बुधवार, 30 मार्च 2022

बदलता भारत

       अभी हाल ही में टीवी पर मैं भारत में प्रस्तावित और निर्माणाधीन आर्थिक गलियारे पर एक रिपोर्ट देख रहा था। इसे देखते हुए मैंने भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वरूप और विश्व में उसकी आर्थिक हैसियत की कल्पना कर रहा था। यहां इस आर्थिक गलियारे की चर्चा हम बाद में करेंगे पहले प्रधानमंत्री मोदी के 2019 में देखे उस विजन की बात करते हैं, जिसमें उन्होंने 2024-25 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर और विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की कल्पना की थी। लेकिन लगता है इसकी तैयारी उन्होंने 1 जनवरी 2015 से ही नीति आयोग (National Institution For Transforming) के गठन के साथ ही प्रारंभ कर दिया था। क्योंकि बदलते वैश्विक अर्थव्यवस्था में योजना आयोग की भूमिका कम हो रही थी। अब आवश्यकता एक ऐसे थिंक टैंक की थी जो मानव विकास के विभिन्न आयामों के साथ एक स्थिर विकास की आकांक्षा को पूरा करने के लिए नवीन अवधारणात्मक दृष्टिकोण देने के साथ उसे क्रियान्वित भी करा सके। नीति आयोग ने अपने गठन के साथ ही इसपर काम करना आरंभ कर दिया था। नीति आयोग का उद्देश्य राष्ट्रीय विकास की प्राथमिकताओं को तय करने के साथ ही वंचित समाज के कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान देने का था। इसके लिए आवश्यक था कि दीर्घावधि के लिए नीति तथा कार्यक्रम विकसित करने के साथ साथ एक न्यायसंगत विकास का ढांचा खड़ा करने पर काम किया जा‌ए। इस प्रकार नीति आयोग ने बदलते समय के अनुसार भारत के विकास एजेंडा का कायांतरण करने की भूमिका में आया।

        भारत के कायांतरण के लिए तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था से तालमेल और प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए आधारभूत ढांचे के विकास के साथ रोजगार के अवसर बढ़ाने और विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए अनुकूल औद्योगिक वातावरण तैयार किए जाने की आवश्यकता थी। इसके लिए आर्थिक गलियारा निर्माण की नीति अपनाई गई है। इस नीति के क्रियान्वयन से भविष्य में भारत को ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने और समग्र विकास का रास्ता प्रशस्त होगा तथा इससे कौशल विकास, रोजगार के अवसर बढ़ने के साथ ही साथ औद्योगिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा भी बढ़ेगी। 

       विश्व के कुछ प्रमुख औद्योगिक गलियारों पर यदि दृष्टि दौड़ाएं तो आर्थिक रूप से समृद्ध देशों में उनकी अर्थव्यवस्था में आर्थिक गलियारे का महत्वपूर्ण योगदान है। जैसे अमेरिका में 500 मील का बोस्टन-वाशिंगटन आर्थिक गलियारा दुनिया का सबसे लोकप्रिय आर्थिक गलियारा है। अकेले इस कॉरिडोर से कुल 3.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का आर्थिक उत्पादन होता है, जो जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद और संयुक्त राज्य अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद के 19-20% के बराबर है। यहां तक ​​​​कि संयुक्त राज्य अमेरिका में इस तरह के सबसे छोटे गलियारों में, 29-मील डेनवर-बोल्डर औद्योगिक गलियारा, आर्थिक उत्पादन में 256 बिलियन डॉलर का उत्पादन करता है। आज 13.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के आर्थिक उत्पादन पर, संयुक्त राज्य अमेरिका में बारह औद्योगिक गलियारे चीन के सकल घरेलू उत्पाद का 86.8% हिस्सा हैं। इसी तरह जापान में ओसाका और टोक्यो को जोड़ने वाला 1,200 किलोमीटर का कॉरिडोर अकेले जापान के सकल घरेलू उत्पाद का 80% हिस्सा है।

        कहा जाता है कि अर्थव्यवस्था में हर मील का पत्थर अतीत से उपजता है, अर्थात पूर्व की आर्थिक नीतियों की नींव पर बड़ा लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। भारत में औद्योगिक गलियारे की पृष्ठभूमि वर्ष 2007 में केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा अनुमोदित दिल्ली मुंबई औद्योगिक गलियारा परियोजना की स्वीकृति के साथ ही पड़ गई थी और यह परियोजना 2011 में प्रारभ हुई। लेकिन इस क्षेत्र में तेजी तब आई जब इसे एक नीतिगत विषय मानकर वर्ष 2016 में "राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा कार्यक्रम" के रूप में एक व्यापक योजना पर कार्य शुरू हुआ। औद्योगिक आर्थिक गलियारा एक आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र है जो परिवहन गलियारे के चारों ओर विकसित किया जाता है। इसके पीछे निवेश आकर्षित कर रोजगार के अवसर सृजित करना, सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र के योगदान को बढ़ाना, समान औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा देना तथा श्रम उत्पादकता और आय के स्तर में वृद्धि जैसे उद्देश्य थे। निश्चित रूप से, आर्थिक गलियारों के पूर्ण होने पर भारत में औद्योगीकरण और नियोजित शहरीकरण के साथ समावेशी विकास को बढ़ावा मिलेगा।  

          वर्तमान में, 11 औद्योगिक गलियारा परियोजनाएं हैं जिनमें से भारत सरकार ने पाँच औद्योगिक गलियारा परियोजनाओं के विकास को मंज़ूरी दे दी है, जिन्हें राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास और कार्यान्वयन ट्रस्ट (National Industrial Corridor Development and Implementation Trust- NICDIT) के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है। भारत के प्रमुख आर्थिक केंद्रों को जोड़ने वाले ये पांच प्रमुख आर्थिक गलियारे हैं, 1. दिल्ली मुंबई औद्योगिक गलियारा (डीएमआईसी 1504 किमी),। 2. चेन्नई बेंगलुरु औद्योगिक गलियारा (सीबीआईसी 560 किमी), 3. बेंगलुरु-मुंब‌ई आर्थिक गलियारा (1000 किमी), 4. विजाग- चेन्नई आर्थिक गलियारा (800 किमी), 5.अमृतसर कोलकाता औद्योगिक गलियारा (एकेआईसी 1839 किमी)। इन पर "राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा कार्यक्रम" योजना के रूप में समग्र स्वीकृत कोष 20,084 करोड़ में रु में से अब तक 6,115 करोड़ का उपयोग किया जा चुका है और इसके अतिरिक्त अन्य प्रस्तावित परियोजनाओं, हैदराबाद नागपुर औद्योगिक गलियारा (एचएनआईसी), हैदराबाद-बेंगलूरू औद्योगिक गलियारा, ओडिशा इकोनॉमिक कॉरिडोर,  दिल्ली नागपुर इंडस्ट्रियल कॉरिडोर को स्वीकृति प्रदान की गई है।

         यहां एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है, वर्तमान में उद्योगों और रोजगार के अवसर का संकेंन्द्रण कुछ विशेष क्षेत्रों या शहरों तक ही सीमित है तथा श्रमिक पलायन करने के लिए बाध्य होते हैं। लेकिन औद्योगिक कोरीडोर के पूर्ण और विकसित हो जाने पर देश के पिछड़े क्षेत्रों में भी विकास के साथ रोजगार के अवसर सृजित होंगे। इस प्रकार देश के आर्थिक प्रगति में क्षेत्रीय असमानता दूर होगी तथा भारत के सकल घरेलू उत्पाद में तेजी के साथ उछाल आएगा। आज कोविड काल जैसी विपरीत परिस्थितियों के बाद भी इसका अनुमान 8.3 प्रतिशत लगाया गया है, जो देश के आर्थिक विकास के लिए एक शुभ संकेत भी। लेकिन यहां हम यह भी कह सकते हैं कि आज भारत जी डी पी चाहे जो हो, यदि देश में आर्थिक गलियारे विकसित हो जाते हैं तो भारत की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर से भी कहीं अधिक बड़ी होगी।  
         
        किसी भी राष्ट्र को एक बड़ी अर्थव्यवस्था में बदलने के लिए, कृषि सुधार, भूमि और श्रम सुधार, रोजगार के अवसर और कौशल विकास के लिए रोड मैप बनाए जाने की भी आवश्यकता होती है। नीति आयोग इस एजेंडे पर रणनीति के साथ काम कर रहा है और ऐसा लगता है कि भारत एक ऊँची अर्थव्यवस्था में छलांग लगाने के लिए तैयार बैठा है। भारत के विमुद्रीकरण (नोटबंदी) की हम चाहे जितनी आलोचना करें लेकिन इसके बाद देश लगभग 1 अरब डेबिट/क्रेडिट कार्ड, 2.25 अरब पीपीआई (प्रीपेड पेमेंट इंस्ट्रूमेंट्स) और कई नए पेमेंट मोड के साथ सबसे बड़े और तेजी से बढ़ते डिजिटल पेमेंट बाजार में से एक होने वाला है। मोबाइल से दुकानों में पेमेंट करने के मामले में भारत 20.2 फीसदी के साथ दुनियां में छठे स्थान पर है जबकि अमेरिका सातवें नंबर पर है। यह हमारे कौशल विकास की एक बानगी भर है। 
      
        उस दिन संसद टी वी पर भारत में प्रस्तावित और निर्माणाधीन आर्थिक गलियारे पर डाक्यूमेंट्री देखकर मैं बदलते भारत के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त हो गया था। अंत में एक बात और कहना चाहता हूं, जातिवादी और साम्प्रदायिक शक्तियां अकसर आर्थिक रूप से विपन्न और कमजोर वर्गों का सहारा लेकर ही आगे बढ़ती है। लेकिन भविष्य में, देश में जिस आर्थिक वातावरण का सृजन होने जा रहा है, निश्चित ही ऐसी शक्तियों की धार कुंद होगी तथा आगे चलकर ऐसी विचारधाराएं औचित्यहीन हो जाएंगी।

              (इस लेख के कुछ अंश गूगल से प्राप्त जानकारी के आधार पर है)

मंगलवार, 15 मार्च 2022

अब 'फार्च्यूनर' की नहीं, आम आदमी की राजनीति

              10 मार्च की तारीख थी, पांच राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव परिणाम आ रहे थे। मैं गौर से इन परिणामों का अध्ययन कर रहा था। हालांकि ये परिणाम कुछ-कुछ वैसे ही थे, जैसा कि मैंने अपने कुछ साथियों से हुई निजी बातचीत में अनुमान लगाया था और ये मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं थे। लेकिन इन परिणामों में छिपी हुई कुछ बातें ऐसी थी जो बरबस मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। लगभग उन्हीं बातों को अरविंद केजरीवाल जी ने उसी दिन मतदाताओं के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने संबोधन में कहा था। मैंने उनका पूरा भाषण ध्यान से सुना। उन्होंने उस संबोधन में एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर रेखांकित किया, जैसे कि पंजाब में जिन बड़े दिग्गजों की हार हुई है, उन्हें हराने वाले एकदम से आम आदमी थे। इसके बाद शाम को मैंने प्रधानमंत्री जी का दिल्ली के पार्टी कार्यालय में हुए संबोधन को सुना।

            अपने इस संबोधन में प्रधानमंत्री जी ने दो महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इंगित किया। प्रथमत: उन्होंने भ्रष्टाचार और उसकी जांचों को लेकर बहुत कुछ कहा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांचों को राजनीतिक रंग देने वाले या इसे भेदभावपूर्ण बताने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों पर तंज कसा। वहीं दूसरी ओर उन्होंने देश से परिवारवादी राजनीति का अंत होने जा रहा है, की बात कही।  प्रधानमंत्री जी की इन दो बातों पर मेरा ध्यान विशेष रूप से गया, ये बातें बेहद महत्वपूर्ण थी और जो उनकी आगे की राजनीतिक रणनीति की ओर संकेत भी दे रही थी। मुझे प्रधानमंत्री जी का उक्त संबोधन प्रकारांतर से केजरीवाल जी के पूर्व के संबोधन का ही विस्तार जान पड़ा। वहां केजरीवाल जी आम आदमी के जीतने की बात कर रहे थे और यहां प्रधानमंत्री जी परिवारवाद के अंत की बात कर रहे थे। उनके इस भाषण को सुनकर ऐसा लगा जैसे पंजाब के चुनाव परिणामों में मिली आम आदमी पार्टी की सफलता से भविष्य में मिलने जा रही चुनौतियों का उन्हें अहसास हो गया होगा। 

          खैर, मैंने इन चुनाव परिणामों में जीत कर आ रहे उम्मीदवारों पर गौर किया। इनमें से ज्यादातर साधारण "नाक-नक्श" वाले और सामान्य पृष्ठभूमि के प्रतीत हुए और जिनमें "इलीट" वर्ग का होने का लक्षण नहीं दिखाई दे रहा था। जब किसी राजनीतिक दल से ऐसे उम्मीदवार जीतते हैं, तो इससे उस दल की सर्वस्वीकार्यता और उसके साथ जुड़ी जनता की आकांक्षा का भी आभास होता है। भारत जैसे देश में जब किसी राजनीतिक दल में "कुलीन वर्ग" और "कुलीन चेहरों" की बहुतायत होने लगती है तो ऐसे दल का पतन भी प्रारंभ होना शुरू हो जाता है। यह "कुलीन वर्ग" और "कुलीन चेहरे" परिवारवाद का भी एक लक्षण है। प्रधानमंत्री जी ने अपने उस संबोधन में अप्रत्यक्षत: इसी के अंत होने की ओर संकेत किया था। इस संदेश में यह बात भी छिपा था कि राजनीतिक दलों के लिए अब यह महत्वपूर्ण हो चला है कि "जनप्रतिनिधित्व" जैसे गुण को किसी "परिवार की बपौती" भी न बनने दें। 

          एक बात तय है जब कानून का शासन होता है, तो आम जनता अपना त्राण सरकार की व्यवस्था में ही खोजती है। इस परिस्थिति में "राबिनहुडीय" छवि वाले नेताओं, परिवारों और माफियाओं का वर्चस्व धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है, क्योंकि आम जनता अपनी समस्याओं को लेकर किसी विधायक या अपने क्षेत्र के माफिया के पास जाना पसंद नहीं करती, बल्कि सीधे सरकार के अंगों, नीतियों से अपनी समस्याओं को सुलझाने की अपेक्षा करती है‌। इसीलिए जो राजनीतिक दल साफ-सुथरे और स्वच्छ प्रशासन देने का विश्वास जनता में जगा देते हैं, जनता उनकी ओर अवश्य आकर्षित होती है। पंजाब में आम आदमी पार्टी का सत्ता में आना और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार का पुनः पदस्थापित होना इसी बात का प्रमाण है। यहां इस ओर भी ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि सुशासन में विधायकों की भूमिका मात्र कानून बनाने तक ही सीमित रह जाती है, उनके लिए प्रशासन में हस्तक्षेप करने का अवसर नहीं होता है। अतः ऐसे किसी सुशासन देने वाली सरकार में "जनप्रतिनिधियों" की न सुनी जाने वाली जैसी शिकायतें या बातों का कोई महत्त्व नहीं होता। दरअसल विधायकों या जनप्रतिनिधियों का महत्व उन्हीं सरकारों में ज्यादा होता है जो सरकारें स्वच्छ और कानून का शासन स्थापित कर पाने में असफल रहती हैं। 

        इन विधानसभाओं के चुनाव परिणामों से भविष्य में देश की राजनीति की दिशा क्या होगी, इसका भी संकेत मिलता है। लोकतंत्र जब कानून और जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की दिशा में सफल होता दिखाई पड़े तो शायद उसी को जीवंत लोकतंत्र कहा जा सकता है। तो देश में भावी राजनीति इसी जीवंत लोकतंत्र की ओर जाते हुए दिखाई दे रहा है, और आम जनता भी इसके लिए जैसे पलक पांवड़े बिछाए हुए है। जिसमें अब जाति, धर्म और चुनाव जिताने की गणित जैसी बातें बेमानी होने जा रहीं हैं।

          लेकिन जनता की इन आकांक्षाओं के बीच सफल हुए राजनीतिक दलों को और भी सजग और सावधान रहना होगा। यह जनता है जो कि सब जानती है। क्योंकि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण और कानून के शासन का सबसे ज्यादा प्रभाव कमजोर वर्गों पर ही पड़ता है। इस व्यवस्था में ही उन्हें सम्मान और सुरक्षा का अहसास होता है । ऐसी व्यवस्था देने में जो राजनीतिक दल जितना सफल होगा सत्ता भी उसके उतने ही करीब होगी और अब जनप्रतिनिधियों की 'फार्च्यूनर' वाली राजनीति सफल नहीं होने जा रही।
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रविवार, 30 जनवरी 2022

गांधी-मुद्रा पर कंन्फ्यूजन

सुबह-सुबह मुझे गांधी जी की पुण्यतिथि की याद आ गई, जो आज है। सुबह की टहलाई भूलकर मैं गांधी जी पर फोकस हो चुका था। सोच रहा था कि युग बदल रहा है, व्यक्ति की मान्यताएं और धारणाएं बदल रही हैं। लेकिन इधर बेचारे गांधी जी को लेकर बड़ा कंन्फ्यूजन उत्पन्न हो रहा है। पहले ये महात्मा हुए फिर राष्ट्रपिता हुए और जैसे-जैसे राजनीति परवान चढ़ी तो अवतार यानि कि ऊपरवाले की श्रेणी में भी आते ग‌ए। और इस श्रेणी में आते ही इन्हें लेकर विवाद होना शुरू हो गया। यह सही बात है कि ऊपरवाले को लेकर धरती पर और खासकर अपने देश में तो बहुत ही चकल्लस है! इन्हें रिलिजन, पंथ या मजहबी खांचे में फिट करके लोग खूब मेरा-तेरा करते हैं, पता नहीं इससे इनकी भद् पिटती है या रक्षा होती है यह तो वही जानें! लेकिन तेरा-मेरा करने वाले लोग अपने-अपने रसिकों के बीच खूब यश लूटते हैं और लोकतंत्र को परवान चढ़ाते हैं। वैसे तर्क करने के अधिकार का नाम ही लोकतंत्र है और कहते हैं कि तर्क से रौशन-ख़याली बढ़ती है, जिससे व्यक्ति का आत्मिक विकास होता है। लेकिन इस्मत चुगताई ने देश में बढ़ते रौशन-ख़याली को लेकर यह भी लिखा है "जितनी-जितनी मुल्क में रौशन-ख़याली बढ़ती जा रही थी, लोग शिद्दत से फ़िर्क़ापरस्त होते जा रहे थे।" तो क्या लोकतंत्र में फ़िर्कापरस्ती बढ़ती है? शायद बढ़ती भी हो, क्योंकि लोकतंत्र में आप्तवाक्यों का खूब चलन है। जितने प्रकार के महापुरुष हुए हैं उतने ही प्रकार के नेता हो ग‌ए हैं! तथा उतने ही प्रकार के आप्तवाक्यों के खांचे बनाकर लोकतंत्र को विकेंद्रित कर देश में लोकतंत्र को समृद्ध करने का कार्यक्रम चालू है! अब भला आप्तवाक्यों पर कोई तर्क कर सकता है, नहीं न। यही तर्कातीत होना ही तो फ़िर्कापरस्ती है।


         लेकिन मैं फ़िर्कापरस्ती की ज़हमत में नहीं पड़ना चाहता। मेरा कंन्फ्यूजन इस बात पर है कि गांधी जी की कौन सी मुद्रा स्वीकार करूं कि किसी विवाद में पड़े बिना इनका अनुयायी बनकर मैं भी देश के लोकतंत्र को समृद्ध कर इसके मजे ले सकूं! वैसे स्वतंत्रता के बाद महात्मा या राष्ट्रपिता वाली गांधी-मुद्रा का अब कोई अर्थ नहीं, इस रूप में ये महोदय अपनी सेवा समाप्त कर चुके हैं और खाली-पीली इनकी ऐसी अराधना से कोई लाभ भी नहीं, उल्टे लोग फ़िरकी भी ले सकते हैं कि देखो बड़ा गांधीवादी बना फिर रहा है! इस प्रकार इसमें लाभ की बजाय हानि ही ज्यादा है। रही बात गांधी के ऊपरवाले स्वरूप की तो इसमें भी फायदा नहीं! वैसे भी अपने देश में भगवान की वैरायटियों में क्या कोई कमी है, यहां तो प्रत्येक टाइप के संकट दूर करने वाले भगवान विराजमान हैं, यदि इनसे संकट दूर हो रहा होता तो यह देश संकट-मुक्त ही होता! वैसे आधुनिक युग में नाइंटी नाइन पर्सेंट संकटों को पैसे से दूर किया जा सकता है। इसलिए पैसे को खुदा मान लेने में कोई हर्ज नहीं। लेकिन यदि किसी चीज को खुदा मान लेने से कोई साम्प्रदायिक समस्या उत्पन्न होती है तो फिर यह बात तो मानी ही जा सकती है कि पैसा खुदा भले ही न हो, लेकिन संकट दूर करने में खुदा से कम भी नहीं। इस प्रकार मैं समझता हूं कि पैसे हों तो आदमी हंड्रेड परसेंट संकट से मुक्त हो सकता है। शायद यही कारण है कि आज के युग में पैसे का ही बोलबाला है, लोग गांधी पकड़ा कर काम निकलवाने की बात खुलेआम कहते सुने जाते हैं। शायद संकटों के दृष्टिगत ही चारों ओर केवल गांधी पकड़ाई का ही कार्यक्रम चलन में है।


        अरे वाह! वाकई में गांधी के सब रूपों से बढ़कर यह गांधी-मुद्रा ही तो है जो संकट में ऊपरवाले से भी बढ़कर मदद करती है! और यही गांधी-मुद्रा है जो सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक, सर्वस्वीकार्य है और जिसकी धर्मनिरपेक्षता निर्विवादित रूप से सिद्ध है! बस मुझे समझ आ गया कि इस गांधी-मुद्रा को स्वीकार करने में कोई हीलाहवाली नहीं करनी चाहिए!! बल्कि अपने ऊपर आने वाले संकट की मात्रा और उसके प्रकार की कल्पना कर इस गांधी-मुद्रा को सम्मान के साथ खांचों में संरक्षित करते जाना चाहिए! चाहे इसके लिए घर में बेसमेंट के साथ उसकी दीवारों, आलमारियों में ऐसे गोपनीय खांचे ही क्यों न बनवाने पड़े!! भला इससे बढ़कर गांधी जी के सम्मान और संकट से अपनी रक्षा करने का कोई दूसरा उपाय हो सकता है, नहीं न? 


      तो, जब अकर्मण्य और चुक चुके लोग हाल ही में एक व्यापारी के घर से बरामद बेशुमार गांधी-मुद्रा का उदाहरण देकर और उसके जेल की हवा खाने की बात बताकर कहें कि गांधी का ऐसा सम्मान करने में भी आफत है, तो उसकी बात हवा में उड़ाकर उसपर कान न धरा जाए! क्योंकि उसकी बातें राजनीति से प्रेरित हो सकती है, ऐसा राजनीतिपरस्त व्यक्ति आप और देश के लोकतंत्र, दोनों को हानि पहुंचाना चाहता है।


          इस निष्कर्ष की प्राप्ति के साथ आज की सुबह मुझे बेहद मानसिक शांति की अनुभूति हो रही है। बाहर हॉकर के द्वारा अखबार फेंके जाने की आवाज आई है। अखबार उठाने चल रहा हूं। #चलते_चलते मुझे गांधी के मान पर एक बात याद आई। गांधी के आग्रह पर एक बार गोपाल कृष्ण गोखले दक्षिण अफ्रीका ग‌ए। वहां से लौटते समय उन्होंने गांधी जी को समझाया था कि 'देखो, हम सब बूढ़े हो रहे हैं। हम लोगों का क्या ठिकाना, कब पके आम की तरह झर जाएं। तुम्हारी अपनी मातृभूमि के प्रति भी उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी यहाँ बसे भारतीय भाइयों के प्रति‌। देशभक्ति का किसी भी दूसरी भक्ति से कोई मुकाबला नहीं।... यह एक ऐसी लकीर है जो एक बार खिंच गई तो मृत्यु भी हार जाती है पर वह नहीं मिटती।' इसके बाद गांधी से बोले, 'मैं तुम्हारा इंतज़ार करुंगा। देश को तुम्हें सौंपे बिना नहीं मरुंगा।' और गांधी जी भारत लौटे भी थे। बाकी इतिहास आपको भी पता है, इससे सिद्ध होता है कि गांधी जी इस देश की गुलामी का संकट दूर करने के काम आए थे। इससे यह भी सिद्ध है कि गांधी जी संकट के समय काम आते हैं।