँ..इनमें रुके पानी से अपन गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत से ऊँचाई से टारबाइन पर गिरते पानी से बिजली बनते हुए जाना है। गुरुत्वाकर्षण-बल ही वह कारण है जिससे कोई भी ऊपर की चीज नीचे चली आती है। यह सहज गति है, प्राकृतिक गति है। हमारी जनता-जनार्दन प्रत्येक पाँच वर्ष बाद कुछ लोगों को पलायन-वेग की गति से ऊपर प्रक्षेपित कर देती है। ये नीचे से ऊपर स्थापित हुए लोग गुरुत्व-बल के विरोधी बन जाते हैं और चीजों पर लगने वाला गुरुत्वाकर्षण-बल धरा का धरा रह जाता है। यही ऊपर पहुँचे हुए लोग नीचे वालों के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाते हैं और उसमें फाटक भी लगाए होते हैं तथा चीजों को नीचे आने के लिए अपने मनमाफिक ढंग से फाटक को खोलते और बंद करते हैं..! तदनुसार ही नीचे वाले हरा-भरा और सुखी होते रहते हैं। मतलब, अगर आप को भी बांध से परिचित होना है तो गुरुत्वाकर्षण के विरोधी बनिए और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में घुसकर देखिए, नीचे से पलायित होइए...पता चल जाएगा!! 
     
          इधर अपन भी बाँधों के आसपास घूमकर जायजा ले चुके हैं.. वह क्या कि इन बाँधों के आसपास खूब हरियाली रहती है...इस हरियाली को देखकर मेरा भी मन "लकदक" हो जाता है! मेरा मानना है कि बाँध से दूर वाले इस सब्जबाग को देखकर अपना भी मन लकदक कर लेते होंगे, तभी तो अपने देश में "बाँध-संस्कृति" चल पड़ी है! यह "बाँध" बनाना इसलिए भी जरूरी है कि, इस पृथ्वी पर जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी है, वैसे-वैसे पूंजीवाद भी बढ़ता गया है और छीनाझपटी शुरू हो गई, परिणामस्वरूप अब "मेड़बंधी" से काम चलने वाला नहीं है। इस पूँजीवादी जमाने में मेड़बंधी तो समाजवादी प्रवृत्ति है, इसका त्याग कर बड़े बाँध वाली संस्कृति अपनाना अब अपरिहार्य हो चुका है। 
         ये बड़े बाँध हमें प्रतिकूल परिस्थिति में सुरक्षा का वैसे ही भरोसा देते हैं जैसे कि, जनता से अर्जित ताकत के बल पर ऊपर जाता गुरुत्व-बल का विरोधी कोई नेता नीचे वालों को आश्वासन देता है! इस बाँध-संस्कृति ने जनसंख्या-वृद्धि और समाजवाद के आपस के व्युत्क्रमानुपाती संबंध का खूब फायदा उठाया, जिसमें आदमी का विस्थापन होता है। तो, यहाँ हर व्यक्ति दूसरे को विस्थापित कर अपने लिए बाँध बनाकर उस पर फाटक लगाए बैठा है!

ब्राह्मणवाद

       उस दिन एक नए ज्ञान की प्राप्ति हुई थी...वह इस प्रकार है. एक बात तो है, जो ग्यानी-ध्यानी होते हैं लोग उनका बहुत सम्मान करते हैं। अब ग्यानी-ध्यानी कौन होता है? यह वह शख्स होता है जो सामनेवाले का कर्म-अकर्म और उसकी छल-छद्म जानने की शक्ति रखता है। इस शक्ति को वह अपने चिंतन-मनन और अनुभव से अर्जित कर लेता है, और यह तभी संभव होता है जब उसे करने को कुछ न हो। धीरे-धीरे ऐसे ही ग्यानी-ध्यानी को "ब्राह्मण" से नवाजा गया और ये समाज में सम्मान के पात्र और पूजनीय हुए। खैर..यहाँ मतलब किसी जाति से नहीं है और जाति वाले इसे दिल पर भी नहीं लेंगे। 
  1.             अब समाज में हर तरह के लोग तो होते ही हैं तो, प्राचीन काल से ही हमारे समाज में कुछ लोग ऐसे भी रहे हैं, जो अपने कर्म-अकर्म या छल-छद्म से अर्जित शक्ति के बल पर आमजन पर अपनी मनमानियाँ थोपते आए हैं। अपने यहाँ का आमजन निरा बेवकूफ जो ठहरा! वह ऐसी मनमानियों को डर वश कभी अपनी नियति माना तो कभी अपने कर्मों का फल और फिर सब कुछ सहता रहा। असल में हुआ यह कि यह ज्ञानी-ध्यानी "ब्राह्मण"  सदैव सम्मान का भूखा रहा है जैसा कि अकसर ज्ञानियों की आदत में होता है कि, जब तक इनका यथोचित सम्मान न हो जाए तब तक इन्हें अपने ज्ञानी होने का अहसास भी नहीं होता और इस प्रकार ये सदैव अपने ज्ञान का ही अहसास करते रहना चाहते हैं..! 
  2.             हाँ तो, अकर्मी-विकर्मी या छल-छद्मी की मनमानियों का शिकार आमजन, इन ज्ञानियों या कहें "ब्राह्मणों" की ओर, अपने ऊपर होते इन मनमानियों से त्राण पाने के लिए देखा भी होगा...लेकिन हुआ क्या..? हुआ यह कि, ये महाशय ज्ञानी-ध्यानी सम्मान के भूखे "ब्राह्मण" सम्मान पर बिक गए..क्योंकि अकर्मी-विकर्मी या छल-छद्मी जैसे लोग इन ज्ञानियों को विधिवत किसी आसन पर आसीन करा इनके पाँव पखारते हुए थाल में रोली-चंदन-अक्षत सजाकर चढ़ावे के साथ इनके माथे पर टीका लगाने लगे... और फिर इन ज्ञानियों का ज्ञान आशिर्वाद बन कर इन अकर्मी-विकर्मी और छल-छद्मियों पर ही फूटता रहा तथा यहीं पर इस सम्मान के समक्ष इनका ज्ञान मौन होता रहा। उधर मनमानियों के शिकार आमजन ऐसे "ब्राह्मणों" के ज्ञान से ठगे जाते रहे।
  3.            हाँ, होना तो यह चाहिए था कि इन ज्ञानी-ध्यानी "ब्राह्मणों" को अपने ज्ञान-शक्ति को, अकर्मी-विकर्मी तथा छल-छद्मियों की मनमानियों के शिकार लोगों के हाथों में हथियार बनाकर पकड़ा देना चाहिए था...लेकिन जो नहीं हुआ, बल्कि ये अपने "पूजनीयपने" में ही मस्त हो गए..! यही तो हुआ "ब्राह्मणवाद"..!!!
  4.           मतलब "ब्राह्मणवाद" और कुछ नहीं, बस किसी अत्याचारी-अनाचारी और छल-छद्मी की करतूतों को उजागर न कर उससे चढ़ावे के साथ अपने माथे पर रोली-चंदन-अक्षत का टीका लगवा लेना और इस सम्मान से गद्गद होकर उल्टे उसे ही आशिर्वाद देकर निर्भय बना देना है। 
  5.            मित्रों! इस "ब्राह्मणवाद" को किसी जाति-धर्म तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए...यह प्रवृत्ति किसी भी समाज, संस्था या तंन्त्र में दिखाई पड़ सकता है...यह "ब्राह्मणवाद" ही है जो रोली-चंदन-अक्षत और चढ़ावा ग्रहण कर सब को मौन बना देता है..! और किसी पिछड़े क्षेत्र में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से दिखाई पड़ती है। 
  6.            हाँ, एक बात और...जो "ब्राह्मणवाद" से प्रभावित नहीं होता मुखर होता है, उसके पग-पग पर काँटे बिछाये जाते हैं...कुछ कलम के सिपाही इसके शिकार हो जाते हैं और "ब्रह्मणवादी" लोग उन्हें अपने रास्ते से हटाने का प्रयास करते हैं। 
  7.               तो, अपने-अपने क्षेत्र के "ब्राह्मणवादियों" को पहचानिए...

रविवार, 24 सितंबर 2017

निजता के पैरोकार

           इस देश का गजबै हाल है..किसी की निजता उसे कहाँ से कहाँ ले जाकर खड़ी कर देती है..! हमको तो ई लगता है कि अपन का सुपरीम कोरट ई बात जानता है क्योंकि, उसे भी लगता है, जब हमारा संविधानइ जब व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा की बात करता है तो, हम काहे इसमें रोड़ा बनें,  आखिर बिना निजता के व्यक्ति में स्वतंत्रता और गरिमा का प्रवेश हो ही नहीं सकता! तो, कोरट ने झट से निजता को मौलिक अधिकार मान लिया। मानो, अब अपनी गोपनीयता बरकरार रखते हुए खूब स्वतंत्र होकर अपने गरिमा में वृद्धि लाइए..! 
         लो भइया! अभी ये निजता के पैरोकार भाई लोग, खुशी भी नहीं मना पाए थे और निजता पर पहाड़ जैसा टूट पड़ा! ये बाबा लोग भी न, निजता का गुड़ गोबर किए दे रहे हैं..गोपनीयता बरतते-बरतते बाबा तो बन जाते हैं, लेकिन गोपनीयता भंग होने पर बवाली बन जाते हैं। इसका मतलब तो यही निकलता है कि, निजता के ये पैरोकार होते हैं बड़े बवाली..कोई माने या न माने...! शायद कोरट भी यह भांप चुकी है, इसीलिए एक तरफ निजता की चादर देती है तो, दूसरी तरफ चादर सरकने पर यह सरेआम नंगा कर जेल भिजवा देती है..!! मतलब अब आप कहीं यह न कह बैठो कि भाई, यह कोरट तो निजता की कोई इज्जत ही नहीं करती..!
          एक बात बताऊँ..लेकिन अवमानना के लिए क्षमाप्रार्थी होकर.. वह यह कि, उस दिन हमें अपनी न्यायपालिका पर बहुत गुस्सा आया था, निजता के पैरोकारों को उछलते देखकर..! तब मैंने यही सोचा था.. "निजता को मौलिक अधिकार बताकर, अब हमारी न्यायपालिका भी बाबागीरी पर उतर आई है" 
          लेकिन, अपनी न्यायपालिका तो बड़ी चतुर-सुजान निकली, है न?  बिल्कुल कान को घुमाकर पकड़नेवाली है! अगर निजता को मूलाधिकार न मानती तो, अपनी निजता की अक्षुण्णता के बल पर धुरंधर बनने वाले ये बड़े-बड़े लोग यही कहते, "भई, अपने देश में लोकतंत्र का हनन हो रहा है..देश अलोकतांत्रिक बना जा रहा है..न्यायपालिका कुछ कर ही नहीं रही।"
        हाँ, यही सब सोच-विचार कर न्यायपालिका ने कहा, "लो भाई! निजता में लिपटे हुए खूब लोकतांत्रिक बनो, लेकिन निजता हटते ही सलाखों के पीछे तुम्हारी स्वतंत्रता बैठ कर रोएगी भी" और यही कहते हुए कोरट ने बेचारे बाबा को रुला दिया..!! 
       मतलब भइया,  मैं तो कहुंगा, "निजता के ऐ पैरोकारों!  इस न्यायपालिका के झाँसे में मत आओ, नहीं तो निजता-फिजता के चक्कर में किसी दिन यह आपकी स्वतंत्रता भी छीन लेगी।" 
        भाई!  यह सबको पता है.. इस देश के अधिकांश लोग, निजता-विहीन लोग ही हैं...इनके घरों में जाइए तो इनके घरों के दरवाजे खुले मिलते हैं..साँकल भी नहीं चढ़ी होती..इनके चूल्हों तक झाँक लीजिए.. इनके पास छिपाने को कुछ नहीं है...ये बिना निजता के गरिमा-विहीन लोग होते हैं...इनकी स्वतंत्रता दूसरों के रहमोकरम पर निर्भर होती है..और वहीं ये निजता वाले गरिमावान लोग, इन बेचारों की गरिमा और स्वतंत्रता दोनों को खाए हुए बाबा या महामानव बने फिरते हैं..
          हाँ उस दिन निजता के पैरोकारों की खुशी देख मुझे बहुत दु:ख हुआ था...क्योंकि तब कोरट भी बाबागीरी पर मुहर लगाती प्रतीत हुई थी.. लेकिन नहीं, अब जाकर तसल्ली हुई है..आखिर, यह निजता बड़ी खतरनाक चीज है, जेल पहुँचा देती है..! कोरट तो निजता-विहीन लोगों का आदर करती है..!! 
         सुन रहे हो न, निजता के पैरोकारों..?